उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Feb 1, 2025

आलेखः छत्तीसगढ़ को कब मिलेगी नक्सलवाद से मुक्ति

   - प्रमोद भार्गव

 छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर अंबेली गाँव के पास नक्सलियों द्वारा बिछाए गए अति तीव्र विस्फोटक की चपेट में आकर एक आरक्षित गार्ड समेत आठ जवान शहीद हो गए। विस्फोटक इतना तीव्र था कि जवानों के वाहन स्कार्पियों के परखच्चे उड़ गए। नक्सलियों की यह चुनौती उस समय मिली है, जब नक्सलियों के संगठनों के खत्म होने की उम्मीद की जा रही है; लेकिन इस चुनौती ने साफ कर दिया है कि नक्सलियों का वैसा दमन अब तक नहीं हो सका है, जैसी उम्मीद की जा रही है। हालाँकि केंद्र सरकार ने 2026 तक नक्सलवाद का पूर्ण सफाया करने का संकल्प लिया हुआ है। नक्सलियों का अस्तित्व अब तक बना है तो इसलिए;; क्योंकि कुछ देश- विरोधी ताकतें उन्हें धन, विस्फोटक और उत्तम गुणवत्ता की संचार प्रणाली उपलब्ध करा रहे हैं। यह वाकई चिंता का विषय है कि नक्सली अपने विरुद्ध चल रहे सुरक्षााबलों के अभियानों को निशाना बनाने में बार-बार क्षति पहुँचाने में सफल हो जाते है। अतएव लगता है कि सजातीय वनवासियों और ग्रामीणों पर उनकी पकड़ अभी भी बनी हुई है। वही सुरक्षाबलों की मुखबिरी करके सटीक जानकारी पहुँचाते हैं। 

     नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। वामपंथी उग्रवाद कभी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा माना जाता रहा है; लेकिन चाहे जहाँ  रक्तपात की नदियाँ  बहाने वाले इस उग्रवाद पर लगभग नियंत्रण किया जा चुका है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार की कोशिश है कि सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी जाए, जहाँ  नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में 4000 से अधिक सैन्य बल तैनात करने जा रहा है। केंद्र सरकार की कोशिश  है कि 31 मार्च 2026 तक इस क्षेत्र को पूरी तरह नक्सलवाद से मुक्त कर दिया जाए। इतनी बड़ी संख्या में सैन्य बलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुँच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। मजबूत और कठोर कार्य योजना को अमल में लाने का ही नतीजा है कि इस साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 153 नक्सली मारे जा चुके हैं। शाह का कहना है कि 2004-14 की तुलना में 2014-24 के दौरान देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई है। 2004-14 में नक्सली हिंसा की 16,274 वारदातें दर्ज की गई थीं, जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 10 सालों में इन घटनाओं की संख्या घटकर 7,696 रह गई। इसी अनुपात में देश में माओवादी हिंसा के कारण होने वाली मौतों की संख्या 2004-14 में 6,568 थीं, जो पिछले दस साल में घटकर 1990 रह गई है और अब सरकार ने जो नया संकल्प लिया है, उससे तय है कि जल्द ही इस समस्या को निर्मूल कर दिया जाएगा। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है।    

इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियाँ  इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएँ मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निशाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं और इनका कार्यक्षेत्र वह आदिवासी बहुल इलाका हैं, जिससे ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए  इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना मुश्किल होता है। लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएँ  आसानी से हासिल कर लेते हैं। दुर्गम जंगली क्षेत्रों के मार्गों, छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से भी ये खूब परिचित हैं। इसलिए ये और इनकी शक्ति लंबे समय से यहीं के खाद-पानी से पोषित होती रही है। हालांकि अब इनके हमलों में कमी आई है। दरअसल इन वनवासियों में अर्बन माओवादी नक्सलियों ने यह भ्रम फैला दिया था कि सरकार उनके जंगल, जमीन और जल-स्रोत उद्योगपतियों को सौंपकर उन्हें बेदखल करने में लगी है, इसलिए यह सिलसिला जब तक थमता नहीं है, विरोध की मुहिम जारी रहनी चाहिए। सरकारें इस समस्या के निदान के लिए बातचीत के लिए भी आगे आईं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन्हें बंदूक के जरिए भी काबू में लेने की कोशिशें हुई हैं। लेकिन नतीजे अनुकूल नहीं रहे। एक उपाय यह भी हुआ है कि जो नक्सली आदिवासी समर्पण कर मुख्यधारा में आ गए उन्हें बंदूकें देकर नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति भी अपनाई गई। इस उपाय में खून- खराबा तो बहुत हुआ, लेकिन समस्या बनी रही। गोया, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने से लेकर विकास योजनाएँ  भी इस क्षेत्र को नक्सल मुक्त करने में अब तक सफल नहीं हो पाई हैं।  

बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला रहा है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा है, जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार के पास मोदी सरकार से पहले रणनीति और दृढ़ इच्छा शक्ति की हमेशा कमी रही थी। तथाकथित शहरी माओवादी बौद्धिकों के दबाव में भी मनमोहन सिंह सरकार रही। इस कारण भी इस समस्या का हल दूर की कौड़ी बना रहा। यही वजह थी कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती थी तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते थे। 

नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आंकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही हैं, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश विकास की धारा से लग रहा है? क्योंकि इसी दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिले  हैं। बावजूद कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे हैं। हालांकि नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे। लेकिन कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली थी, बावजूद नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा अब फिर सत्ता में है। उसके बाद से ही नक्सलियों के सफाए का सिलसिला चल रहा है, लेकिन इसी अंबेली ग्राम के पास सुरक्षाबलों को नक्सलियों की मिली चुनौती में जान गंवानी पड़ी है। 

    व्यवस्था बदलने के बहाने 1967 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवाड़ी ग्राम से यह खूनी आंदोलन शुरू हुआ था। तब इसे नए विचार और राजनीति का वाहक कुछ साम्यवादी नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मानवाधिकारवादियों ने माना था। लेकिन अंततः माओवादी नक्सलवाद में बदला यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही पर्याय बना हुआ है। जबकि इसके मूल उद्देश्यों में नौजवानों की बेकारी, बिहार में जाति तथा भूमि के सवाल पर कमजोर व निर्बलों का उत्थान, आंध्र प्रदेश और अविभाजित मध्य-प्रदेश के आदिवासियों का कल्याण तथा राजस्थान के श्रीनाथ मंदिर में आदिवासियों के प्रवेश शामिल थे। किंतु विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया था, जो पशुपति; नेपाल से तिरुपति; आंध्र प्रदेश तक जाता है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी वाम चरमपंथ पसरा हुआ था। जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरूरी हो जाता है, कि उसे नेस्तनाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय उचित हों, उनका उपयोग किया जाए ? 

हालांकि देश में तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा है, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था, बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोलता था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की और गिरफ्तारियों को गलत ठहराया था। माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती हैं;  लेकिन अब इस चरमपंथ पर अंकुश लगाना जरूरी है।  

सम्पर्कः  शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100

No comments: