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Jan 1, 2024

कहानीः माँ री!

 - कुलबीर बड़ेसरों  (पंजाबी से अनुवाद - सुभाष नीरव)
माँ री, तुम्हें इतना उदास देखकर मैं भी उदास हो जाती हूँ। तुम्हारा चेहरा उदास, उजाड़-बियाबान जंगल-सा लगता है जिसके सारे रंग उतर गए हों, मटमैला-सा, फेडिड-सा मानो एक ही पौंछा फिरा हो पूरे मुखड़े पर, होंठों पर... और आँखें... आँखें तो मानो कहीं गहरे उतर गई हों, घनघोर परछाइयों में जहाँ कभी कोई सपना नहीं उगता, कोई उम्मीद नहीं बँधती, कोई तारा नहीं जगमगाता। कभी-कभी तुम सोच के गहरे समंदर में उतर जाती हो। तुम्हारे आस पास क्या हो रहा है, तुम्हें पता ही नहीं लगता। आवाज़ भी लगाओ तो तुम्हें सुनाई नहीं देती, पता नहीं तुम क्या सोच रही होती हो! काश, मैं जान सकती कि उस समय तुम क्या सोच रही होती हो? आख़िर क्या?  क्या तुम रुपये-पैसों के बारे में सोच रही होती हो?  यही न कि यदि तुम इस महीने और आने वाले कुछ और महीने अपने वेतन में से थोड़े-थोड़े पैसे और बचा लो तो उन्हें जोड़कर तुम घर की कोई अन्य आवश्यक चीज़ ले सकती हो। ऐसा ही करती रही हो तुम। पैसे जोड़-जोड कर पहले गैस-चूल्हा लिया, फिर सिलेंडर लिया, फिर घर के हरे रंग वाले लोहे के स्टोव और मिट्टी के तेल की कैनी से पीछा छूटा, मिट्टी के तेल-डिपो से छुटकारा मिला। फिर पैसे इकट्ठे करके तुमने गर्मियों में कूलर लिया, क्योंकि गर्मियों में मेरी पीठ पर होने वाली घमौरियों से तुम सदा ही परेशान हो जाती थीं। फिर तुमने किस्तों पर फ्रिज लिया था जिसमें से बर्फ़ के टुकड़े निकालकर हम शरबत में डालते थे और घंटों तक मैं बर्फ़ के टुकड़ों के साथ खेलती थी, खुश होती थी और मुझे खुश देखकर तुम भी खुश हो जाती थीं। तुम्हारे चेहरे पर एक तसल्ली का अजीब-सा भाव आता था और यह भाव मैं तभी देखती थी, जब तुम कभी मुझे खुश देखतीं...।
तुम मुझे बहुत प्यार करती हो न माँ! सच बताऊँ तुम्हें, मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ... तुम समझती हो, मैं तो बच्ची हूँ। नहीं माँ, मैं बच्ची नहीं हूँ, मुझे सब पता है, सब... बस, जब तुम गहरी सोच में पड़ जाती हो, तब मुझे पता नहीं लगता कि तुम उस समय क्या सोच रही होती हो?  क्या अपने बारे में, मेरे बारे में, दुनिया के बारे में या अपने अकेलेपन के बारे में?... तुम कितनी अकेली हो माँ, मैं समझती हूँ। तुम कितनी जवान हो... कितनी सुंदर हो... पढ़ी-लिखी हो... नौकरी करती हो, पर तुम्हारी किस्मत ने तुम्हें बहुत धोखा दिया। तुम एक ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखा रही थीं, शायद मेरी कुंडली बनवाने गई थीं। पता नहीं, उसे कैसे पता लग गया, वह बोला, "तुम्हारे भाग्य में पति का सुख नहीं है... तुम मंगली हो।"  तुमने तब घबराकर मेरी तरफ देखा था और उतावली में पूछा था, "मेरी बेटी की कुंडली बनाओ पंडित जी, देखना ये मंगली न हो।" बताओ भला, यह पंडित के हाथ में कहाँ है कि मुझे मंगली बनाना है या नहीं।... वापसी पर मैं घर तक सोचती आई। बल्कि रात में भी मुझे ठीक से नींद नहीं आई।
मेरी माँ के भाग्य में पति का सुख क्यों नहीं है? क्यों नहीं... जब बाकी सब स्त्रियों के भाग्य में पति का सुख है तो मेरी माँ के भाग्य में क्यों नहीं है?  क्यों नहीं? वह खुद ही क्यों पैसों के हिसाब-किताब में पड़ी रहती है, हमेशा उंगलियों की पोरों पर कुछ गिनती रहती है, उसके होंठ सदैव गिनती के साथ फड़कते रहते हैं। क्यों वह हमेशा रिक्शा के पैसे बचाती रहती है?  क्यों हमेशा सब्ज़ी वाले से मोलभाव करती रहती है?  सब्ज़ी ही क्यों, वह हर चीज़ का भाव सुनकर परेशान क्यों होती रहती है?
माँ तुम्हारी यह परेशानी देख-देख कर मुझे सब कुछ अच्छा लगना बंद हो जाता है। न मुझे आइसक्रीम अच्छी लगती है, न बर्गर, न पीजा और न ही बार्बी डोल...।
पर, एक चीज़ मुझे हमेशा आकर्षित करती है और वह है, मेरे संग पढ़ती लड़कियों के पिता... मुझे बहुत अच्छा लगता है जब लड़कियाँ अपने पिता के साथ स्कूटर के पीछे बैठकर स्कूल आती हैं, या पिता के साथ कार में। कितनी निश्चिंत लगती हैं वे लड़कियाँ जो अपने अपने पिताओं के साथ स्कूल आती हैं। लगता है, उन्हें कोई फिक्र नहीं, कोई परेशानी नहीं, मानो दुनिया की कोई भी प्रॉब्लम उनके चेहरे की निश्चिंतता को डिगा नहीं सकती। एक अजीब किस्म का अहंकार-सा, या कह लो अभिमान-सा छलकता है इन लड़कियों के चेहरों पर... स्कूटर या कार से उतरतीं वे ठीक तरह मुड़कर अपने पिता की ओर देखती भी नहीं। बस, आधा-अधूरा सा देखकर 'बाय' कहकर तेज़ी के साथ स्कूल के गेट से अंदर की तरफ दौड़ जाती हैं।... मैं होती तो जी भरकर अपने पिता को देखती, खड़े होकर ठीक तरह से उसको 'बाय' कहती। सच, यदि मेरा पिता होता... मैं क्या कहकर बुलाती उसको? 'पापा' या 'डैडी' या सिर्फ़ 'डैड' या 'पिताजी'। नहीं-नहीं, पिताजी नहीं, यह तो पुराना फैशन है... अब कौन बुलाता है पिताजी?  यदि मैं 'पिताजी' बुलाती तो मेरी सब सहेलियाँ मुझ पर हँसतीं, मुझे 'ओल्ड फैशन्ड'  कहतीं... मैं तो 'पापा' कहकर बुलाती, सिर्फ़ 'पापा'। कभी-कभी लाड़ में 'पापा जी' कहती या केवल 'पा'... मैं मन ही मन हँस पड़ती हूँ। फिर मेरे पापा भी मुझे स्कूल छोड़ने आते। कम से कम 'ओपन डे' वाले दिन तो आते ही, मेरी परसेंटेज चैक करते... मेरी स्कूल की प्रॉब्लम्ज़ सुनते... फिर मेरी टीचर के साथ मेरी पढ़ाई और प्रॉब्लम्ज़ डिस्कस करते। मेरे अंदर एक अलग ही तरह का आत्मविश्वास होता - सेल्फ कॉन्फीडेंस! अब जैसे तुम बुझी-बुझी रहती हो, झट छोटी-सी बात पर ही रो पड़ती हो, उदास हो जाती हो, हर किसी से डर जाती हो, सब सवालों से बचती घूमती हो, सुंदर-सा फैशनेबल सूट पहनने से भी झिझकती रहती हो... ये सब न होता। जब कोई हसबेंड-वाइफ़ स्कूटर या मोटर साइकिल पर चिपक कर बैठे जा रहा होता, तो तुम उन्हें मुड़ मुड़कर न देखतीं, बल्कि तुम भी गाढ़े रंग की लिपिस्टिक लगाकर अपने पति के जिस्म को अपनी एक बांह से घेर कर स्कूटर पर चिपककर बैठतीं - निश्चिंत, निडर, खुश... फिर जब मैं पापा के साथ बैठती तो मैं भी पापा से चिपट कर स्कूटर पर बैठती, पापा को कसकर पकड़ लेती तो फिर कोई डर न रहता।
मैं तो अपने पापा से कभी मिली भी नहीं हूँ। कैसे लगते थे मेरे पापा?  मुझे तो कुछ पता ही नहीं। बस, इतना पता है, जब मैं तुम्हारे पेट में थी, तुम अपनी और मेरी जान बचाकर अपनी ससुराल से भाग आई थीं।
