उजास में
- भावना
सक्सैना
ट्रेन लेट थी।
स्टेशन तक छोड़ने आया भाई ट्रेन में बिठाए बिना वापिस जाने को तैयार नहीं था… उसने बहुत कहा अब तुम
जाओ, तुम्हें
भी अपने घर लौटना है पर वह नहीं माना, वहीं बैठा रहा।
बहुत समय बाद
मिलने पर शब्दों में जो अंतराल पसर जाता है वही था दोनों के बीच। दोनों के पास
कहने को बहुत कुछ था, लेकिन
शब्दों का अपना मन होता है। कभी वे भावों की अभिव्यक्ति का साधन होते हैं तो कभी
भाव अधिक हों तो ऐसे शोर मचाने लगते हैं कि उन्हें शांत कर एक ओर बिठाना मुश्किल
हो जाता है, फिर
कभी अपने ही शोर से घबराकर सारे दुबक जाते हैं।
आज दिन भर भावों
और शब्दों की खींचातानी होती रही थी, और होती भी क्यों न? आज बरसों बाद बचपन के
बहुत सारे साथी मिले थे। वे सब जो संग खेला करते थे। गुड़ियों के साथी, घर-घर के खेल, गिट्टी, स्टापू, पोशमपा, गिट्टीफोड़, आइस-पाइस के साथी, बाल-कीर्तन मंडली बनाकर
गर्मियों की छुट्टियों में बारी-बारी सबके घर कीर्तन करने वाले और जन्माष्टमी पर
मिलकर झाँकी सजाने वाले साथी। स्मृतियों में अभी तक फ्रॉक और निक्करों में सजे
साथी। वास्तविकता में जो सब अब कुछ और ही हो चुके थे, लेकिन दिल जिनके अब भी
वही थे, सबकी
दुनिया अलग-अलग थीं, सब
मस्त थे अपनी-अपनी दुनिया में। वह भी तो मस्त ही थी अपनी दुनिया में। आसपास की सब
दुनिया, जो विलीन हो चुकी थीं
आज बरसों बाद एक निकट संबंधी के यहाँ से उत्सव के निमंत्रण से पुनः प्रकट हुई थीं, बहुत आग्रह और मनुहार
के उस निमंत्रण में कुछ चुम्बकीय आकर्षण था, कि वह, जो बरसों से अकेली नहीं
गई थी कहीं, आज
हिम्मत कर निर्णय लेकर अकेली चली आई थी इन सब के बीच, अपनी यादों के गाँव में, जहाँ मन तो अकसर जाया
करता था लेकिन जीवन की भागदौड़ के चलते प्रत्यक्ष जाना न हो पाया था। कल की ही तो
शाम थी, आज
कितनी पुरानी सी बात लग रही थी,
जब
वह कितने ऊहापोह में थी,
समझ
नहीं पा रही थी कि जाना चाहिए या नहीं, फिर जब दिल ही न माना और बोला - “चली
जा, ज्यादा
सोचना भी अच्छा नहीं होता”,
तो
रात को ही सुबह जाकर शाम को लौटने के लिए आरक्षण कराया और सुबह पाँच बजे उठकर चल
पड़ी। इस चलने को लौटना तो नहीं कह सकते थे, क्योंकि लौटा तो कहीं
जा ही नहीं सकता, जिस
राह से, जिस
वक्त से एक बार गुज़र गए वह मिटता जाता है, हर पल, हर क्षण। आधे रास्ते
में थी तो गाँव में रहने वाले रिश्ते के भाई ने पूछने को फोन किया था कि वह चली है
या नहीं और यह जानकर खुशी से उछल गया कि वह वास्तव में चल पड़ी है;
किंतु उसकी आवाज़ में हैरत भी थी, क्योंकि अनेक बार बुलाए
जाने पर भी आज पहली बार था कि वह सच में
जा रही थी। गाड़ी पहुँचने का समय पूछकर वह स्टेशन से लेने भी आ गया था और अब वापस
पहुँचाने भी।
अच्छा लगा इतने
अरसे बाद सबसे मिलकर। बरसों बाद जब किसी से मिलो तो शुरू-शुरू में कहने को कुछ
विशेष नहीं होता…. मुस्कुराहट
और गले लगने में ही भावों की अभिव्यक्ति होती है, फिर औपचारिक से प्रश्न
- आपकी नौकरी सही चल रही है?
