100वाँ
जन्मदिन मुबारक हो माझा
डॉ. जेन्नी शबनमम
जन्मदिन
मुबारक हो माझा! सौ साल की हो गई तुम, मेरी
माझा। गर्म चाय की दो प्याली लिये हुए इमा अपनी माझा को जन्मदिन की बधाई दे रहे
हैं। माझा कुछ नहीं कहती बस मुस्कुरा देती है। इमा-माझा का प्यार शब्दों का मोहताज़
कभी रहा ही नहीं। चाय धीरे-धीरे ठंडी हो रही है। माझा अपने कमरे में नज़्म लिख रही
है और इमा अपने कमरे में रंगों से स्त्री का चित्र बना रहे हैं; स्त्री के चेहरे से सूरज का तेज पिघल रहा है। बहुत धीमी आवाज़ आती है - इमा
इमा। इमा दौड़े आते हैं और पूछते हैं- तुमने चाय क्यों नहीं पी माझा? अच्छा अब उठो और चाय पियो, देखो ठंडी हो गई है। तुम्हें रोज़ रात को चाय
पीने की तलब होती है, मुझे मालूम है, तभी
तो रोज़ रात को एक बजे तुम्हारे लिए चाय बना लाता हूँ। इमा धीरे-धीरे दोनों प्याली
पी जाते हैं मानों एक प्याली माझा ने पी ली। फिर माझा को प्यार से सुलाकर अपने
कमरे में चले जाते हैं रंगों की दुनिया में जीवन बिखेरने।

इमरोज़ अमृता से
शिकायत करते हैं - ''अब तुम अपना ध्यान नहीं
रखती हो माझा। मैं तो हूँ नहीं वहाँ जो तुम्हारा ख्याल रखूँगा।'' माझा मुस्कुरा देती है, कहती है - एक आखिरी नज़्म सुन लो इमा, मेरी आखिरी नज़्म जो सिर्फ तुम्हारे लिए
-
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे
कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर
उतरुँगी
या तेरे केनवास
पर
एक रहस्यमयी
लकीर बन
ख़ामोश तुझे
देखती रहूँगी
कहाँ कैसे पता
नहीं
या सूरज की लौ
बन कर
तेरे रंगो में
घुलती रहूँगी
या रंगो की
बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ
जाऊँगी
पता नहीं कहाँ
किस तरह
पर तुझे ज़रुर
मिलूँगी...
बीच में ही टोक
देते हैं इमरोज़। आह! मैं जानता हूँ मेरी माझा, तुम
अपनी नज्मों में मुझे जीवित रखोगी और मैं अपने जीवन के पल-पल में तुम्हें सँभाले
रखूँगा। तुम गई ही कहाँ हो? जो मुझसे मिलोगी। तुम मेरे साथ
हो। हाँ, अब हौज़ ख़ास का वह मकान न रहा जहाँ हमारी सभी
निशानियाँ थीं, वक़्त ने वह छीन लिया मुझसे। तुम भी तो नहीं
थी उस वक़्त जो ऐसा होने से रोकती। पर यह मकान भी अच्छा है। तुम्हारी पसंद का सफ़ेद
रंग यहाँ भी है। परदे का रंग देखो, कैसे बदलता है, जैसा तुम्हारा मन चाहे उस रंग में परदे का रंग बदल दो। इस मकान में मैं
तुम्हें ले आया हूँ, और अपनी हर निशानी को भी अपने दिल में
बसा लाया हूँ। जानता हूँ तुम्हारी परवाह किसी को नहीं, अन्यथा
आज हम अपने उसी घर में रहते, जिसे हमने प्यार से सजाया था।
हर एक कोने में सिर्फ तुम थी माझा, फिर भी किसी ने मेरा दर्द
नहीं समझा। हमारा घर हमसे छिन गया माझा। अब तो ग्रेटर कैलाश के घर में भी कम ही
रहता हूँ, जहाँ बच्चे कहें, वहाँ ही
रहता हूँ। पर तुम तो मेरे साथ हो मेरी माझा। अमृता हँसते हुए कहती है - इमा,
मेरे पूरी नज़्म पढ़ लेना।
बहुत अफ़सोस होता
है,
इतनी कोशिशों के बाद भी
अमृता-इमरोज़ के प्रेम की निशानी का वह घर बच न सका। हर एक ईंट के गिराए जाने के
साथ-साथ टुकड़े-टुकड़े होकर अमृता-इमरोज़ का दिल भी टूटा होगा। किसी ने परवाह न की।
काश! आज वह घर होता तो वहाँ अमृता का 100 वाँ जन्मदिन मनाने
वालों की भीड़ होती। छत पर पक्षियों की टोली जिसे हर दिन शाम को इमरोज़ दाना पानी
देते हैं, की चहकन होती और अमृता के लिए मीठी धुन में
जन्मदिन का गीत गीत। घंटी बजने पर सफ़ेद कुर्ता पायजामा में इमरोज़ आते और
मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलते और गले लगकर हालचाल लेते। फिर खुद ही चाय बनाते और
हमें पिलाते। अमृता की ढेर सारी बातें करते। अमृता का कमरा जहाँ वह अब भी नज्में
लिखती हैं, दिखाते। इमरोज़ को घड़ी पसंद नहीं, इसलिए वक़्त को वे अपने हिसाब से देखते हैं। हाँ, वक़्त
ने नाइंसाफी की और अमृता को ले गया। काश! आज अमृता होती तो उनकी 100 वीं वर्षगाँठ पर इमरोज़ की लिखी नज़्म अमृता से
सुनती। बहुत-बहुत मुबारक हो जन्मदिन अमृता-इमरोज़!
(31. 8. 2019)
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