तुम्हारा पति और ससुराल वाले तुम्हें बहुत तंग करते थे। तुम्हारा दब्बू स्वभाव था, वे इसका और भी फायदा उठाकर तुम्हे कौंचते थे, तुम्हें अपमानित करते थे और कहते थे, "तू हमारा कुछ संवार...।" माँ री, जब तुम रो-रोकर ये बातें अपनी सहेलियों को बताती थीं, और जब मेरी इंग्लैंड वाली मौसी आई थी, तुम उसको भी बताती थीं। बताती कम थीं, रोती अधिक थीं। मुझे सब पता लग गया था माँ... तुम समझती थीं, मैं छोटी हूँ, मुझे कुछ पता नहीं लगेगा, पर मैं सब सुनती थी बड़े ध्यान से... मुझे सब पता लग गया था कि मेरे ददिहाल वाले बहुत लालची थे, बेकद्रे थे और मेरे पापा ने तुम्हारा साथ तो क्या देना था, तुम्हें तलाक ही दे दिया था।
और तुमने कचहरियों के चक्करों से डरकर उन कागज़ों पर दस्तख़त कर दिए थे जो पापा ने भेजे थे... असल में, तुम बहुत डरपोक हो माँ, बहुत दब्बू... तुम निडर होतीं तो यह सब न होता... अब भी कौन-सा निडरता के साथ जीती हो तुम?  हर समय भयभीत-सी रहती हो। मौसी-मौसा और उनके बच्चे आते हैं तो तुम्हारी जीभ तालू से लगी रहती है। बातें करते समय तुम्हारी जुबान काँपने लगती है, भाग-भागकर तुम काम करती हो, दबी-दबी तुम हर समय मुझे समझाइशें देती रहती हो - कैसे उठना है, कैसे बैठना है, कैसे बात करनी है, कैसे सब कुछ ठीकठाक गुज़र जाना चाहिए, यानी मौसी के बच्चों का यह टूअर...। मौसी के बच्चे कितने बदतमीज़ हैं, कितने मुँहफट हैं। कोई दाल-सब्ज़ी उन्हें पसंद नहीं आती। ऐसा लगता है जैसे इंडिया में पड़ती गरमी की भी माँ तुम ही जिम्मेदार हो... तुम कैसे गिल्टी फील करती हो। तुम्हें और मुझे कुछेक कपड़े और सस्ते-से स्लीपर गिफ्ट में देकर वे लोग हम पर खूब रौब झाड़ते हैं। वही क्यों?...सब रिश्तेदार हमें तुच्छ समझते हैं, क्योंकि हम दुत्कारे हुए, नकारे हुए लोग हैं न!  कोई रिश्तेदार हमारी बात नहीं पूछता। मेरे तीन मामा और तीन मौसियाँ कैनेडा और एक मौसी, एक मामा इंग्लैंड में सैटिल हैं। कोई नहीं सोचता कि उनकी एक बहन इंडिया में अकेली रोज़ी-रोटी कमाकर अपनी बच्ची को खुद पाल रही है। कोई नहीं पूछता कि तुम्हें क्या चाहिए? तुम कैसे हो? गुज़ारा ठीक से हो भी रहा है कि नहीं? वैसे, पूछने की ज़रूरत भी क्या है? क्या दिखाई नहीं देता? यह तो खुद ही सोचने-समझने वाली बात है न! फिर, कितने अवसर होते हैं जब मदद की जा सकती है। जैसे दिन-त्योहार, दीवाली, लोहड़ी, रक्षा-बंधन और जन्मदिन। मगर फोन पर बातें करने के सिवाय कोई कुछ नहीं करता। या फिर इधर-उधर के फालतू काम बताते रहेंगे। इंडिया का यह काम है, वह काम है। माँ री, तुम कैसे दौड़-दौड़ कर उनके काम करती घूमती हो।... कभी इनके लिए इंडिया से रिश्ते खोजती थीं, कभी उनके लड़कों के विवाह करती फिरती थीं, जान तोड़कर काम करती हुई तुम बिछ-बिछ जाती थीं... तुम ऐसी क्यों हो माँ? तुम सबका सोचती हो, तुम्हारे बारे में कौन सोचता है माँ?  तुम्हें तो एक पैसे की भी मदद नहीं किसी भी तरफ से...।
