पत्रकारिता क्षेत्र में पिछले वर्षों में
काफी परिवर्तन आया है। दैनिक समाचार पत्रों के अनेक संस्करण आने, टी.वी. पत्रकारिता, इंटरनेट तथा वेब पत्रकारिता के चलन के साथ सोशल मीडिया के कारण तकनीक युक्त नई टीम समाज के सामने आयी है लेकिन इस गति के पीछे रहस्य को जानें तो यहाँ भी कुछ ग्लैमर के चकाचौंध के कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में अवतरण कर गये है। इनके आगमन से विचार शून्यता समाप्त होनी चाहिए थी पर इस संक्रमण दौर ने हमारी दिशा ही बदल दी है।
आज हमारा लेखन सतही हो गया है। जो शब्द समय के दस्तावेज बनने की संभावना रखते हैं उनका उपयोग स्वार्थी लेखन, प्रसारण में होना अत्यंत चिंतनीय प्रश्न बन गया है। राजनैतिक धरातल पर चल रहे उठापटक के नाटक में सहयोगी पात्र बनने, मनगढंत विश्लेषण करने के लिये मीडिया जब राजनैतिक हाथों में जाकर प्रतिक्रियावादी कृत्य करने के साथ ही सामाजिक सरोकारों से विलग होती है तो हमारे सामने अपने अस्तित्व की रक्षा का यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है। प्रेस अपने कर्म के प्रति सहज आचरण करे यह आकांक्षा लोकतंत्र का सजग प्रहरी मानने वाले सुदूर देहात से लेकर महानगरों में निवास करने वाले लाखों-करोड़ों भारतवासियों की है। स्वतंत्रता आन्दोलन, सामाजिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि में प्रेस की सकारात्मक भूमिका इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखी गई है। भारतीय पत्रकारिता के आदर्श तिलक से लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी तक की पत्रकारिता का सच किसी आईने का मुहताज नहीं है। प्रेस मानसिक स्तर पर कभी वैयक्तिक स्वार्थों से प्रभावित नहीं होने के कारण ही ज्योति स्तम्भ बनकर समाज को नई दिशा देती रही।
मुझे याद आ रही है मार्डन रिव्यू के संपादक रामानंद चटर्जी की वह बात जब एक दिन चटर्जी साहब गंगा में स्नान करते समय डूबने लगे, तो एक व्यक्ति ने आकर उनकी जान बचाने के लिए गंगा में छलांग लगा दी और उन्हें सकुशल जल के तेज प्रवाह से बाहर ले आए। चटर्जी साहब ने उस व्यक्ति से कहा कि आपने मेरी जान बचाई है, कभी भी जब तुम्हें जरूरत हो, तो मेरे पास चले आना। कुछ समय बाद वही व्यक्ति मार्डन रिव्यू के ऑफिस में पहुँचा और रामानंद चटर्जी को गंगा प्रसंग की चर्चा करते हुए उक्त घटना का स्मरण कराते हुए कहा कि आपने कहा था कि कभी जब जरूरत हो, तो चले आना । मैंने यह कविता लिखी है। आप इसे मार्डन रिव्यू में प्रकाशित करें।
कविता का गंभीरता से अवलोकन कर मार्डन रिव्यू के संपादक चटर्जी ने कहा, यह कविता नहीं छप सकती। आप चाहे तो मुझे गंगा में डुबो दें ।
तो यह थे पत्रकारिता के मूल्य ! आज की पत्रकारिता पर गौर करें तो सच यह है कि सच को टुकड़ों-टुकड़ों में संदर्भ तोड़कर कभी सनसनी फैलाने के लिए कभी- कभी स्वार्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। लेकिन इस बात का मतलब यह नहीं कि सभी सत्य को तिरोहित कर रहे हैं । अभी भी माल बनाम मूल्य की लड़ाई में एक बहुत बड़ा वर्ग मूल्यों के साथ अपनी लेखनी का प्रयोग कर रहा है, जिसके चलते समाज के सामने कालिमा युक्त चेहरों की करतूतें प्रकाश में आ रही हैं तो भूमंडलीकरण के नाम पर अपने प्रपंच में वाजिब तर्क गढ़ने की कोशिश में असफल होने पर कहते हैं कि खबर देना (बेचना) एक वैयक्तिक क्रिया है । क्या खबर एक उत्पाद या माल है? क्या अखबार लगभग उसी तरह का उत्पाद है, जैसे साबुन की टिकिया ! खबर पैदा करना और खबर बेचना और खबरों के लिये पत्रकारों का राजनेता की तरह आचरण पाठकों के संवेदना तंत्र को शून्य कर देती है। खबर देना एक जिम्मेदारी का काम है, क्योंकि उसके साथ मूल्य जुड़े हैं। वह एक मानवीय संवेदना को प्रभावित करती है। छवि का अक्स बनाती हैं, पर विपरीत आचरण अँधेरे की गहरी खाई में समाज को धकेलना क्या सत्कर्म बन सकता है? आजादी के आठ दशकों की यात्रा में परिवर्तन का परिणाम न आना और पतित होने के लिए सिर्फ पत्रकार का जिम्मेदार ठहराकर हम अपने कर्तव्य से इतिश्री नहीं मान सकते हैं।
पत्रकारिता के मरने के साथ ही लोकतंत्र की मृत्यु को कोई रोक नहीं सकता है। पत्रकारों के प्रति समाज को भी अपनी भूमिका निभानी होगी; क्योंकि पत्रकार भी इसी समाज का नागरिक है और उसके साथ ही वही सब जिम्मेदारी है, जो समाज के प्रत्येक नागरिक के साथ होती है। इस कथन के माध्यम से मेरी आशा यह नहीं है कि हम पत्रकारिता के नरक की सारी सड़न और बदबू के लिए सिर्फ सुविधाओं के मद में डूबे पत्रकारों की आत्मालोचन कर ऐसे गुनाह को कबूल कर लें। जरूरत बस आज सम्बंधित विचारों, व्यावहारिक समस्याओं और व्यक्तिगत भावनाओं-कुंठाओं से पार अपनी सार्थक भूमिका सिद्ध करने की अनिवार्यता को स्वीकार करने की है और वहीं परीलोक से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जलागम, प्राकृतिक संसाधन, शिक्षा, सामाजिक सौहार्द, जल, जंगल, जमीन, लोक संस्कृति उन्नयन, मातृशक्ति, सशक्तीकरण, मानवाधिकार, सामाजिक सुरक्षा, आजीविका संवर्द्धन, युवा पीढ़ी को प्रोत्साहन, जनाधिकारों हेतु पहल, शिक्षा, स्वास्थ्य, परम्परागत श्रेष्ठ रीतियों, उत्सवों, त्योहारों एवं अन्य पर्वों का सम्मान के ऊँच-नीच, अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिये साथ रूढ़ियों, कुरीतियों, जातिप्रथा, दहेज दानव, आदि विषयों पर कलम का प्रयोग कर नया समाज बनाने में भागीदारी का संकल्प ही पत्रकारिता को उच्च मूल्यों की ओर पुर्नस्थापित कर सकता है। ■
सम्पर्कः ए-305, ओ. सी. आर. बिल्डिंग, विधानसभा मार्ग, लखनऊ -226001
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