- सुदर्शन रत्नाकर1.शुद्ध जात
माँजी मेरे पास रहने के लिए आ रही थीं। उनको नहलाना- धुलाना, घुमाना, कपड़े लत्ते, खाना सब काम मुझे ही करने होंगे। थोड़ा कठिन लगा। इसलिए मैंने मेड ढूँढनी शुरू कर दी, पर कोशिश करने पर भी मिली ही नहीं। तभी पता चला गली के सफ़ाई कर्मचारी की पन्द्रह - सोलह वर्ष की लड़की है। उससे बात की तो वह उसे काम पर भेजने के लिए तैयार हो गया। मैंने उसे समझा दिया कि वह किसी को बताएगा नहीं कि उसकी बेटी यहाँ काम करती है। माँजी को तो बिलकुल ही पता नहीं चलना चाहिए।
राधा माँजी के सारे काम पूरे मन से करती। उन्हीं के कमरे में सोती थी। माँजी ख़ुश थीं और मैं निश्चिंत ।
एक दिन मैं घर पर नहीं थी। उस दिन राधा का भाई घर पर आ गया। कोई रिश्तेदार आए थे और उसकी माँ ने उसे घर बुलाया था। उसके भाई से माँजी को पता चल गया कि राधा कौन जात की है। मैं माँजी के सामने जाने से डर रही थी कि उनकी क्रोधाग्नि का सामना कैसे कर पाऊँगी। वह ठहरी जात- पात, छुआ-छूत में विश्वास रखने तथा नित्य नियम करने वाली महिला ।
उन्होंने मुझे बुलाया। मैं डरते-डरते उनके पास गई। उन्होंने पूछा,"बहू ,तुम जानती थी कि राधा कौन जात है। "
" जी माँजी" मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया"
"कोनो बात नहीं बहू, जब अपने सेवा न कर सकें, तो परायों की कौन जात, जो सेवा करे वही शुद्ध जात ।
जैसे ही उन्होंने गटर के ऊपर रखे लोहे के भारी ढक्कन को उठाया दुर्गंध का एक भभका उठा और सारे वातावरण में फैल गया। उसका साँस घुटने लगा। नाक को दुपट्टे से ढाँकती उसने अंदर आकर दरवाजा बंद कर लिया। अब वह काँच के दरवाज़े से उन्हें देख रही थी। वे तीन लोग थे। एक का हाथ ढक्कन उठाते ही कीचड़ से भर गया था। हाथ धोये बिना ही उसने एक लम्बा बाँस उठाया, गटर में डाला, दूसरे ने पीछे से ज़ोर लगाया। बाँस थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ने लगा था।
उसे लगा कितना कठिन काम है जिस दुर्गंध के कारण उसे उबकाई आ रही है, वे लोग उसी गंदगी में खड़े काम कर रहे हैं। कम से कम उनके एक हज़ार रुपये तो बनते हैं। उसने पर्स से पाँच सौ, दो - दो सौ के तथा एक सौ रुपये के नोट निकाल कर अपने हाथ में रख लिए। उसने बाहर देखा अब तीसरा आदमी भी उनके साथ लग कर ज़ोर लगा रहा था। शायद कुछ अटका हुआ था जिसके कारण बाँस आगे बढ़ ही नहीं रहा था। उन्हें प्रयास करते हुए पाँच-सात मिनट हो गए थे। उन्होंने अब बाँस बाहर निकाल दिया था। उसने देखा पानी थोड़ा-थोड़ा आगे जा रहा है । अरे ! समस्या तो सुलझती नज़र आ रही है । उसने मन में सोचा, इतनी सी देर के लिए पाँच सौ ही बहुत हैं। अब उनमें से एक ने हाथ नाली में डाला और उसमें फँसी ईंट का टुकड़ा बाहर निकाल दिया। पानी तेज़ गति से मेन होल में जाने लगा। बस बीस मिनट में सब काम हो गया। पाँच सौ अधिक हैं। तीन सौ बहुत हैं। उसने दरवाजा खोल कर मुट्ठी में रखे रुपयों में से तीन सौ रुपये उन्हें दे दिए। वे हाथ धोकर चले गए।
वातावरण में फैली दुर्गंध धीरे -धीरे दूर होने लगी थी। आँगन में फैला दस दिन का गंदा पानी सीवर के रास्ते निकल गया था। लेकिन उसके मन में कुछ अटक गया था । उसे जल्दी नहीं करनी थी । दो सौ रुपये बहुत थे। बीस मिनट का तो काम था। साँझ तक फाँस उसके मन में अटकी रही।
सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001
3 comments:
यथार्थ को शिल्प में ढालते हुए दोनों लघुकथाओं में मौलिकता है, बहुत सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाएँ।
प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार। सुदर्शन रत्नाकर
आदरणीया
बहुत सुंदर और सारगर्भित संदेश। अद्भुत :
- जाति पाति से बड़ा धर्म है
- और धर्म से बड़ा कर्म है
- इंसां गर सत्कर्म करे तो
- यह धरती स्वर्ग समान है
- ये ही गीता का ज्ञान है
हार्दिक बधाई सहित सादर
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