और
सब ठीक है?… खुश
हैं? बच्चे
कैसे हैं, अपना
मकान बना लिया ना? ... हाँ
अपना ‘घर’ बना लिया कहते हुए वह
दो बार मुस्कुराई थी। तू खुद गाड़ी चला लेती है? ‘हाँ’ कहते-कहते गरदन सीधी सी
हो गई थी। अपने ऊपर इतराने को जी चाहा था।
कितने अर्से बाद
मिले... पहले क्यों नहीं आई इधर?....
संकोच
के आप से शुरु हुई बात जब वापिस तू पर आती है, तभी आती है सहजता और
शुरू होता है हँसने खिलखिलाने का दौर। इसी दौर में दिन यूँ गुज़रा जैसे चेहरे पर
डाला कोई रेशमी रुमाल पल भर में सरक गया हो... रंग-बिरंगा नरम मुलायम, गुदगुदाता हुआ।
पुराने किस्से, शरारतें, पतंग लूटने में बुआ की
आँख पर लगी चोट, जूठी
पत्तलों को चाटते कुत्ते को भगाने पर एक भाई को उसका काट लेना। कंचों से हंडिया भर
लेना, और
कितनी ही स्मृतियाँ और स्मृतियों के घर की बातें। वहाँ के पास-पड़ोस के चाचा-चाची, बाबा-दादी, अम्मा के घर में
समय-समय पर रहने वाले किराएदार,
रामौतार(राम
अवतार) चाचा और बहुत कुछ। कितनी ही बातें होती रहीं। स्मृतियों का वह घर है भी
बहुत बड़ा, वह
गली बहुत चौड़ी है, नीम
बहुत सुंदर है और वह तिराहा जिस का नाम होली पड़ गया .. वहाँ वर्ष में एक बार होली
जलती थी और बाकी दिन सबके खेल का मैदान। बाज़ीगरों के तमाशे का स्थल, आज भी वह सारे खेल उसे बहुत याद आते हैं... जीवन का
अभिन्न हिस्सा हैं वे यादें। यूँ लगा कितना कुछ घट गया एक दिन में, बचपन का सारा जीवन फिर
जी लिया उसने।
साथ-साथ बैठे दो
लोग अपनी-अपनी यादों में खोए... भाई बहुत छोटा था उससे, उसका बहुत दुलारा था, इस भाई के लिए सबसे लड़
जाती थी वह, आज
रेलवे स्टेशन के छोटे से शैड की बेंच पर बैठे दोनों अपनी-अपनी भावनाओं के ज्वार में
बह रहे थे। उसने हौले से भाई के हाथ पर हाथ रख दिया था, दोनों एक दूसरे को
देखकर मुस्कुराए, लेकिन
बहुत फीकी थी दोनों की मुस्कान मानों वक्त में न लौट पाने का मलाल हो उसमें। भाई
का चेहरा खाली बटुए-सा निस्तेज लगा था। उसे और उसकी आँख में पड़ी उसकी खुद की छवि भी, जैसे कि अचानक यह एहसास
हुआ हो कि कितनी
उम्र खर्च कर दी यूँ ही,
ऐसे
ही उम्र खर्च करते एक दिन बीत जाएँगे सब। बेचैन-सा
एहसास था; लेकिन उस
पल भी उसे यह नहीं लगा कि यदि वह अतीत को बदल भी पाती तो उसे किसी और तरीके से
जीती।
इन्हीं ख्यालों
में खोई थी कि ट्रेन आती दिखाई दी। सामान के नाम पर एक
छोटा सा हैंडबैग था ,जो कंधे पर ही लटका हुआ
था सो सामान सहेजने का उपक्रम करने जैसा भी कुछ था नहीं। भाई
ने पैर छूकर विदा ली। उस
छोटे से स्टेशन पर ट्रेन के रुकने का समय भी तीन मिनट ही था ;
इसलिए वह जल्दी से ट्रेन में चढ़ गई। सीट पर पहुँची तब भी भाई
प्लेटफॉर्म पर खड़ा था। नज़रें फिर मिलीं, नज़रों की अपनी भाषा
होती है, जिसे
शब्दों का सहारा नहीं चाहिए होता। जब तक ट्रेन न चली मौन संवाद बना रहा, जैसे ही गाड़ी चली, एक उदास मुस्कान चेहरे
पर फैल गई, “पहुँच
