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Jan 1, 2024

व्यंग्यः जीवन संध्या भोज

  - जवाहर चौधरी

अब क्या बतावें भाई साहब, रोने बैठते हैं, तो समझ में नहीं आता कि सुरु किससे करें । कोई एक बात हो तो सलीके और संस्कार के साथ रो लेवें इन्सान । यहाँ तो बरात लगी पड़ी है ससुरी । लोग जिस तरह औंधी खोपड़ी से नाच रहे हैं ना, वैसा तो आज तक देखा नहीं हमने । कहने को कह रहे हैं आगे बढ़ो,  दुनिया आगे बढ़ रही है, विकास हो रहा है ! फिर कहते हैं पीछे चलो बाप-दादा पुकार रहे हैं, पीछे सब अच्छा है !! अरे समझ में नहीं आता है कि आगा अच्छा है या पीछा !! जिसे देखो पगला रहा है... ना ना हम राजनीति की बात नहीं कर रहे है और न ही करेंगे । हमें क्या करना है, इस बुढ़ापे में तो सर पे जो भी खड़ा होता है, यमराज ही दीखता है । 

कुर्सी पे कोई सच्चा-साधु बैठे या लुच्चा–लबार हमें क्या । आज जिन्दा हैं, तो आपके लिए रामू  काका हैं, कल मरके फिर पैदा हुए, तो कौन जाने रहीम चाचा हो जाएँ । लोग तो कहते हैं- लाखों योनियाँ हैं, आदमी कुत्ता बिल्ली भी हो सकता है । आदमी ही बनेंगे इसकी कोई गैरंटी है क्या ! इसलिए राजनीति की बातें करके हम काहे अपना और आपका कीमती समय बरबाद करें ! ... अब देखिए,  आप इतनी गौर से बात सुन रहे हैं; तो किसलिए ! कोई डर है हमारा? या कोई कर्जा लिये हो हमसे ? ... अरे भाई इंसानियत है इसलिए दुःख बाँट रहे हो हमारा । वरना ढूँढ लीजिए यहाँ से वहाँ तक, कोई अपनी इच्छा से किसी की मन की बात सुनता है क्या? बकवास सुनने का समय ही नहीं है किसी के पास । घर में बूढ़े अपना पसेरी भर समय लिये बैठे हैं, सारा सारा दिन कोई चुटकी भर बाँटने वाला नहीं मिलता । एक जमाना था, जब मिलने वाले फूल लिये खड़े रहते थे । ... लेकिन छोड़िए पुरानी बातें । 

 ... हाँ तो हम कह रहे थे, आत्मा जो है, सूखी जाती है । बच्चों को पढ़ाए- लिखाए; इसलिए कि इनकी जिंदगी बन जाएगी । ये इन्सान बन जाएँगे, कुछ हमारी भी सदगति हो जाएगी । अब जब धरम- करम का समय आया, तो फुग्गे उड़ गए आकाश में । दो लाइन का फादर्स-डे वेक्सिन ठोंक देते हैं, सोचते हैं साल भर बाप को औलादी-बुखार नहीं चढ़ेगा । ... बताइए हम क्या करें ! ताली-थाली बजा-बजाकर बुढ़ापा-गो बुढ़ापा-गो करें !? सब हो जाएगा इससे ! पिछले महीने बिसेसर बाबू गुजरे । बच्चे विदेश में, मजबूरी बनी रही, कोई नहीं आया । हम जैसे बूढ़े कन्धों ने उठाया, महरी के लड़के ने आग दी ... पता नहीं ऊपर के लोक में किसी ने द्वार खोला या नहीं । न पूजा-पाठ, न तेरहवीं न नुक्ता-घाटा । सफल आदमी थे, लेकिन बड़े बेआबरू होके तेरे कूचे से निकले । कोई इस तरह जाता है क्या !? ये कैसी दुनिया बना ली है हम लोगों ने ! 

 देखो भाई, अगली पूरण मासी को हमारी कविता की किताब का जलसा रखा है । क्या कहते हैं लोकार्पण कार्यक्रम और ‘जीवन संध्या भोज’ भी है । भोजन प्रसादी का आयोजन है,  तो आना जरुर । ... सोच रहे होगे कि हमने कब लिखीं कविताएँ... तो ऐसा है कि कोई तो बहाना चाहिए बुलाने का । कहते कि अपना नुक्ता कर रहे हैं, तो कौन आता । कभी कुछ पन्ने काले किए थे, सो उन्हीं को छपा लिया । जरूर आइएगा, नमस्कार । ■

सम्पर्कः  BH 26 सुखलिया, भारतमाता मंदिर के पास, इंदौर- 4520 10, फोन- 940 670 1 670  


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