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Feb 1, 2025

यात्रा वृत्तांत: सत्य के मार्ग पर

विनोद साव

 जब हम किसी इलाके में पहली बार जा रहे होते हैं< तो बड़ी उत्सुकता होती है उसे देखने की जानने की। हम पीछे सरकते जा रहे दृश्य को गौर से देखते हैं। जो खेत सरपट भागे जा रहे हैं उनमें क्या बोया है। इन्हें बोने वाले लोग कौन हैं? उनके गाँव कैसे होते हैं। जब कोई नया स्टेशन आने वाला होता है< उसके शहर की बाहरी बसावट दिखने लगती है। फिर शहर दिखता है... और उसकी अपनी गन्ध। हर शहर की अपनी गन्ध होती है। उस नए स्टेशन में उतरने वाले लोग चले जाते होंगे अपने अपने गाँवों में जहाँ उनका घर होता है, उनकी बोई हुई फसलें होती हैं। उनके अपने खानपान और तीज-त्योहार, अपने उत्सव और रीति रिवाज होते हैं। उनके अपने उपासना- गृह और होती है इन सबसे बनी उनकी संस्कृति, जिनमें वे रचे बसे होते हैं। इनमें साफ सुथरे दिखते हुए लोग ज्यादातर श्वेतवस्त्र धारी हैं। 

यह सौराष्ट्र का वृहत्तर हिस्सा था जिसमें काठियावाड़ भी है। हमारे सामने एक वृद्ध मुसलमान दंपती लेटे हुए थे। उन्होंने हम लोगों को मुसकुराकर देखा फिर पैंट्रीकार से चाय आई, तब उन्होंने चाय पी। हमें आग्रह कर पिलाया, तो हमने भी पी ली। एक स्टेशन आ गया। एक गुजराती मित्र गन्देचा का फोन आ गया “कहाँ पहुँचे हो?”

मैं कहता हूँ - “जामनगर।”

वे कहते हैं – ‘‘भव्य ऐतिहासिक नगर है जामनगर। अपनी चमक धमक में दिन और रात में अलग अलग दिखता है। जिन्ना भी यहीं के थे कराची जाने से पहले।” इतिहास का एक पन्ना फड़फड़ाया। एक ऐसा चरित्र सामने खड़ा हुआ, कहा जाता है, जिनकी जिद में विभाजन हुआ था। जिन्ना ने एक हिन्दू स्त्री रतनबाई से ब्याह भी किया था; पर पाकिस्तान जिन्ना की जिद पर बना। गांधी कहते थे - “मैं अपने जीवन में दो लोगों को नहीं समझ सका- एक अपने बेटे हरिलाल को और दूसरा अपने काठियावाड़ी साथी मुहम्मद अली जिन्ना को।”

जामनगर स्टेशन राजकोट के बाद आया था। जामनगर में जिन्ना और राजकोट में गांधी रहे। राजकोट कभी सौराष्ट्र की राजधानी रहा था। मोहनदास के पिता करमचंद गांधी सौराष्ट्र के दीवान थे। मोहनदास पोरबन्दर में अपना बचपन बिताकर शालेय शिक्षा के लिए यहाँ आ गए थे। गांधी जी के घर में अब एक बालमंदिर खुल गया है। याद आया कि अपने शहर दुर्ग के बालमंदिर में हम जाते थे, उसका नाम कस्तूरबा गांधी बालमंदिर था। अब बाल मंदिरों को नर्सरी स्कूल कह दिया जाता है।

साबरमती नदी दिखी। अरसा पहले एक व्यापारी मित्र के साथ पहली बार गुजरात आया था तब अहमदाबाद में साबरमती आश्रम को देखा था। वहाँ अपेक्षाकृत युवा कस्तूरबा का एक सुन्दर चित्र दिखा था। उस समय की देखी हुई एक फिल्म ‘गांधी माय फादर’ की कस्तूरबा एकदम वैसी ही लगीं थीं। यह फिल्म महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल गांधी के बीच के अशांत संबंधों की पड़ताल करती है। यह हरिलाल के जीवन पर आधारित है। यह अचम्भा लगा कि फिल्म के निर्माता एक पेशेवर हीरो अनिल कपूर हैं और हरिलाल की भूमिका को अक्षय खन्ना ने जीवंत कर दिया था। फिल्म की शूटिंग दक्षिण-अफ्रीका, मुंबई और अहमदाबाद सहित कई भारतीय शहरों में की गई थी। गुजरात राज्य के संगठन के समय साबरमती नदी के किनारे एक नई राजधानी बनाई गई थी जिसका नाम रखा गया ‘गांधी नगर’।

