- बृज राज किशोर ‘राहगीर’
1. इस वतन के वास्ते
खिड़कियाँ बेहद ज़रूरी हैं हर इक घर के लिए।
रोशनी लेकर यही आती हैं भीतर के लिए।
हाथ जबसे तुमने थामा है सफ़र के बीच में,
ये भी काफ़ी से ज़ियादा है मुक़द्दर के लिए।
जान देते आए हैं जो इस वतन के वास्ते,
सर झुकाए हैं खड़े हम उनके आदर के लिए।
मैंने ऐसा क्या कहा जो इस क़दर नाराज़ हो,
हाथ में ले आए हो तलवार इस सर के लिए।
लोग ऐसे भी हैं जिनको रोशनी भाती नहीं,
चाहिएगा ख़ून मेरा उनके ख़ंजर के लिए।
2. इस कदर गुस्साए हैं बादल
बरसते जा रहे हैं, इस क़दर ग़ुस्साए हैं बादल।
नदी के घाट सड़कों पर उठा ले आए हैं बादल।
बहुत नाराज़ हैं शायद, बहा ले जाएँगे सब कुछ,
न जाने किस समन्दर को बुलाकर लाए हैं बादल।
नहीं जब आए थे हम तो, हमें बुलवा रहे थे तुम,
कहानी यह बुलावे की अभी बतलाए हैं बादल।
बरस भर पैर फैला सोए थे अफ़सर शहर वाले,
मगर अब किश्तियाँ उनसे यहाँ चलवाए हैं बादल।
अरे नेताओं अब तक कोई भाषण क्यूँ नहीं आया,
विदेशी ताक़तों ने ही यहाँ भिजवाए हैं बादल।
लेखक के बारे मेंः पचास वर्षों से लेखनरत, तीन काव्य संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह, एक गीत संग्रह प्रकाशित, देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, आकाशवाणी एवं मंचों पर काव्य-पाठ।, सम्पर्कः ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.)-250001, मोबा. नं. 9412947379
2 comments:
बेहतरीन, हार्दिक शुभकामनाएं राहगीर जी ।
बहुत सुंदर सुदर्शन रत्नाकर
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