भावना
सक्सैना की दो कविताएँ
1. जड़ें
आदमी की
जड़ें उग आती हैं घरों में...
उसे नहीं चाहिए
जानकारी देश दुनिया की
उसकी बादशाहत से बाहर
ताज़-ओ-तख़्त
सभी बेमानी हैं!
जड़ें उग आती हैं घरों में...
उसे नहीं चाहिए
जानकारी देश दुनिया की
उसकी बादशाहत से बाहर
ताज़-ओ-तख़्त
सभी बेमानी हैं!
वह हरदम सोचता है
दीवारों पर चढ़ रही सीलन की
कभी छत से उतरती
तो कभी ज़मीन से चढ़ती।
और छत पर धरी
पानी की टंकी के नीचे
उग आए पीपल की।
दीवारों पर चढ़ रही सीलन की
कभी छत से उतरती
तो कभी ज़मीन से चढ़ती।
और छत पर धरी
पानी की टंकी के नीचे
उग आए पीपल की।
उस पीपल को वह
उखाड़ फेंकना चाहता है
नहीं चाहता पीपल
जो अपनी जड़ें फैला
उस घर पर बना ले
एक मज़बूत पकड़
उखाड़ फेंकना चाहता है
नहीं चाहता पीपल
जो अपनी जड़ें फैला
उस घर पर बना ले
एक मज़बूत पकड़
उस पर रखना चाहता
है
वह कायम
अपना साम्राज्य
अपना आधिपत्य।
वह कायम
अपना साम्राज्य
अपना आधिपत्य।
उसे ख़ौफ़ नहीं है
समय का
जो रौंद देता है सब
उसने देखे हैं
समय की गर्त में
तिरोहित भग्नावशेष
समय का
जो रौंद देता है सब
उसने देखे हैं
समय की गर्त में
तिरोहित भग्नावशेष
फिर भी
आदमी स्वयं को
समझता है शाश्वत
कभी पीपल सा
तो कभी बरगद-सा
महसूसता है खुद को।
आदमी स्वयं को
समझता है शाश्वत
कभी पीपल सा
तो कभी बरगद-सा
महसूसता है खुद को।
और जानबूझकर
भूला रहता है कि
जड़ें, शाखाएँ और पुष्प
सभी रह जाएँगे
और
सबके रहते भी वह
उखड़ जाएगा एक रोज़।
भूला रहता है कि
जड़ें, शाखाएँ और पुष्प
सभी रह जाएँगे
और
सबके रहते भी वह
उखड़ जाएगा एक रोज़।
2.
शब्द
शब्द
अपने आप में
होते नहीं काबिज़,
सूखे बीजों की मानिंद
बस धारे रहते हैं सत्व...
अपने आप में
होते नहीं काबिज़,
सूखे बीजों की मानिंद
बस धारे रहते हैं सत्व...
उभरते पनपते हैं
अर्थों में
बन जाते हैं छाँवदार बरगद
या सुंदर कँटीले कैक्टस,
उड़ेला जाता है जब उनमें
तरल भावों का जल।
बन जाते हैं छाँवदार बरगद
या सुंदर कँटीले कैक्टस,
उड़ेला जाता है जब उनमें
तरल भावों का जल।
न काँटे होते हैं
शब्दों में
और ना ही होते हैं पंख
ग्राह्यता हो जो मन मृदा की
पड़कर उसके आँचल में
बींधने या अँकुआने लगते हैं।
और ना ही होते हैं पंख
ग्राह्यता हो जो मन मृदा की
पड़कर उसके आँचल में
बींधने या अँकुआने लगते हैं।
शब्द हास के
बन जाते हैं नश्तर, और
नेहभरे शब्द छनक जाते हैं
गर्म तवे पर गिरी बूंदों से
मृदा मन की हो जो विषाक्त।
बन जाते हैं नश्तर, और
नेहभरे शब्द छनक जाते हैं
गर्म तवे पर गिरी बूंदों से
मृदा मन की हो जो विषाक्त।
कहने-सुनने के बीच
पसरी
सूखी, सीली हवा का फासला
पहुँचाता है प्राणवायु
जिसमें हरहराने लगते हैं
शब्दों में बसे अर्थ।
सूखी, सीली हवा का फासला
पहुँचाता है प्राणवायु
जिसमें हरहराने लगते हैं
शब्दों में बसे अर्थ।
प्रेम की व्यंजना
में
बन जाते हैं पुष्प, तो
राग-विराग में गीत के स्वर
और वेदना में विगलित हो
रहते पीड़ादायक मौन।
बन जाते हैं पुष्प, तो
राग-विराग में गीत के स्वर
और वेदना में विगलित हो
रहते पीड़ादायक मौन।
शब्द प्रश्न भी
होते हैं
हो जाते हैं उत्तर भी
मुखर भी और मौन भी
गिरें मौन की खाई में
तो उकेरते हैं संभावनाएँ।
हो जाते हैं उत्तर भी
मुखर भी और मौन भी
गिरें मौन की खाई में
तो उकेरते हैं संभावनाएँ।
अनंत संभावनाओं को
भर झोली में, शब्द
विचरते हैं ब्रह्मांड में
खोजते हैं अपने होने के
मायने और अर्थ।
क्योंकि शब्द
अपने आप में कुछ नहीं होते।
भर झोली में, शब्द
विचरते हैं ब्रह्मांड में
खोजते हैं अपने होने के
मायने और अर्थ।
क्योंकि शब्द
अपने आप में कुछ नहीं होते।
1 comment:
Very nice poems, keep it up my dear
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