हम दूसरी बार देश के पश्चिमी छोर में आ गए थे पर यह गुजरात का दक्षिण था जहाँ हमारी यह पहली यात्रा थी। पोरबंदर स्टेशन में उतरते ही सामने चित्र में ट्रेन पर चढ़े हुए बापू दिख गए। वे किसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के दरवाजे पर खड़े थे। मैं भारतीय रेलवे की स्थानीयता को पकड़ने की उनकी चेतना का हमेशा कायल रहा हूँ। वाह वाह... भारतीय रेलवे।

प्लेटफार्म नंबर-एक के खम्भे पर एक रेखाचित्र टँगा है जिसमें गांधी जी का संदेश अंग्रेजी में है- First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you and then you win।” (पहले लोग तुम्हारी अवहेलना करेंगे, फिर वे तुम पर हँसेंगे, और जब तुमसे लड़ाई करेंगे तब जीत तुम्हारी होगी।” 

ट्रेन विलम्ब से आई थी। हमें विश्वास ही नहीं हुआ कि हम अपने गंतव्य तक पहुँच गए हैं। किसी ने कहा था “पोरबन्दर आ गया है।” उतरने पर कहीं स्टेशन का नाम भी नहीं दिखा। मैं और चन्द्रा उतर गए थे। एक सिपाही से पूछा ‘रिटायरिंग रूम?”

“आप काउंटर नम्बर-एक पर चले जाइए, वहाँ से चाबी ले आइए।” काउंटर वाले ने चाबी देते हुए बताया कि “आपने महीने भर पहले बुकिंग करवा ली थी; इसलिए कमरा मिल गया। पिछले पंद्रह दिनों से बुकिंग बंद है। पूरे स्टेशन का पुनर्निर्माण हो रहा है।” इसीलिए स्टेशन ध्वस्त होता सा दिखा। हमने इस ध्वस्त होते स्टेशन को अपने कैमरे में कैद कर लिया था। इसकी कैंटीन भी टूट चुकी है, पानी की बोतल और चाय भी यहाँ नसीब नहीं हो रही थी। दो दिन रहकर हमने गांधी जी के मोहल्ले में रहने का निर्णय ले लिया था; पर फ़िलहाल हम रेलवे के बसेरे में आ गए थे। यह एक वातानुकूलित रिटायरिंग रूम था। जिसका शयनकक्ष और नहानी दोनों बहुत बड़े थे और सर्वसुविधा युक्त थे। फकत पाँच सौ रुपयों में हासिल इस कमरे में विशाल डबलबेड, आलमारी, सोफासेट, ड्रेसिंग टेबल, आराम कुर्सी, गीजर, वॉशबेसिन और सब कुछ। जबकि बाहर होटल में इससे तीन गुना अधिक किराया था और कमरे व सुविधाएँ इसकी आधी भी नहीं थी। हम तीस घंटे की लम्बी रेलयात्रा की थकान उतारने यहाँ पसर गए थे। तीन घंटे बाद फिर रात आठ बजे तैयार होकर स्टेशन के कमरे से बाहर आ गए थे। स्टेशन के बाहर भी कहीं ढंग का नाश्ता नहीं दिखा। एक गुमठी वाले से पूछा “आपके पास क्या है।”

“फाफड़ा और गांठिया।” जवाब आया- “चालीस रुपये प्लेट’। उसने एक डिब्बे का ढक्कन खोला उसमें से बेसन का लोंदा निकाला और उसे बेल काटकर गरम तेल में डालने लगा। थोड़ी देर में गरमागरम फाफड़ा जिसे लम्बी हरी मिर्च और हरी चटनी-भुज्जी के साथ उसने पार्सल बना दिया। हम उसे लेकर ऑटो में बैठ गए।

सवेरे- सवेरे कप बसी में चाय पीने का चलन आज भी गुजरात में उसके घरों, होटलों, गुमठियों में है। हमारी छत्तीसगढ़ी भाषा में प्लेट को ‘बसी’ कहते हैं। लेकिन यहाँ बसी यानी प्लेट को रकाबी कहते हैं। गुमठियों में सीधे प्लेट में भी चाय पिलाने का चलन है। ग्राहक ने प्लेट उठाई और चाय वाले ने केतली से उसमें चाय डाल दी और ग्राहक ने सुड़क- सुड़क कर पी ली।