मैं कई बार सोचती हूँ, जब मैं बड़ी हो जाऊँगी... यदि मैं कुछ बन गई, 'कुछ' से मतलब यदि मैं कोई सेलिब्रेटी बन गई या आम साधारण एक एम.बी.बी.एस. डॉक्टर या एक अफ़सर ही बन गई, या फिर मान लो एक टीचर ही बन गई तो क्या करूँगी?... किसका नाम लूँगी कि मेरा कॅरियर, मेरी पढ़ाई, मुझे पालने-पोसने में किसका हाथ है? तुम्हारा नाम लेने के सिवा मेरे पास कोई दूसरा नाम नहीं होगा माँ! किसी का भी नहीं... तुम्हारे सिवाय कौन पूछता है मुझे कि 'बता बच्ची, क्या चाहिए तुझे?' या 'क्या बनना चाहती हो?' किसी की मदद तो क्या, हल्लाशेरी भी नहीं है... बस, सभी रिश्तेदारों को अपनी शेखियाँ बघारने से ही फुरसत नहीं... मेरा छोटा मौसा तो तुम्हें प्रवचन ही सुनाता रहता है फोन पर। इंडिया आता है तो डेरे वाले बाबा को एक लाख का चढ़ावा चढ़ाकर जाता है। तुम्हारी एक सहेली है ऊषा, बड़ी मुँहफट और समझदार है, सुनते ही वह बोली थी, "इससे तो अच्छा था] वह तेरी बेटी के नाम पर एफ.डी. ही करवा जाता तो ज्यादा पुण्य लगता।"
यह वही मौसा है जिसकी खोज तुमने छोटी बहन के लिए की थी। जिसे शगुनों के साथ कैनेडा भेजा था। जहाँ जाकर वह इस योग्य बन सका कि इधर के डेरो पर लाखों का चढ़ावा चढ़ा सके।... वही मौसा अब पंजाब से वापस कैनेडा पहुँचता है तो तुम्हारी बहन को उलाहने देता है कि तेरी बहन ने मुझे ज्यादा फोन नहीं किए।
मौसा ही क्यों?  तुमने तो दो भाभियों और बड़ी बहन के लड़के के लिए बहुएँ भी इंडिया से खोजकर कैनेडा पहुँचाईं... तुम्हारी क्या कद्र हुई माँ? तुम्हारी तो आधी ज़िन्दगी उंगलियों पर हिसाब-किताब लगाते ही बीत गई।
सभी रिश्तेदार हमें अपने बारे में शेखियाँ बघार कर बताते हैं। कोई कहता है – 'मैंने चार बेडरूम वाला घर लिया है जिसमें एक लिविंग रूम और एक ड्राइंगरूम है और दो बेसमेंट हैं।' दूसरा भी बताता है, 'मैंने पुराना घर बेचकर एक बड़ा नया घर ले लिया है।' इसी तरह तीसरा और चौथा भी, यानी हर रिश्तेदार ने बड़े-बड़े घर ले लिए हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ ले ली हैं। उनकी विदेशों से आई चिट्ठियाँ पढ़-पढ़कर मैंने जब से होश संभाला है, देखती आई हूँ कि तुम्हारे चेहरे पर अजीब-सी स्याही फिर जाती थी। तुम उदास-सी अपने किराये के मकान की ओर देखती थीं। सर्दियों की सर्द सुबहों और ठिठुरती शामों को तुम्हें किराये वाले मकान के गुसलखाने में काँपते-ठिठुरते कपड़े धोती देखती थी। "माँ, तेरे हाथ थन्दे हो गए…"  मैं तुतलाती जु़बान में तेरे हाथ अपने छोटे-छोटे हाथों में पकड़कर कहती थी। जवाब में तुम कहती थीं, "कोई बात नहीं बेटा, अगले साल तक मैं वॉशिंग मशीन ले लूँगी।" और फिर तुम होंठों ही होंठों में कुछ गिनती करती थीं... तुम्हारे लरजते होंठ... शायद फिर उसी हिसाब-किताब में...।
स्कूल से छुट्टी के बाद स्कूल की बस सीधा मुझे क्रेश में छोड़ देती, शाम तक मैं वहीं रहती। ऊबी-ऊबी, परेशान-सी। कभी मैं सो जाती, कभी उठकर बाहर बॉल्कनी की मुंडेर के पास खड़ी हो जाती, तेरा इंतज़ार करती। तुम हाँफती हुई एक हाथ में पर्स और दूसरे हाथ में छोटा-मोटा सामान और सब्ज़ी वाला थैला उठाए तेज़ कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ती मुझे दिखाई देतीं तो मैं दौड़कर तेरे पास पहुँच जाती। तुम मेरा स्कूल बैग और क्रेश का बैग संभालती हुई मुझे लेकर बाहर सड़क पर हाँफती हुई चलती रहतीं। मैं तुम्हारे साथ-साथ तुम्हें देखते हुए चलती रहती। 
छुट्टी के दिन मेरा बहुत मन करता कि मैं तुम्हारे और अपने पापा के साथ कहीं घूमने जाऊँ जैसे पॉर्क में, सिनेमा देखने, सर्कस देखने या किसी पार्टी में, पर ऐसा कैसे हो सकता था? तुम तो अकेली थीं, तुम सदैव छुट्टी वाले दिन घर के काम निपटाकर मुझे पढ़ाने बैठ जाती थीं। पर कभी-कभी मैं देखती थी, शाम को तुम भी उदास-सी हो जाती थीं। खिड़की में खड़ी होकर तुम यूँ ही सड़क की ओर देखती रहती थीं, शायद तुम्हारा मन भी करता होगा, घूमने-फिरने को, शॉपिंग करने को, किसी का हाथ पकड़कर सैर करने को, किसी पार्टी में जाकर धमाल मचाने को... है न माँ? तुम्हारा मन अवश्य करता होगा, किसी को अपने सारे दर्द, सारे दुख बताने को। किसी अन्य को अपनी जिम्मेदारियाँ देकर, सुर्खुरू होकर जीने को, चाहे वे जिम्मेदारियाँ बिल चुकाने की हों, घर का किराया देने की हों, घर की किचन से लेकर मेरे स्कूल और क्रेश की फीसें भरने की हों, खुलकर जीने की हों, हर प्रकार की खुशहाली लेने की हों। हर जिम्मेदारी को दूसरे के कंधों पर डालने की या कम से कम बाँट लेने की हो... ज़रूर तुम्हारा भी मन करता होगा न माँ... है न माँ?
मगर मैं कभी तुमसे पूछती नहीं हूँ। कैसे पूछ सकती हूँ? और फिर पूछने-बताने की आवश्यकता भी क्या है? क्या मैं महसूस नहीं करती? मैं सब जानती हूँ माँ! तुम अकेली हो, मैं तुम्हारे अकेलेपन को अनुभव करती हूँ, मैंने तुम्हें किसी महफ़िल में, किसी विवाह या किसी जन्मदिन या मैरिज ऐनीवर्सिरी की पार्टियों में झिझक-झिझकर जाते देखा है, वहाँ जाकर एक कोने में सहमी-दुबकी बैठे देखा है।
आजकल तुम्हारा फिर वही हाल है। वही चिंताओं में घिरा चेहरा, वही उंगलियों की पोरों पर कुछ गिनती... लगता, तुम किसी तैयारी में हो। मैं हैरान थी, कहाँ की तैयारी हो रही है? पूछने पर पता चला कि मेरा सबसे बड़ा मामा अपने बेटे को ब्याहने भारत आ रहा है। विवाह पर और भी बहुत सारे रिश्तेदार पहुँच रहे हैं, जैसे मेरे मामा-मामियाँ, मौसा और सबके बच्चे... मेरे नाना-नानी तो बेचारे इस दुनिया में नहीं थे। शेष पूरा अमीर ननिहाल परिवार ननिहालवाले गाँव में पहुँच रहा था और माँ तुम भी विवाह से कुछ दिन पहले ही अपने आफिस से छुट्टियाँ लेकर और मुझे संग लेकर गाँव में पहुँचोगी, यही प्रोग्राम था तुम्हारा। और तुम मुझे बार बार समझातीं, मैनर्स सिखातीं, दबी-दबी सी, सिकुड़ी-सी, लेकिन ऊपरी तौर पर खूब कान्फीडेंस दर्शाती हुई, खुश-खुश ननिहाल वाले गाँव पहुँची थीं। हमारे रिश्तेदारों की शान देखने वाली थी। अलग-अलग कमरों में अलग-अलग परिवारों ने डेरे जमा रखे थे। हर कमरे में अधखुले बड़े-बड़े अटैची, उनके अंदर से झाँकते नए-नए, सुंदर-सुंदर कपड़े, अल्मारियों में बड़ी-बड़ी हर तरह की बोतलें, चाहे वे स्कॉच की हों, शैम्पू की हों या परफ्यूमों कीं, बस खुशबुएँ ही खुशबुएँ... और सबके चेहरों पर अजीब-सी लालियाँ, चाहे वह पैसे की हों, बेफिक्री की हों या फ़ॉर्नर्स होने के घमंड की हों... पर थीं ज़रूर!
