उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jan 1, 2024

पर्यावरणः पर्यावरणवाद के 76 वर्ष

  - सुनीता नारायण

देश अपनी आज़ादी के 76वें साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर यह जायज़ा लेना उचित होगा कि पर्यावरण आंदोलनों ने देश की नीतियों और विकास को आकार देने में क्या भूमिका निभाई है।

पर्यावरण आंदोलन की तीन अलग-अलग राहें हैं जिन पर हम इतिहास में इनके पदचिह्न देख सकते हैं।

पहली, जिसमें पर्यावरण आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकास रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जिसमें पर्यावरणीय अभियानों ने विकास परियोजनाओं का विरोध किया है और इस संघर्ष से कार्रवाई के लिए सर्वसम्मति उभरी है। तीसरी, पर्यावरणीय आंदोलन ने प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के मामलों में नीतियों में बदलाव करने की ओर ज़ोर लगाया है।

आंदोलन की ‘प्रकृति’ जटिल है। पिछले 75 सालों में ये आंदोलन दो धाराओं में बंटकर काम करते रहे हैं - विकास के रूप में पर्यावरणवाद और संरक्षण के रूप में पर्यावरणवाद।

आंदोलन में यह विभाजन इसके जन्म के समय, 1970 के दशक में, भी नज़र आ रहा था। 1973 में, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया गया था जो संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण हेतु अभयारण्यों हेतु भूमि चिह्नित करने के लिए था।

लगभग उसी समय, हिमालय के ऊँचे इलाकों में महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने पेड़ काटने (पेड़ों पर आरी-कुल्हाड़ी चलाने) का विरोध किया था। उनका आंदोलन संरक्षण के बारे में नहीं था; उन्हें जीवित रहने के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे।

यह भेद हमारी नीतियों में भी झलकता है, जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच डोलती रहती हैं। और इन सब में, समुदायों के अधिकार उपेक्षित रहे हैं।

प्रोजेक्ट टाइगर वर्ष 2004 में तब पतन के गर्त में पहुँच गया था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के सभी बाघ शिकारियों की बलि चढ़ गए थे। तब, टाइगर टास्क फोर्स ने सुधार के लिए एजेंडा तय किया, जिसमें अभयारण्य की सुरक्षा को मज़बूत करना और टाइगर कोर ज़ोन वाले इलाकों से गाँवों को अन्यत्र बसाना शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से कोई लाभ हो रहा है?

इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक में वन संरक्षण कानून लागू किया गया था, जिसमें यह व्यवस्था थी कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।

इस कानून ने कुछ हद तक वन भूमि उपयोग परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन साथ ही इसने उन समुदायों को वनों से दूर कर दिया है, जो इनकी रक्षा करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाएँ, कैसे उन्हें काटें और दोबारा फिर उन्हें उगाएँ ताकि भारत काष्ठ-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके और इस तरह बढ़ सके कि स्थानीय लोगों को इससे फायदा हो।

1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बाँध बनाने की परियोजना ‘विनाशकारी’ विकास का चरमबिंदु था। यह परियोजना 1983 में साइलेंट वैली पनबिजली परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद आई थी। साइलेंट वैली परियोजना केरल के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता को बचाने के लिए रोकी गई थी।

नर्मदा परियोजना के मामले में भी मुद्दे वही थे - जंगलों की क्षति और विस्थापित गाँवों का पुनर्वास। इस आंदोलन को बहुत सम्मान और निंदा दोनों मिली, लेकिन इस आंदोलन ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया कि नीति में और फिर सबसे  महत्त्वपूर्ण रूप से क्रियांवयन में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।

1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं के कारण 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करने और मंज़ूरी देने के ताम-झाम की स्थापना हुई; लेकिन संतुलन बनाने का उपरोक्त कार्य अभी भी अधबीच में है।

यह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सूखा पड़ा था, जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन की मान्यताओं को फिर से देखने-समझने के लिए प्रेरित किया।

डाइंग विज़डम नामक पुस्तक में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी प्रवीणता का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। इसने विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार को उभारा, जिसके बाद आजीविका में सुधार करने और जहाँ बारिश होती है वहीं उस पानी को भंडारित करने के लिए जल निकायों के पुनर्जनन की दिशा में नीतिगत बदलाव हुए।

दिसंबर 1984 में आई औद्योगिक आपदा भोपाल गैस कांड - जिसमें यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई थी और मौके पर ही हज़ारों लोग मारे गए थे - के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए बने कानूनों में सुधार हुआ, और कुछ हद तक कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ; लेकिन हमने उन लोगों को अब तक न्याय नहीं दिया है, जो इसके चलते अब भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और उनके पास आजीविका का अभाव है।

1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से बेहतर ईंधन के विकल्प मिले और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है - दिल्ली ने स्वच्छ संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) को अपनाया।

लेकिन जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन और प्रदूषण बढ़ाने वाले ईंधन का दहन (उपयोग) बढ़ा, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक अफसोस (या चिंता) है। बुरी खबर यह है कि हम परिवहन प्रणाली को बेहतर करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं - यानी उद्योग, बिजली या खाना पकाने में उपयोग होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के उपयोग को थामने के कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं।

ऐसी और भी अन्य घटनाएँ हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दर्ज़ किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह आवाज़ है जो इसने देश के नागरिकों को दी है। यही आंदोलन की आत्मा है। दरअसल, पर्यावरणवाद का सरोकार तकनीकी सुधारों से नहीं है बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने से है। (स्रोत फीचर्स) ■

(यह लेख 16 अगस्त, 2023 को ‘डाउन टू अर्थ’ में मूलत: अंग्रेज़ी में ‘76 years of environmentalism’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।)    


No comments: