-भारत
डोगरा
कई हिमालय क्षेत्र में
समय-समय पर ऐसे समाचार मिलते हैं कि किसी बीमार महिला या वृद्ध को कुर्सी या
चारपाई या पीठ पर ही बिठाकर 5 से 15 कि.मी. की दूरी तय करते हुए इलाज के लिए ले
जाना पड़ा। जहाँ एक ओर ग्रामीण संपर्क मार्गों व छोटी सड़कों की कमी है या उनकी
दुर्दशा है, वहीं दूसरी ओर हाइवे व सुरंगों की सैकड़ों
करोड़ रुपये की परियोजनाओं को इतनी तेज़ गति से बढ़ाया जा रहा है जितनी पहले कभी
नहीं देखी गई।
मसूरी सुरंग बायपास की
घोषणा हाल ही में की गई। ट्रैफिक कम करने के नाम पर 700 करोड़ रुपये की ऐसी सुरंग
परियोजना लाई गई है, जिससे लगभग 3000 पेड़ कटेंगे।
इसके अतिरिक्त चूने-पत्थर की चट्टानों में उपस्थित प्राकृतिक जल-व्यवस्था ध्वस्त
होगी।
मसूरी के पहाड़ गंगा व
यमुना के जल-ग्रहण क्षेत्रों के बीच के पहाड़ हैं व यहाँ के जल-स्रोतों को
क्षतिग्रस्त करना देश को बहुत महँगा पड़ सकता है। ध्यान रहे कि जब पानी को सोखने की
क्षमता रखने वाली, संरक्षित रखने वाली इन चट्टानों
को खनन से नष्ट व तबाह किया जा रहा था और बहुत से भूस्खलनों ने अनेक गाँवों के
जीवन को संकटग्रस्त कर दिया था, उस समय सुप्रीम कोर्ट के
निर्देशों पर ही मसूरी व आसपास के क्षेत्र में चूना पत्थर के खनन को रोका गया था।
इन चट्टानों में जो संरक्षित पानी है, उससे अनेक गाँवों के
जल-स्रोतों व झरनों में पानी बना रहता है।
हिमालय की अनेक हाइवे
परियोजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान देखा गया है कि अनेक भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय
हो गए हैं व कुछ नए भूस्खलन क्षेत्र उत्पन्न हो गए हैं। खर्च बचाने के लिए या
जल्दबाजी में सड़क के लिए सीधा रास्ता दिया जाता है व ज़रूरी सावधानियों की उपेक्षा
की जाती है। जो तरीके आज़माए जाते हैं या भूस्खलन रोकने के प्रयास किए जाते हैं वे
प्रायः पर्याप्त नहीं होते हैं। परिणाम यह है कि भूस्खलनों के कारण बहुत से मार्ग
समय-समय पर अवरुद्ध होने लगते हैं व ट्रैफिक को गति देने का लक्ष्य भी वास्तव में
प्राप्त नहीं हो पाता है।
यह सच है कि लोगों को
अधिक चौड़ी सड़कों पर गाड़ी चलाना अच्छा लगता है, पर हिमालय
क्षेत्र में जहाँ एक-एक पेड़ अमूल्य है, वहां यह पूछना भी
ज़रूरी है कि हाइवे को अधिक चौड़ा करने के प्रयास में कितने पेड़ काटे गए। सरकारी
आँकड़ों के आधार पर ही ऐसी एक ही परियोजना में हज़ारों पेड़ कट सकते हैं, कट रहे हैं, पर वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। चार
धाम हाइवे परियोजना क्षेत्र (उत्तराखंड) में एक अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता ने
बताया कि एक बड़े पेड़ को काटने के प्रयास में अनेक छोटे पेड़ भी क्षतिग्रस्त होते
हैं। पूरे हिमालय क्षेत्र में इस तरह गिरने वाले पेड़ों की संख्या लाखों में है।
अतः क्या यह उचित नहीं
है कि हाइवे व सुरंगों की परियोजनाएँ बनाते समय यह ध्यान में रखा जाए कि
पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति को कैसे न्यूनतम किया जा सकता है। परवाणू सोलन हाइवे
(हिमाचल प्रदेश) को हाल ही में बहुत चौड़ा कर दिया गया है। आज धर्मफर, कुमारहट्टी जैसे अनेक स्थानों पर आपको आसपास के गाँववासी व दुकानदार
बताएँगे कि उनका रोज़गार उजड़ गया व मुआवज़ा बहुत कम मिला। यदि आप थोड़ा और कष्ट कर
आसपास के गाँवों में पहुँचेंगे, तो स्थिति और भी दर्दनाक हो
सकती है। लगभग दो वर्ष पहले जब मैं गाँव में गया तो लोगों ने बताया है कि यह एक
समय बहुत खूबसूरत दृश्यों वाला खुशहाल गाँव था, पर हाइवे को
चौड़ा करने के दौरान जो भूस्खलन व अस्थिरता हुई तो मकान, दुकान,
गोशाला सबकी क्षति हुई व पूरा गाँव ही संकटग्रस्त हो चुका है।
हाइवे पर नए मॉडल की
कार दौड़ाते हुए सैलानियों को प्रायः इतनी फुरसत नहीं होती है, पर हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हाइवे व सुरंगों का गाँववासियों,
वृक्षों, हरियाली, जल-स्रोतों
व पगडंडियों पर क्या असर हुआ। ऐसी अनेक रिपोर्टें आई हैं कि निर्माण कार्य में हुई
असावधानियों के कारण आसपास के किसी गाँव में मलबा व वर्षा का जल प्रवेश कर गया,
या मलबे के नीचे गाँव की पगडंडी बाधित हो गई। यदि इन सभी पर्यावरणीय
व सामाजिक तथ्यों का सही आकलन हो, तो कम से कम सरकार के पास
एक महत्त्वपूर्ण संदेश जाएगा कि इन उपेक्षित पक्षों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।
हाल ही में जून में जब
मसूरी सुरंग बायपास योजना की घोषणा उच्च स्तर पर हुई तो अनेक स्थानीय लोगों ने ही
नहीं,
विशेषज्ञों व अधिकारियों तक ने इस बारे में आश्चर्य व्यक्त किया कि
उनसे तो इस बारे में कोई परामर्श नहीं किया गया। मसूरी के बहुत पास देहरादून है,
जो देश में वानिकी व भू-विज्ञान विशेषज्ञों का एक बड़ा केंद्र है।
इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने भी कहा कि उन्हें इस परियोजना के बारे में पहले कुछ
नहीं पता था।
दूसरी ओर अनेक स्थानीय
लोग बताते हैं कि यदि समुचित स्थानीय परामर्श किया जाए तो सामाजिक व पर्यावरणीय
दुष्परिणामों को न्यूनतम करने के साथ आर्थिक बजट को भी बहुत कम रखते हुए ट्रैफिक
समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। दूसरी ओर, कुछ लोग कहते
हैं कि अधिक बजट की योजना बनती है तो अधिक कमीशन मिलता है।
पर यदि पर्वतीय विकास
को सही राह पर लाना है तो पहाड़ी लोगों की समस्याओं को कम करने वाले छोटे संपर्क
मार्गों की स्थिति सुधारने पर अधिक ध्यान देना होगा व हिमालयवासियों की वास्तविक
ज़रूरतों को समझते हुए हिमालय का विकास करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
1 comment:
उत्तम लेख
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