हर रोज़ पार्टी हो रही थी, कभी ‘माइये’ की पार्टी, कभी संगीत की पार्टी, कभी सलामियाँ पड़ रही थीं, भंगड़े पड़ते थे, डैक बजते थे। मेरे मौसाओं की जेबों में से बटुए उछल-उछल पड़ते थे, नोटों से भरे बटुए। और जिस दिन बारात चढ़ी, नज़ारा देखने वाला था। हर तरफ गुलाबी पगड़ियाँ ही पगड़ियाँ! सुंदर-सुंदर कोट-पैंट, टाइयाँ, कलाइयों पर सुनहरी घड़ियाँ और दाएँ हाथ की कलाइयों में सोने के कड़े पहने पुरुष और सिल्क की सुनहरी कढ़ाई वाले सूटों में गहनों से लदी स्त्रियाँ... चाहे वे मेरी मौसियाँ हों या मामियाँ... और मैं... मैं उन रौनकों, रंगों और संगीत की तेज़ धुनों के बीच तुम्हें ढूँढ़ रही थी, और तुम खोई हुई-सी, भाग-भागकर काम करती हुई, हर मज़ाक, हर मखौल के आगे यूँ ही हँसती हुई, सारे विवाह को सिर पर उठाये घूम रही थीं। पता नहीं, तुम पर तरस क्यों आ रहा था। 
'आनंद-कारज' हो रहा था। कितने सुंदर बोल गूँज रहे थे गुरद्वारे के ग्रंथी के। फेरे हो रहे थे। तुम्हारा विवाह भी ऐसे ही हुआ होगा न माँ?... हाँ, ऐसा ही हुआ था, तुम बता रही थीं एक बार किसी को कि तुम्हारी अरेंज मैरिज हुई थी। मैं तुम्हारे मुँह की तरफ देखती हूँ, तुम्हारी आँखों में क्या है? क्या?... आँसू या खालीपन? दम तोड़ती ख्वाहिशें या सिसक रही इच्छाएँ?...
'आनंद-कारज' संपन्न हो गया। अब सब जोड़े उठ उठकर दूल्हा और दुल्हन के गले में हार डालने लगे थे, शगुन उनकी झोलियों में डालकर तस्वीरें खिंचवाते थे। तुम बार-बार अपने होंठों पर जीभ फेर कर खुद को तैयार कर रही थीं। तुम्हारे हाथों में भी दो हार थे। शगुन झोली में डालने के लिए हाथ में पैसे पकड़े हुए थे। जब सब लोग हार और शगुन डाल चुके तो तुम भी मेरा हाथ पकड़ कर उठी थीं। हम दोनों ने दूल्हा-दुल्हन को हार डाले, शगुन डाला और फोटो खिंचवाई। फिर तुम मेरा हाथ पकड़कर वापस अपनी जगह पर आ बैठी थीं। तुम्हारा हाथ अपने हाथ के ऊपर मैंने काँपता हुआ देखा था।
'आनंद-कारज' के बाद भोजन के लिए मैरिज-हॉल की ओर बढ़ती बारात में भंगड़े की धमालें पड़ने लगीं। सब जोड़े एक-दूजे के हाथ पकड़ कर, आँखों में आँखें डाल कर नाच रहे थे... बैंड-बाजे के शोर में नोटों की बारिश हो रही थी। तुम भी मुस्कराती हुई ताली बजा रही थीं। शराबी हुए मेरे छोटे मौसा ने कई बार तुम्हें बांह से पकड़ कर भंगड़े में खींचना चाहा, पर तुम तो लगता था, धरती में समाती जा रही थीं। कितनी गरीब! कितनी अशक्त!