कर फोन कर देना”, उसने
गरदन हिला दी, गाड़ी
आगे सरकने लगी। प्लेटफॉर्म खत्म हुआ और पीछे छूट गया। उदास मुस्कान चेहरे पर चिपकी
रही… कच्ची
बस्ती से गुज़रकर ट्रेन गाँव की सीमा से बाहर आ गई।
साँझ घिर
रही है, शहर
से बाहर सरकती ट्रेन की खिड़की से सुंदर दृश्य दिखाई दे रहा है। लालिमा लिये पीछे फैले आसमान के आगे बहुत सारे पत्र-विहीन पेड़ों की कतारें हैं–ऊपर बाहें फैलाए, मानों उनकी एक-एक पत्र
विहीन शाखा आसमान छूने की होड़ में हों।
आसमान का रंग गहराता जा रहा था, पेड़ सायों में बदलते जा रहे थे। ट्रेन
चलती जा रही थी, दृश्य
बदलते जा रहे थे, सामने के चित्र में भी और
मस्तिष्क में भी। उसे लगा उजाला बहुत जल्दी सिमट गया अँधेरे के आगोश में, वैसे भी बित्ते भर का
फ़ासला होता है अंधेरे और उजाले में।
अँधेरे
में दिखाई नहीं देता,
उजाला ज्यादा हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं और तब भी कुछ दिखाई नहीं देता। उसकी आँखें भी तो यूँ ही चुँधियाई थीं एक रोज़ उजाले से, कि दिखाई न दिया कुछ, उस उजाले को दामन में
भरकर वह आगे निकल आई, पीछे
का सब छोड़ दिया…
… छोड़ दिए वे रिश्ते जो हर लम्हा शक में घिरे थे, खुले-खिले बचपन के बाद
शहर आकर जो मिले थे, जो
हर लम्हा उसे कमतर होने का एहसास कराते थे, कभी छोटी आँखों का कभी
चौड़ी नाक का, कभी
मुँह टेढ़ा करके अंग्रेजी न बोल पाने का। उसने कभी खुद को सुंदर नहीं समझा ,पर वह जानती थी वह बदसूरत नहीं है। अच्छा दिखने की कोशिश हमेशा की, लेकिन किशोरावस्था में
बैठे इंफेरिओरिटी कॉम्प्लेक्स से कभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाई। उसने दुनिया को
हमेशा सुंदर देखा... ऐसा
नहीं है कि सब अच्छा है ; लेकिन फिर भी उसे सदा एक
सकारात्मक ऊर्जा का एहसास रहा है। कभी चिड़िया, कभी तितली, ढलती साँझ, मुस्कुराते चेहरे, उसे सभी अच्छे दिखते थे, अच्छे लगते थे। वह
उन्हें उनके रूप में देखना चाहती थी, वह दुनिया को सहज जीना चाहती थी, हर पल को छोटी -छोटी खुशियों से भरना चाहती थी, और इसीलिए, मुट्ठियों में
आत्मविश्वास की किरणें और दामन में उजास भर आगे चली आई थी। निर्णय आसान नहीं था, किन्तु दुविधा का दौर लम्बा न चला, और यह निर्णय लेने में शायद ईश्वर के भेजे एक शख्स के शब्द एक अहम भूमिका निभा
गए। ईश्वर का भेजा इसलिए कि जाने कहाँ से आया जाने कहाँ गया! कभी -कभी यूँ ही मोड़ पर टकरा जाते हैं
कुछ लोग ,जिनका जिंदगी में कोई महत्त्व
नहीं होता; लेकिन
फिर भी वे सदा के लिए जीवन बदल जाते हैं। वह ऐसा ही था। बड़े सपाट शब्दों में कह गया था कि
यदि आर्थिक और भावनात्मक दोनों ही रूप से वह किसी पर निर्भर नहीं है ,तो उसे बहुत नहीं सोचना चाहिए, बात उसके ज़ेहन में घर कर गई थी और सब सोच-विचार कर जल्दी ही उसने सब छोड़ दिया… बढ़ आई आगे, कभी न मुड़ने के लिए।
हाँ उसने सोचा
था उसने सब छोड़ दिया, लेकिन
छोड़ना आसान है क्या?
