कोविड-19 से उत्पन्न छह संकट
-रामचंद्र गुहा
आज़ादी
के बाद से ही भारत कई मुश्किल दौर से गुज़रा है। भारत ने विभाजन की पीड़ा;
1960 के दशक का अकाल और युद्ध; 1970 के दशक
में इंदिरा गांधी का आपातकाल; और 1980 के दशक के अंत एवं
1990 की शुरुआत में सांप्रदायिक दंगों का दर्द झेला है। हमारा देश एक बार फिर अब
तक के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रहा है। कारण यह है कि कोविड-19 महामारी ने कम
से कम छह अलग-अलग संकटों को जन्म दिया है।
सबसे पहला
और सबसे प्रत्यक्ष संकट चिकित्सा सम्बंधी है। जैसे-जैसे वायरस संक्रमण के मामले
बढ़ेंगे,
हमारे पहले से कमज़ोर और अति-व्यस्त स्वास्थ्य तंत्र पर और अधिक दबाव
पड़ेगा। ऐसे समय में, महामारी से निपटने के प्रबंधन पर
अत्यधिक ध्यान देने का मतलब होगा कि अन्य प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएँ उपेक्षित रह
जाएँगी। टीबी, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप
और कई अन्य रोगों से पीड़ित करोड़ों भारतीयों को पता चल रहा है कि इलाज के लिए
डॉक्टर व अस्पताल मिलना मुश्किल है, जो पहले उपलब्ध थे। इससे
अधिक चिंता तो भारत में हर माह पैदा होने वाले लाखों शिशुओं की है। कई वर्षों की
मेहनत से इन नवजात शिशुओं को खसरा, मम्स, पोलियो, डिप्थीरिया जैसी घातक बीमारियों के विरुद्ध
टीकाकरण का एक संस्थागत ढांचा तैयार किया गया था। लेकिन हालिया ज़मीनी रिपोर्ट्स से
पता चला है कि कोविड-19 की ओर अधिक ध्यान होने से राज्य सरकारें बच्चों के टीकाकरण
कार्यक्रमों में पिछड़ रही हैं।
दूसरा और स्पष्ट संकट आर्थिक संकट है। महामारी ने कपड़ा, एयरलाइन्स, पर्यटन और आतिथ्य उद्यमों जैसे रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। इस तालाबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा होगा। कई हज़ारों लाखों मज़दूरों, पथ-विक्रेताओं और दस्तकारों का रोज़गार छिन गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी का अनुमान है कि मार्च की शुरुआत में जो बेरोज़गारी दर 7 फीसदी थी वह अब 27 फीसदी से अधिक हो गई है। पश्चिमी युरोप के अमीर और बेहतर प्रबंधित देशों में बेरोज़गार लोगों को इस संकट से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय राहत प्रदान की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, हमारे गरीब और खराब ढंग प्रबंधित गणराज्य में राज्य द्वारा निराश्रित लोगों की थोड़ी ही सहायता की जाती है।
दूसरा और स्पष्ट संकट आर्थिक संकट है। महामारी ने कपड़ा, एयरलाइन्स, पर्यटन और आतिथ्य उद्यमों जैसे रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। इस तालाबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा होगा। कई हज़ारों लाखों मज़दूरों, पथ-विक्रेताओं और दस्तकारों का रोज़गार छिन गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी का अनुमान है कि मार्च की शुरुआत में जो बेरोज़गारी दर 7 फीसदी थी वह अब 27 फीसदी से अधिक हो गई है। पश्चिमी युरोप के अमीर और बेहतर प्रबंधित देशों में बेरोज़गार लोगों को इस संकट से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय राहत प्रदान की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, हमारे गरीब और खराब ढंग प्रबंधित गणराज्य में राज्य द्वारा निराश्रित लोगों की थोड़ी ही सहायता की जाती है।
हमारे सामने तीसरा सबसे बड़ा संकट
मानवीय संकट है। इस महामारी को परिभाषित करने वाली छवियाँ वे फोटो और वीडियो होंगे
