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Feb 1, 2025

अनकहीः संगम में आस्था का जनसैलाब...

- डॉ. रत्ना वर्मा 

जो नहीं होना था वह हो गया । आस्था के महाकुंभ में शुभ मुहूर्त में स्नान के चक्कर में भीड़ प्रयाग संगम में डटी रही और हादसा हो गया। प्रशासन को जानकारी थी कि लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मौनी आमावस्या के दिन डुबकी लगाएँगे। प्रयागराज में 13 जनवरी से आरंभ हुए महाकुंभ मेले के आयोजन ने इतना विराट रूप ले लिया और जनसैलाब ऐसा उमड़ा कि कई करोड़ रुपये बहाकर की गई अत्याधुनिक व्यवस्था  चरमरा गई ।  

कुंभ जैसे मेले के प्रति आस्था भारतीय संस्कृति का अंग है और धार्मिक- आध्यात्मिक स्थानों में आस्था का जनसैलाब हमेशा से ही उमड़ता रहा है। इधर कुछ बरसों से इसमें कुछ ज्यादा ही वृद्धि देखने को मिल रही है। यही कारण है कि ऐसे स्थलों पर हादसों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है। प्रशासन के अनुसार तो इस बार उनकी व्यवस्था पूरी तरह चाक- चौबंद थी, फिर भी अनहोनी हो गई। दरअसल इस कुंभ मेले के आयोजन की भव्यता से बहुत ज्यादा प्रचार- प्रसार कर लोगों को स्नान के लिए आमंत्रित किया गया, फलस्वरूप देश भर के लोगों ने कुंभ स्नान का मन बना लिया और जिसे जो साधन मिला, उसी से वह प्रयाग की ओर चल पड़ा। 

कुंभ में भगदड़ के कारण होने वाला ये कोई पहला हादसा नहीं है। 1954 में प्रयाग में ही मौनी  अमावस्या पर भगदड़ मचने से 800 लोगों की मौत हो गई थी। 1986 में हरिद्वार के कुंभ में वीआईपी के स्नान के लिए भीड़ को रोक देने के कारण भगदड़ मची और 200 लोग मारे गए थे। 2013 में प्रयाग कुंभ मेले में रेलवे स्टेशन पर बने पैदल पुल पर भगदड़ मचने से 42 लोगों की जान चली गई थी। 2003 के नासिक कुंभ में 39 लोग और 2010 के हरिद्वार में शाही स्नान के दौरान 7 लोगों की मौत हो गई थी। होना तो यह चाहिए  कि इतने हादसों से भरी घटनाओं के बाद प्रशासन कुछ सीख लेता और इससे बचने के पुख्ता इंतजाम करता। 

व्यवस्था में कमी दुर्घटना का एक कारण तो है ही; परंतु साथ ही जनसैलाब की उपेक्षा करके वीआईपी संस्कृति को महत्त्व देना भी ऐसे हादसों को आमंत्रण देता है। राजनेता से लेकर उद्योगपति और फिल्मी सितारे तक सब डुबकी लगाकर पुण्य कमाना चाहते हैं। उनकी व्यवस्था करने में प्रशासन जनसैलाब को परे ढकेल देता है ,तो ऐसे दर्दनाक हादसे हो जाते है। फिर हादसे पर कमेटी बिठाकर, मरने वालों के परिवार को एक - दो लाख मुआवजा देकर शासन प्रशासन अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। इतना ही नहीं, नेता इन हादसों पर संवेदनहीन होकर तुच्छ राजनीति करने से भी नहीं चूकते। कुंभ मेले में हुए इस हादसे के बाद विपक्ष  व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। लगता है जैसे उसे किसी हादसे या अशुभ का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। इतना ही नहीं कुंभ के इस हादसे के बाद तो अनेक प्रकार के आरोप- प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं- हादसे को सोची समझी साजिश का नाम भी दिया जा रहा है। हमारे लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या होगी कि अब जनता की लाशों पर वोट बटोरने वाली राजनीति होने लगी है। अफसोस तो तब होता है, जब कुछ दिन बाद जनता भी इन हादसों को भूल जाती है। 