यूँ देखा जाए तो
छोड़ना तो आसान है; लेकिन छूट भी जाए ये
मुश्किल है, सच
यह है कि छूटा कुछ भी नहीं करता। जब तक साँस आती है, कहीं भी, कभी भी घटा हुआ घटता
नहीं है, स्मृतियों
में जीवित रहता है और कभी-कभी अपने मूल स्वरूप से
भी बड़ा हो जाता है,
वह चिपक जाता है। खाल की
तरह चढ़ जाता है, एक
परत बन जाता है।
छोड़ने वाला और
छूटने वाला दोनों ही अपनी-अपनी दुनिया बना लेते हैं… अलग! जिसमें वर्तमान
में वे एक दूसरे को जगह दें न दें,
एक
बड़ा हिस्सा एक दूसरे को समर्पित रहता है। न बातें, न मिलना बस ज़ेहन में एक याद,
एक
बात। इन बातों के सूत्र जोड़ने वाले भी होते हैं, दोनों पक्षों के
शुभचिंतक, सहृदय, दिल के भोले, प्यारे से, लेकिन थोड़े से कायर।
उनमें इतना साहस नहीं होता कि वे सामंजस्य बिठाने
की कोई चेष्टा कर पाएँ । दोनों पक्षों से मुहब्बत उनकी कमज़ोरी होती है। ये बीच के
सारे लोग उसकी कमज़ोरी हैं,
एक
ऐसा गीत हैं जिसे वह खुलकर गुनगुना भी नहीं सकती और न ही भुला सकती है। इसलिए आज
वह उनके साथ कोई फोटो नहीं खिंचवाकर आई, उनके भोले विश्वास और
निश्छल स्नेह को अपने दामन में भर लाई है, अपने मन में सँजो लाई है।
ट्रेन झटके से
रुकी, तो एहसास हुआ नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँच चुकी है। चार घंटे कब गुज़र गए, पता भी न चला... सब अपना सामान समेटकर उठ रहे हैं, ऊपर की शेल्फ और सीट
के नीचे नज़र मार रहे हैं कि कहीं कुछ छूटा तो नहीं, उसने धीमे से अपने ऊपर चढ़ा खोल
उतारा और सीट के नीचे सरका दिया। वह हैरान थी, खोल सहजता से उतर आया और सीट के
नीचे जाने से पहले ही गुम हो गया। दिनभर की थकान भी उसके संग उतर गई और वह नई
स्फूर्ति से भर उठी। आने वाली कॉल से मोबाइल की स्क्रीन दिपदिपा उठी।
स्टेशन
के बाहर उसका वही उजाला उसकी प्रतीक्षा में था, जिसे
दामन में भरकर वह सब कुछ पीछे छोड़ आई थी। वह जल्दी से ट्रेन से उतर प्लेटफॉर्म लाँघती चली गई। बाहर आते ही कार सामने खड़ी मिली। कार के भीतर पड़ती मद्धम स्ट्रीटलाइट में उसकी दमकती मुस्कान देख मन पुनः खिल उठा, गुनगुने नर्म उजास ने
भीतर तक ऊर्जान्वित कर दिया। देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, फिर उसके ‘चलें’ कहने पर वह ‘हम्म्’ कहकर पीछे पीठ टिकाकर
बैठ गई, सीटबेल्ट
बाँधते समय उसे लगा कि जिस तरह सड़क पर दौड़ती गाड़ियों में से हम हर एक में नहीं
हो सकते,
हमें किसी एक में ही होना होता है, वैसे ही जिंदगी के
खाँचों में हम अपने को किसी एक ही में फिट कर पाते हैं और जब हम एक में फिट हो
जाते हैं ,तो बाकी सब में सही नहीं बैठ पाते।
उसका खाँचा यही है…
इस
उजास के पुरसुकून वह सोचती रही, जिंदगी कभी पूरी नहीं मिलती कुछ ना कुछ छोड़ना ही
पड़ता है। उसे अपने मन से जीने की कीमत होती है, उसका मोल चुकाना पड़ता है।
यह मोल चुकाने की हिम्मत सब में नहीं होती। कोई उसका मोल न देकर जिंदगी भर उदासी
को ओढ़ लेता है तो कोई उसका मोल कुछ अनमोल देकर चुकाता है, उसने हिम्मत की थी, मोल चुकाया था और सुकून
में थी कि उसने जो चुना उसे दिल से अपना सकी। इंसान को ज़रूरत भी तो यही है कि जो
भी चुनो उसे पूरे दिल से अपना लो... तभी ज़िंदगी है।
फोन – 9560719353
1 comment:
बहुत सुंदर ब्लॉग ।।
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