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Jan 1, 2024

अनकहीः स्वदेशी न्याय प्रणाली का आरंभ

- डॉ.  रत्ना वर्मा

आजाद देश के नागरिक अपने देश में सुख शांति और चिंता से परे होकर खुशहाल जीवन गुजारे, इसके लिए ही हमारी न्याय व्यवस्था है; परंतु हम देशवासियों का यह दुर्भाग्य है कि गुलामी के दौर में अंग्रेजों द्वारा बनाए कानून व्यवस्था को 75 वर्षों तक हमने ज्यों का त्यों ढोया है, जबकि होना तो यह था कि अपने देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार अपराध और न्याय की समीक्षा करके आजादी के बाद इन नियम- कानून में आवश्यक बदलाव किए जाते;  लेकिन हमारे देश में ऐसा हुआ नहीं । अंग्रेजों ने जो कानून और न्याय व्यवस्था बनाए, वे सब अपने फायदे के लिए थे । आजादी के लिए अपनी जान न्योछावर करने वालों ने  भारत को आजादी तो दिला दी; परंतु आजाद भारत के लोगों ने अंग्रेजों के बनाए कानून को बदलने में इतना वक्त लगा दिया। 

‘देर आयद दुरुस्त आयद’ की दर्ज पर, आने वाले साल के लिए एक सौगात की तरह राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सोमवार को तीन नए आपराधिक न्याय विधेयकों को मंजूरी दी है। इन कानूनों का मकसद अपराधों व उनकी सजाओं को परिभाषित कर, आपराधिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह से बदलना है। इसे एक ऐतिहासिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। 

यद्यपि इन तीनों कानूनों को को लेकर मन में एक सवाल उठता है कि जब हमारे राजनीतिक पुरोधाओं को यह पता था कि ये पुराने कानून 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों के शासन की रक्षा के लिए बनाए गए थे,  जिसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजों के शासन की सुरक्षा करना था, तो फिर उसे बदलने में इतने बरस क्यों लगे? इसी प्रकार देश में अन्य कितने ही नियम, कानून और व्यवस्था हैं, जो अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए ही बनाए थे, उदाहरण के लिए शिक्षा व्यवस्था को ही लें, जिसमें बहुत ज्यादा परिवर्तन और सुधार करने की आवश्यकता है।

आज जबकि अन्य विकासशील देश अपनी शिक्षा व्यवस्था, भाषा और संस्कृति के बल पर दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हैं, वहीं हम आज भी अंग्रेजी की पूँछ पकड़कर दुनिया जीतना चाहते हैं। हिन्दी बोलने वाले और हिन्दी माध्यम में पढ़ने वालों को आज भी उच्च संस्थानों में प्राथमिकता नहीं दी जाती। प्रशासन के सबसे ऊँचे पायदान में पहुँचने वाले अधिकारी अंग्रेजी ही बोलते हैं और उनके काम-काज भी अंग्रेजी में ही होते हैं। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने और पाठ्यक्रम में भारतीय संस्कृति और भारतीय मूल्य और परंपराओं के साथ भारत के वास्तविक इतिहास को शामिल किया होता, तो आज हम अपनी संस्कृति और विरासत के बल पर बहुत ऊँचाई पर होते। यह तो हम सभी जानते हैं कि इस दिशा में हमने आज तक कोई विशेष प्रयास नहीं किए. यदि हमने आजादी के बाद से ही बदलाव का प्रयास किया होता तो हमें अपनी श्रेष्ठता का लोहा मनवाने में इतने बरस नहीं लगते।   

खैर ‘जब जागे, तभी सवेरा’ की उक्ति को स्वीकार करते हुए यह तो कहना पड़ेगा कि पहली बार कानून में आतंकवाद को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, राजद्रोह को अपराध के रूप में खत्म किया गया है। साथ ही पहली बार भारतीय न्याय संहिता में आतंकवाद शब्द को परिभाषित किया गया है।  