इस कुंभ मेले में मीडिया की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे मेले की भव्यता, प्रशासन की तैयारियों को बढ़- चढ़कर तो दिखाते ही हैं, साथ ही मेला स्थल में यदि कोई टीआरपी बढ़ाने वाली कोई चटपटी कहानी उन्हें मिल जाती है, तो वे उन्हें इस तरह से प्रस्तुत करते हैं, मानों उन्होंने कोई नई खोज करके  कोई तीर मार लिया है। नीली आँखों वाली लड़की और आईआईटिअन एक साधु को लेकर उन्होंने इतनी टी आर पी बटोरी है कि कुंभ की आस्था और साधु संतों के ज्ञान और धर्म कहीं पीछे छूट गए। कुंभ जाने वाली जनता में भी इस लड़की और आईआईटिअन के साथ सेल्फी लेने की होड़ ही लग गई। एक वीडियो में तो इस नीली आँखों वाली लड़की को भागकर छुपते हुए दिखाया गया था। इसे आस्था कहें कि मूर्खता और लम्पटपन की पराकाष्ठा।

श्रद्धा और अन्धश्रद्धा  में अन्तर करना पड़ेगा। अपनी जान बचाने के लिए  भीड़ में गिरने वाले  लोगों को कुचलकर आगे बढ़ना कौन-सी भक्ति है ? हृदय में सेवा -भावना और  मानव करुणा नहीं है, तो इस प्रकार के स्नान से क्या लाभ? लोगों को कुचलकर भगदड़ का हिस्सा बनने से कोई पुण्य मिलने वाला नहीं।

होना तो यह चाहिए कि मीडिया, सेलेब्रिटी और जनसेवक लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में काम करते। जनता तो अंधभक्त है ही, उन्हें लगता है कि इस कुंभ में स्नान करने से उनके पाप धुल जाएँगे, मोक्ष की प्राप्ति होगी। तभी तो वह हर हाल में कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ते हैं। 

प्रशासन को चाहिए कि वह इस तरह के आयोजनों को और अधिक गंभीरता से ले और सिर्फ वाहवाही लूटने के लिए प्रचार- प्रसार न करे।  जब तक प्रशासन भीड़ प्रबंधन में आधुनिक तकनीकों को नहीं अपनाएगा और श्रद्धालु भी अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क नहीं होंगे, तब तक इस तरह की घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता। सरकार, आयोजन समिति और जनता- सभी को अपनी भूमिका निभानी होगी। अन्यथा ये घटनाएँ होती रहेंगी और लोग मरते रहेंगे। 

2 comments:

विजय जोशी said...

आदरणीया
हमेशा की तरह सामयिक एवं अंतस को झकझोरता संपादकीय। हम हिंदुस्तानियों ने विगत से कभी कुछ नहीं सीखा। बात का विश्लेषण करें :
1) प्रशासन : जो तमाम सावधानीपूर्वक की गई तैयारियों के बावजूद मौनी अमावस्या को उमड़ने वाली भीड़ का सही आकलन नहीं कर पाया, लेकिन केवल इतने भर से उनकी तैयारियों एवं सेवा भाव को नकारा नहीं जा सकता
2) सनातन प्रेमियों की पाप प्रक्षालन तथा टू मिनट मैगी की तर्ज पर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से अनुशासनहीन भीड़
3) प्रेस विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जो हर चीज को अतिरंजन के साथ प्रस्तुत कर सबका अहित कर रहा है
4) अति विशिष्ट (केवल नेता ही नहीं) जिनके कारण आम जन एवं साधु संत तक के लिए कष्ट का कारण बना
5) विपक्ष जिसनेआरम्भ से ही हर कदम पर इसे अपने राजनैतिक चश्मे से देखा एवं सनातन को नीचा दिखाने का भरपूर प्रयत्न किया, जबकि उनके कार्यकाल में इससे भी बड़े हादसे हुए। गोलियां तक चलाईं गईं।

- गर्म तवे पर बैठकर खाएँ कसम हज़ार
- दुर्जन सुधरें ना कभी लाख करो उपचार

खैर यह घटना चिंता एवं चिंतन दोनों का विषय है। सनातनियों को भी कर्मकांड से ऊपर उठकर चिंतन करना होगा, वरना विपक्षी तो सनातन तथा देश दोनों को समाप्त करने पर तूला बैठा है खासतौर पर वंशवादी वे जिन्हें देश से ऊपर कुर्सी दिखती है.

आप पूरे साहस के साथ हर सामयिक एवं चुनौतीपूर्ण विषय प्रस्तुत करती रही हैं हर बार. सो हार्दिक बधाई सहित सादर

Anonymous said...

रत्ना जी
बहुत ही समयानुकूल विषय पर आप का संपादकीय सराहनीय है
पत्रिका में रोचक लघुकथाएँ पढ़ने को मिली
अंक पठनीय है
साधुवाद के साथ
देवी नागरानी