जिनमें प्रवासी मज़दूर अपने पैतृक गांव या कस्बों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की
दूरी पैदल तय करते दिख रहे हैं। महामारी की गंभीरता को देखते हुए शायद एक अस्थायी
राष्ट्रव्यापी तालाबंदी तो अनिवार्य थी लेकिन इसकी योजना ज़्यादा अकलमंदी से बनाई
जानी थी। हालात की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि लाखों
भारतीय प्रवासी कामगार हैं, जो एक बेहतर ज़िंदगी के
लिए अपने परिवारों से दूर रहकर काम कर रहे हैं। पता नहीं यह तथ्य प्रधानमंत्री या
उनके सलाहकारों की नज़रों में क्यों नहीं आया। यदि देश के नागरिकों को ट्रेनों और
बसों की मौजूदा सुव्यवस्थित प्रणाली के साथ एक हफ्ते (न कि 4 घंटे) का समय दिया
जाता तो वे सुरक्षा और सहजता से अपने घर पहुँच जाते।
जैसा कि विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है,
तालाबंदी की उपयुक्त योजना बनाने में विफलता ने जन स्वास्थ्य संकट
को बढ़ाया है। बेरोज़गार श्रमिकों को मार्च के शुरू में ही अपने-अपने घर लौटने की
अनुमति दी जानी थी। उस समय वायरस के वाहकों की संख्या बहुत कम थी; लेकिन अब दो महीने के बाद केंद्र सरकार द्वारा ट्रेनों को दोबारा से शुरू
करने से हज़ारों वायरस-वाहक अपने गृह-ज़िलों में वायरस ले जाएँगे।
वास्तव में यह मानवीय संकट एक व्यापक
सामाजिक संकट का हिस्सा है ,जिसका देश आज सामना
कर रहा है। कोविड-19 से काफी पहले से ही भारतीय समाज वर्ग और जाति के आधार पर बंटा
ही था, धर्म को लेकर भी काफी पूर्वाग्रह से ग्रस्त था।
महामारी और इसके कुप्रबंधन ने इन विभाजनों को और बढ़ावा दिया है। पहले से ही आर्थिक
रूप से वंचित लोगों पर इन कष्टों का बोझ अनुपात से अधिक पड़ा है। इसी दौरान,
सत्तारूढ़ दल के सांसदों (और चिंताजनक रूप से वरिष्ठ सरकारी
अधिकारियों) द्वारा कोविड-19 मामलों का धार्मिक चित्रण करने से भारत के पहले से ही
कमज़ोर मुस्लिम अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। एक ओर तो मुसलमानों
पर दोषारोपण बेरोकटोक चलता रहा और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री चुप रहे। खाड़ी देशों
की तीखी आलोचना के बाद ही उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि यह वायरस किसी धर्म के
बीच फर्क नहीं करता। लेकिन उस समय तक सत्तारूढ़ दल और उसके ‘पालतू मीडिया’ द्वारा
फैलाया गया ज़हर आम भारतीयों की चेतना में गहराई से घर बना चुका था।
चौथा संकट
पहले के तीन संकटों की तरह स्पष्ट तो नहीं है फिर भी यह काफी गंभीर हो सकता है। यह
एक उभरता हुआ मनोवैज्ञानिक संकट है। बेरोज़गार और अपने घरों के लिए पैदल निकलने के
लिए मजबूर लोगों में शायद ही छोड़े गए शहरों में वापस जाने का हौसला पैदा हो पाए।
एक बड़ी चिंता स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव
की है, जिनका सामना आने वाले महीनों में उनको स्वयं करना है। आर्थिक असुरक्षा के
कारण वयस्कों में भी अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है। इसके
परिणाम स्वयं उनके लिए और उनके परिवार के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं। पाँचवाँ संकट
भारत के संघीय ढांचे का कमज़ोर होना है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के आधार पर केंद्र को
स्वयं में अत्यधिक शक्तियों को केंद्रित करने की अनुमति मिल गई है। कम से कम
महामारी के शुरुआती महीनों में, राज्यों को इतनी
ज़रूरी स्वायत्तता भी नहीं दी गई कि अपने स्थानीय संदर्भों के अनुकूल सर्वोत्तम
तरीकों से चुनौतियों से निपट सकें। केंद्र ऊपर से एक के बाद एक मनमाने और परस्पर