भंगड़े के बीच कोई बच्चा रोने लगता तो उसका पिता उसको एक हाथ में उठाकर चुटकी बजा बजाकर नाचने लगता। मेरे साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मेरे पापा पार्टी में नाच रहे हों और मै किसी बात पर रोने लगी होऊँ तो मेरे पापा मुझे एक बांह पर बिठाकर दूसरे हाथ से चुटकियाँ बजा बजाकर नाचे हों और मेरी माँ बेफिक्र होकर किसी दूसरे कोने में नाच रही हो। बेझिझक, कान्फीडेंट! हौसला उसके चेहरे से टपक-टपक पड़ता हो, पति के होने का हौसला, पति के पास रुपये-पैसे होने का हौसला, बैंक के लॉकर में गहने होने का हौसला, पति की ओर से मिला पुश्तैनी मकान और ज़मीन होने का हौसला... बस, कोई साथ है, यही हौसला... और उसी हौसले में दायीं बांह उठा उठाकर नाचती हुई, लाल-सुर्ख होती मेरी माँ...।
दिनभर हंगामा होता रहा। रस्में होती रहीं। विवाह होता रहा। शाम को बारात वापस अपने ठिकाने पर पहुँच गई। अब सब हॉल में रिलैक्स होकर बैठ गए थे, हाथों में गिलास और हँसी-ठहाके।
"तू कितने साल की हो गई अब?"  मेरी मौसी ने लापरवाही के साथ मुझसे पूछा और साथ ही, फर्श पर बिछाए सफ़ेद गद्दे पर टेढ़ा-सा होकर लेट गई।
"तेरह साल की...," मैंने जवाब दिया। पर माँ, मैंने देखा जैसे तुम हीनभावना से ग्रस्त हो गई थीं। पता नहीं क्यों तुम्हारे चेहरे पर बेचारगी-सी फैल गई थी।
"लो, और दो-चार साल तक हुई ब्याहने लायक।" मेरी दूसरी मौसी ने तुर्रा छोड़ा।

"अरे, इसका विवाह तो मैं करूँगा अपने हाथों..." मेरे बड़े मौसा ने छाती फुलाकर कहा।
"इसका रिश्ता तो हम ले जाएँगे कैनेडा..." मेरी मौसी ने इंग्लैंड वाले मौसा पर कैनेडा का रौब डाला।
"ले, कैनेडा में क्या है? दूर दूर तक कोई बंदा नहीं दिखाई देता, जैसे उजाड़ हो। बात करो हमारे इंग्लैंड की, जहाँ रौनकें ही रौनकें हैं।" मेरी इंग्लैंड वाली मौसी ने चटखारा लगाया।
"पर अपने से पहले मुझे अपनी माँ का विवाह करना है, उसका अकेलापन दूर करना है। वह भी इंसान है और ज़िन्दगी की हर खुशी, हर सुख पर उसका भी हक़ है। उसके बारे में कोई नहीं सोचता, कोई नहीं देखता। उसका भी हक़ है, सिर उठा कर जीने का...।"
 खनकते गिलास रुक गए थे, सबके मुँह बंद हो गए थे। इतना सन्नाटा... इतनी चुप!  सिर्फ़ मेरी अकेली की आवाज़ गूँज रही थी। अचानक मैंने तुम्हारी तरफ देखा था... मुझे लगा, तुम्हारा सिर तो मैंने अभी ऊँचा कर दिया है, माँ री!... ■

2 comments:

Anonymous said...

एक बेटी के द्वारा ये सोचा जाना कि उसकी मां ने अपना जीवन एकाकी और अभाव में गुजारा है, भावुक और लाज़िम लगा। आदमी को एक दूसरे के बारे में इसी तरह सोचना चाहिए। एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के बारे में सोच सकती है। बहुत मार्मिक कहानी।

कल्पना मनोरमा

Veena Vij said...

आज की परिस्थितियों को देखते हुए, बिल्कुल सही सोच है। साधु वाद!