ठोकरों की राह पर
और चलने दो मुझे
पाँव छिलने दो ज़रा
दर्द मिलने दो मुझे
फ़र्क क्या पड़ता है चोट,
लगी फूल या शूल से
रो पड़ी है या नदी
लिपट अपने कूल से
घाव सारे भूलकर
नई चाह बुनने दो मुझे
पाँव छिलने दो ज़रा
दर्द मिलने दो मुझे...
खटखटाता द्वार विगत के
क्यों रहे मन हर समय
घट गया जो, घटा गया है
कालसंचित कुछ अनय
पाट नूतन खोलकर
नई राह चुनने दो मुझे
पाँव छिलने दो ज़रा
दर्द मिलने दो मुझे..
कौन जाने क्या छिपा है
आगतों की ओट में?
निर्माण की अट्टालिका
फिर धूसरित विस्फोट में
अवसाद सारे घोलकर
नई आह सुनने दो मुझे
पाँव छिलने दो ज़रा
दर्द मिलने दो मुझे..
1 comment:
सुंदर कविता। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
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