विरोधी निर्देश जारी करता रहा। इस बीच, केंद्र द्वारा
राज्यों को वित्तीय संसाधनों से वंचित रखा गया; यहाँ तक कि
उनके हिस्से के जीएसटी संग्रहण के उनके हिस्से का भुगतान भी नहीं किया गया।
छठा संकट,
जो पाँचवे संकट से जुड़ा है, भारतीय लोकतंत्र
का कमज़ोर होना है। इस महामारी की आड़ में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को
गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे निष्ठुर कानूनों के तहत हिरासत
में लिया जा रहा है। कई अध्यादेश पारित किए जा रहे हैं और संसद में चर्चा किए बिना
ही महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए जा रहे हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के
मालिकों पर सरकार की आलोचना न करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी बीच, राज्य और सत्तारूढ़ दल प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को चमकाने में लगे हैं।
आपात्काकाल के दौरान, एक अकेले देवकांत
बरुआ ने कहा था कि ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’; लेकिन
अब तो चाटुकारिता की होड़ लगी है।
भारतीय चिकित्सा तंत्र अत्यंत दबाव में
रहा है;
भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर स्थिति में है; भारतीय
समाज विभाजित और नाज़ुक है; भारत का संघीय ढाँचा पहले से कहीं
अधिक कमज़ोर है। भारतीय राज्य तेज़ी से सत्तावादी बन रहा है। इन सबका मिला-जुला
प्रभाव ही इसे देश के विभाजन के बाद का सबसे बड़ा संकट बना देता है।
एक देश के रूप में हम कैसे अपनी
अर्थव्यवस्था, समाज और राजतंत्र के लिए इस कठिन समय
में से बगैर किसी बड़े नुकसान के उबर सकते हैं? सबसे पहले तो,
सरकार को उन समस्याओं के विभिन्न (और परस्पर सम्बंधित) आयामों को
पहचानना होगा, जिनका सामना वर्तमान में हमारा राष्ट्र कर रहा
है। दूसरा, सरकार को 1947 में जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल द्वारा लिए गए फैसलों से कुछ सीख लेना चाहिए। उन्होंने उस
समय की चुनौतियों की गंभीरता को पहचानते हुए अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर बी.
आर. अंबेडकर जैसे भूतपूर्व विरोधियों को भी कैबिनेट में शामिल किया था। इस तरह की
एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तो अब संभव नहीं है; लेकिन
प्रधानमंत्री जानकार और समझदार विपक्षी नेताओं से सक्रिय परामर्श तो ले ही सकते
हैं। तीसरा, प्रधानमंत्री को बिना सोचे-विचारे लिये गए नाटकीय असर वाले आकस्मिक फैसले लेने की बजाय अर्थशास्त्र, विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का सम्मान करना चाहिए और उन
पर भरोसा करना सीखना चाहिए। चौथा, केंद्र और सत्तारूढ़ दल को
उन राज्यों को परेशान करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए जहाँ उनका
शासन नहीं है। पाँचवाँ, केंद्र को सिविल सेवाओं, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और जाँच एजेंसियों को
सत्ता का हथियार बनाने के बजाय पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।
यह हमारे अतीत और वर्तमान पर एक व्यक्ति की समझ पर
आधारित सुझावों की एक आंशिक सूची है। यह कोई साधारण संकट नहीं है, बल्कि शायद गणतंत्र के इतिहास की
सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने के लिए हमारे सारे संसाधनों और संवेदना की
आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)
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