ऑटो वाला भी हमारी तरह बुजुर्ग दिखा। पूछने पर अपना नाम बताया- “मालदेव गढ़वी।” फिर कहा कि “हमारे गढ़वी लोग गाना बजाना करते हैं भैया, अच्छे लोक-गायक होते हैं।” उसने कहा - “चलिए।।। हम आपको बढ़िया गुजराती थाली खिलाएँगे। पर उसके पहले सुदामा मंदिर देख लीजिए।’’

सुदामा मंदिर पोरबंदर के हलचल भरे बाजार क्षेत्र के बीच में है। कथानुसार राजा कृष्ण ने मित्र की सहायता की। उसके बाद सुदामा द्वारका के पास पोरबन्दर में बस गए होंगे या उनकी भी जन्मस्थली यहीं रही होगी; इसलिए इसे सुदामापुरी भी कहा जाता है। हमें प्रसाद रूप में उनका तांदुल (चूड़ा) प्राप्त हुआ; क्योंकि सुदामा ने अपनी गरीबी में कृष्ण को चूड़ा ही खिलाया था। यह संयोग है कि हम कृष्ण, सुदामा और गांधी जैसे सत्य और धर्मनिष्ठ महानायकों की धरती पर खड़े थे और यहाँ सुदामा- मोहन और मोहनदास की स्मृतियों के साथ चल रहे थे।

अहिन्दी भाषी अन्य राज्यों की तरह गुजरात भी कृष्ण भक्त है। वैष्णव जन तो तेने कहिए भजन के रचयिता पंद्रहवीं शती के संत कवि नरसी मेहता के जिन भजनों को गांधी जी गाया करते थे, वे गुजराती भाषा के आदि कवि कृष्ण भक्त थे। यहाँ कवियों-लेखकों ने अपने राजा कृष्ण द्वारका नरेश के प्रति अधिक आसक्त होकर लेखन किया है। गायकों नर्तकों ने रास डांडिया में इतनी धूम मचाई है कि पंजाब के भांगड़ा की तरह इस समूह- नृत्य को भी देश भर में ख्याति मिल गई है।

जब हम एक दिन सान्दिपनी विद्या-निकेतन जाने के लिए सुदामा चौक आए, तो गांधी के सत्य मार्ग पर तो एक ऑटो वाला दिखा, बोला "साहब वहाँ जाने के लिए आप मुझे दो सौ रुपये क्यों देते हैं उससे अच्छा है सिटी बस से निकल जाइए आप दोनों फकत बीस रुपये में" और हम चले गए थे, सुदामा बस अड्डे से दस किलोमीटर दूर पोरबन्दर एयरपोर्ट के पास सान्दिपनी विद्या निकेतन। यहाँ एक विशाल मंदिर है और सौ एकड़ में निर्मित एक शैक्षणिक संस्थान है जो आज की धार्मिक-राजनैतिक आकांक्षा में गुरुकुल शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। यहाँ संस्कृत विद्यालय में केवल ब्राह्मण छात्रों का प्रवेश है। हमने उन्हें स्कूल के मैदान में धोती-कुरता पहने क्रिकेट और वॉलीबाल खेलते देखा। हमने एक धोतीधारी छात्र से पूछा- “संस्कृत स्कूल से पढने के बाद आप कहाँ जाएँगे?” तो उसने उत्तर दिया - “आर्मी में जाएँगे वहाँ ‘धर्मगुरु’ का पद है,  जिसमें नियुक्त हो जाएँगे।”

सान्दीपनी विद्या निकेतन के बगीचे में धातु निर्मित चार मूर्तियाँ जो देखने में एक समान दिखती हैं इनमें दो मूर्तियाँ सुदामा और उनकी पत्नी सुशीला की हैं और शेष दो मूर्ति गांधी और कस्तूरबा की हैं; लेकिन अब राजनीतिक भक्ति-भाव में सार्वजनिक स्थलों पर यहाँ  गांधी की जगह सुदामा की मूर्ति लगाने का चलन बढ़ सकता है। हो सकता है राजकीय पत्र में पोरबन्दर का नाम सुदामापुरी हो जाए। 

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ) 491001

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