इसके साथ ही कई और महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, जिसमें ‘सामाजिक सेवा’ (Community Work) को दंड के रूप में स्थान दिया गया, जो समाज के हित में किए जाएँगे।  पुलिस की जवाबदेही तय करने के लिए भी कई प्रावधान जोड़े गए हैं। उम्मीद है इससे पुलिस और जनता के बीच बढ़ती दूरियों को कम करने में सहायता मिलेगी। महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों के लिए अलग से प्रबंध किए गए हैं।  भारतीय दंड संहिता में धोखाधड़ी या ठगी से संबंधित अपराध धारा 420 अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 316 कहलाएगा। आम आदमी की जुबान पर एक मुहावरे की तरह रचे - बसे शब्द कि अरे वह अमुख व्यक्ति तो चार सौ बीसी करने में माहिर है , को बदलकर तीन सौ सोलह कहने में वक्त तो लगेगा । वक्त तो दे देंगे पर न्याय मिलने में अब देर न हो ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। 

इन नए कानूनों को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही कहा कि यह नई न्याय प्रणाली सभी को पारदर्शी और त्वरित न्याय देने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों से सशक्त होगी।  इतिहास में पहली बार हमारे कानून आतंकवाद, संगठित अपराधों और आर्थिक अपराधों को परिभाषित करते हैं तथा कानून से बचने के हर रास्ते को रोकते हैं। वहीं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने फिल्मी अंदांज में कहा कि नए आपराधिक कानूनों के लागू होने से ‘तारीख पे तारीख’ युग का अंत सुनिश्चित होगा और तीन साल में न्याय मिलेगा। 

इसमें कोई दो मत नहीं कि जो भी नियम- कानून में सुधार और बदलाव किए जाते हैं वे समाज की भलाई के लिए है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सोढ़ी जी ने भी बिल्कुल सही कहा है - ‘एक जीवंत समाज में, कानूनों को भी बदलना होगा। आपके पास स्थिर कानून नहीं हो सकते।’ इन कानूनों को लेकर इसे बनाने वाले तो सब पक्ष में बोलेंगे ही पर साथ ही इन कानूनों को लेकर इनकी उपादेयता पर सवाल भी उठाए जा रहे हैं। तो यह भी उतना ही सत्य है कि जहाँ बदलाव का स्वागत होता है वहाँ विरोध भी होता है। 

हमें नए साल में इस नए बदलाव का स्वागत करते हुए यह उम्मीद करना चाहिए कि इससे  देश में अमन, चैन और शांति के साथ जीवन बसर करने को मिलेगा, अपराध कम होंगे और देश तेजी से तरक्की करते हुए दुनिया में एक मिसाल बनाते हुए अपना स्थान सर्वोच्च शिखर पर रख सकेगा।  इसी उम्मीद के साथ सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएँ...

3 comments:

डॉ दीपेन्द्र कमथान, बरेली ! said...

श्रद्धेय रत्ना जी ,
जितनी सच्चाई यह रही कि आज़ादी के बाद भी ग़ुलामी की निशानियों को पूर्व सरकारें गूँगी बहरी और अंधीं बनी रहे उतनी ही यह सच्चाई रही कि पूर्व की सरकारें विशिष्ट वोट बैंक की ख़ातिर अपना डी ऐन ए बदलने से घबराती रहीं वरना क्रूर शाशक औरंगज़ेब रोड का नाम बदलने में इतना समय नहीं लगता !
आपने हर भारतिये को ग़ुलाम वंश के क़ानून का विषय समझाकर बहुत सराहनिए कार्य किया है और यह यकीनन हर नागरिक को उसके आज़ाद होने के उद्देश को बताएगा !
सादर !
डॉ. दीपेन्द्र कमथान
बरेली !

Vijay Joshi said...

Was
अद्भुत। सात दशक बाद मानसिक मुक्ति को कलमबद्ध करने हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 22 जनवरी के बाद से तो अब स्वाभिमान जागरण यात्रा का भी श्री गणेश हो गया है। एक बार पुनः साहसिक प्रयास के लिए दिली बधाई सहित सादर

Anonymous said...

सरल शब्दों में बहुत अच्छी जानकारी देता सम्पादकीय। हार्दिक बधाई।