- प्रमोद भार्गव
होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है,जो सामुदायिक बहुलता की समरसता से जुड़ा है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन से उमड़ता है, वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। फलस्वरूप किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर पर गुलाल मल सकता है और आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धनकुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है। यही एक ऐसा पर्व है,जब दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उड़ेलने का अधिकार अनायास पा लेता है और अधिकारी भी अपने कार्यालय के सबसे छोटे कर्मचारी को गुलाल लगाते हुए, आत्मीय भाव से गले लगा लेता है। वाकई रंग छिड़कने का यह होली पर्व उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है, जो मानव समुदायों के बीच असमानता बढ़ाती हैं। गोया, इस त्यौहार की उपादेयता को और व्यापक बनाने की जरूरत है।
होली का पर्व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलन में मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। अलबत्ता उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी, जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। चूँकि होली को बुराई पर अच्छाई के पर्व के रूप में माना जाता है, इसलिए जब वह अपने भतीजे प्रहलाद को विकृत व कू्रर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई, किंतु प्रहलाद बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ; क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी।
इसी कथा से मिलती-जुलती चीन में एक कथा प्रचलित है, जो होली पर्व मनाने का कारण बनी है। चीन में भी इस दिन पानी में रंग घोलकर लोगों को बहुरंगों से भिगोया जाता है। चीनी कथा भारतीय कथा से भिन्न जरुर है, लेकिन आखिर में वह भी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। चीन में होली का नाम है, ‘फोश्वेई च्ये’ अर्थात् रंग और पानी से सराबोर होने का पर्व। यह त्योहार चीन के युतांन जाति की अल्पसंख्यक 'ताएं’ नामक जाति का मुख्य त्योहार माना जाता है। इसे वे नए वर्ष की शुरुआत के रुप में भी मनाते हैं।
इस पर्व से जुड़ी कहानी है कि प्राचीन समय में एक दुर्दांत अग्नि-राक्षस ने 'चिंग हुग’ नाम के गांव की उपजाऊ कृषि भूमि पर कब्जा कर लिया। राक्षस विलासी और भोगी प्रवृत्ति का था। उसकी छह सुंदर पत्नियाँ थीं। इसके बाद भी उसने चिंग हुग गाव की ही एक खूबसूरत युवती का अपहरण करके उसे सातवीं पत्नी बना लिया। यह लड़की सुंदर होने के साथ वाक्पटु और बुद्धिमती थी। उसने अपने रूप-जाल के मोहपाश में राक्षस को ऐसा बाँधा कि उससे उसी की मृत्यु का रहस्य जान लिया।राज यह था कि यदि राक्षस की गर्दन से उसके लंबे-लंबे बाल लपेट दिए जाएँ, तो वह मृत्यु का प्राप्त हो जाएगा। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर युवती ने ऐसा ही किया। राक्षस की गर्दन उसी के बालों से सोते में बाँध दी। इन्हीं बालों से उसकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी; लेकिन वह अग्नि-राक्षस था, इसलिए गर्दन कटते ही उसके सिर में आग प्रज्वलित हो उठी और सिर धरती पर लुढ़कने लगा। यह सिर लुढ़कता हुआ जहाँ-जहाँ से गुजरता वहाँ-वहाँ आग प्रज्वलित हो उठती। इस समय साहसी और बुद्धिमान लड़की ने हिम्मत से काम लिया और ग्रामीणों की मदद लेकर पानी से आग बुझाने में जुट गई। आखिरकार बार-बार प्रज्वलित हो जाने वाली अग्नि का क्षरण हुआ और धरती पर लगने वाली आग भी बुझ गई। इस राक्षसी आतंक के अंत की खुशी में ताएँ जाति के लोग आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे थे, उसे एक-दूसरे पर उड़ेलकर झूमने लगे। और फिर हर साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।
ऐतिहासिक व पौराणिक साक्ष्यों से पता चलता है कि होली की इस गाथा के उत्सर्जन के स्रोत पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं। यानी अविभाजित भारत से। अभी भी यहाँ भक्त प्रहलाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंबा भी मौजूद है, जिससे प्रहलाद को बाँधा गया था। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिंदू धर्म से जुड़े मंदिरों को नेस्तनाबूद करने का जो सिलसिला चला, उसके थपेड़ों से यह मंदिर भी लगभग नष्टप्रायः हो गया है, लेकिन चंद अवशेष अब भी मुलतान में मौजूद हैं। यहाँ भी अल्पसंख्यक हिंदू होली के उत्सव को मनाते हैं। वसंत पंचमी भी यहाँ वासंती वस्त्रों में सुसज्जित महिलाएँ मनाती हैं और हिंदू पुरुष पतंग उड़ाकर अपनी खुशी प्रगट करते हैं। जाहिर है, यह पर्व पाकिस्तान जैसे अतिवादियों के देश में सांप्रदायिक सद्भाव के वातावरण का निर्माण करता है। गोया, होली व्यक्ति की मनोवृत्ति को लचीली बनाने का काम करती है।
वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है; क्योंकि यह वह समय होता है, जब खेतों से पका अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूँ की बालियाँ तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बाँटे जाते हैं। होली में भी बालियाँ होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न के परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमण है। इसलिए वेदों में इसे 'नवान्नेष्टि यज्ञ' कहा गया है। मसलन अनाज के नए आस्वाद का आगमन। यह नवोन्मेष खेती-किसानी की संपन्नता का द्योतक है,जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। गोया यह उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है, जो धरती और अन्न के सनातन मूल्यों को एकमेव करता है।
होली का सांस्कृतिक महत्व ‘मधु’ अर्थात 'मदन' से भी जुड़ा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋृतु का प्रेमाख्यान माना गया है। वसंत यानी शीत और ग्रीष्म ऋृतुओं की संधि-वेला। अर्थात एक ॠतु का प्रस्थान और दूसरी ऋतु का आगमन। यह वेला एक ऐसे प्राकृतिक परिवेश को रचती है, जो मधुमय होता है, रसमय होता है। मधु का ॠगवेद में खूब उल्लेख है; क्योंकि इसका अर्थ है, संचय से जुटाई गई मिठास। मधु-मक्खियाँ अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन का मधु संचय का यही संघर्ष जीवन को मधुमयी बनाने का काम करता है।होली को ‘मदनोत्सव’ भी कहा गया है। क्योंकि इस रात चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। इसी शीतल आलोक में भारतीय स्त्रियाँ अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। लिंग-पुरण में होली को ‘फाल्गुनिका’ की संज्ञा देकर इसे बाल-क्रीड़ा से जोड़ा गया है। मनु का जन्म फाल्गुनी को हुआ था; इसलिए इसे ‘मन्वादि तिथि’ भी कहते हैं। भविष्य-पुराण में भूपतियों से आह्वान किया गया है कि वे इस दिन अपनी प्रजा को भय-मुक्त रहने की घोषणा करें; क्योंकि यह ऐसा अनूठा दिन है, जिस दिन लोग अपनी पूरे एक साल की कठिनाइयों को प्रतीकात्मक रूप से होली में फूंक देते हैं। इन कष्टों को भस्मीभूत करके उन्हें जो शांति मिलती है, उस शांति को पूरे साल अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ही भविष्य-पुराण में राजाओं से प्रजा को अभयदान देने की बात कही गई है। भारतीय कुटुंब की भावना इस दर्शन में अंतर्निहित है। अर्थात होली के सांस्कृतिक महत्त्व का दर्शन नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एकरूपता गढ़ने का काम करता है। तय है, होली के पर्व की विलक्षण्ता में कृषि, समाज, अर्थ और सद्भाव के आयाम एकरूप हैं। इसलिए यही एक ऐसा अद्वितीय पर्व है, जो सृजन के बहुआयामों से जुड़ा होने के साथ-साथ सामुदायिक बहुलता के आयाम से भी जुड़ा है।
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