अच्छी फसल की कामना
और मित्रता का पर्व
छत्तीसगढ़ के
पर्व त्योहारों में भोजली एक और कृषि पर्व है। श्रावण शुक्ल पंचमी से लेकर
पूर्णिमा तक यह पर्व मनाया जाता है। सावन में नागपंचमी के दिन भोजली बोया जाता है।
नवरात्र के अवसर पर जिस तरह से ज्वार (जवारा) बोने का रिवाज है,
उसी तरह श्रावण माह में नागपंचमी के दिन भोजली बोया जाता है ज्वार
को पुरुषों द्वारा जबकि भोजली महिलाओं द्वारा बोया जाता है और सेवा भी महिलाओं
द्वारा ही की जाती है।
सुहागिन महिलाएँ
व कुँआरी कन्या बाँस की छोटी- बड़ी टोकनी में मिट्टी भर कर धान, जौं, उड़द मिलाकर बोती हैं। पूर्व में इसके लिए अखाड़े से मिट्टी लाकर बोया जाता था। इसके बाद इन टोकरियों को छायेदार
स्थान में रखा जाता है। इसमें प्रतिदिन
हल्दी पानी का छिड़काव करते हैं तथा विसर्जन तक रोज पूजा करते हैं। महिलाएँ
प्रतिदिन भोजली गीत गाकर भोजली की सेवा करती हैं। भोजली का विसर्जन पूर्णिमा या
उसके दूसरे दिन किया जाता है। लड़कियाँ और महिलाएँ सिर पर भोजली लेकर सरोने
(विसर्जन) के लिए लोकगीत गाते हुए निकलती हैं।
देवी गंगा
देवी गंगा लहर
तुरंगा
हमरो भोजली दाई
के
भीजे आठो अंगा।
माड़ी भर जोंधरी
पोरिस भर
कुसियारे
जल्दी जल्दी
बाढ़व भोजली
हो वौ हुसियारे।
गीत में कहा जा रहा है कि भोजली अंकुरित होकर मिट्टी से बाहर आ गई है ,पर उसके बढ़ने की गति कम है। अतः इससे अनुरोध करते हुए कहा जा रहा है कि भुट्टा (जोंधरा) घुटने से ऊँचा हो गया और
गन्ना (कुसियार) तो बहुत तेजी से बढ़ रहा है, सिर से ऊँचा हो गया है। तो हे भोजली
जल्दी जल्दी बढ़ो और गन्ने के बराबर हो जाओ। इस तरह भोजली गीतों की लम्बी शृंखला है।
सावन की
पूर्णिमा तक इनमें 4 से 6 इंच तक के पौधे निकल आते हैं। रक्षाबंधन की पूजा में इसको भी पूजा जाता
है और धान के कुछ हरे पौधे भाई को दिए जाते हैं या उसके कान में लगाए जाते हैं।
भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है और विसर्जित करते समय अच्छी फ़सल की कामना की
जाती है। बहन और बेटियाँ भोजली की टोकनी अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए एक के
पीछे एक चलती हुई बाजे-गाजे के साथ भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब
की ओर प्रस्थान करती हैं।
भोजली ठंडा करते
समय इसे पूरे गाँव में घुमाया जाता है । जब
गाँव के घरों के सामने से गुजरते हैं, तो गाँव की अन्य
महिलाएँ भी भोजली की पूजा करती हैं। तालाब पहुँचकर भोजली की टोकरियाँ घाट में रखकर
फिर भोजली की पूजा की जाती है। भोजली की सेवा करते- करते उससे इतना लगाव हो जाता
है कि सेवा करने वाली महिलाएँ आँखो में आँसू भरकर उसकी बिदाई करती हैं।
भोजली सेराबो
हो,
भोजली सेराबो,
सिया राम के
सँगे सँग तोला परघाबो,
अहो देवी गंगा ।
भोजली के पर्व
को धान- बोनी के पर्व के रूप में भी देखा जाता है । खेत में धान बोने से पहले यहाँ
का किसान छोटी छोटी टोकनी में विभिन्न किस्म के धान को अलग अलग टोकनी में बोता है ,
उसकी देखभाल करता है । इससे उन्हें यह अनुमान लगाने में आसानी हो
जाती है कि किस धान की फसल कैसी होगी ।
भोजली को
अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मध्यप्रदेश, ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों
में में इसे ‘भोजलिया’ कहते हैं। कहीं
पर ‘कजरी’ कहते हैं ,तो कहीं 'फुलरिया`, 'धुधिया`,
'धैंगा` और 'जवारा`
(मालवा)। इसे गढ़वाल में भी
मनाते हैं, पर वह सावन में ही खत्मम हो
जाता है। वहाँ पर इसे भाइयों के लिए बहने बोती हैं।
छत्तीसगढ़
में भोजली का एक और महत्त्व है यहाँ यह इसे मितान (मित्रता) के प्रतीक के रुप में भी मनाया जाता
है। महिलाएँ भोजली विसर्जन के बाद थोड़ी सी भोजली अलग रख लेती हैं और वे एक दूसरे
को भोजली देकर या उसके कान के पीछे डालकर मितानिन बदती (दोस्त बनाती) हैं। इस तरह
उनकी दोस्ती का रिश्ता और मज़बूत हो जाता है जिसे वे जीवन भर निभाती हैं। भोजली
बदने के बाद का यह रिश्ता इतना मजबूत होता है कि छत्तीसगढ़ में इसे खून के रिश्तों
से भी बढ़कर माना जाता है,
इतना कि तीन पीढ़ियों के बाद भी दोस्ती का यह रिश्ता प्रगाढ़
बना रहता है। जिस प्रकार जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे
पारिवारिक कार्यक्रम में अपने रिश्तेदारों और परिचितों को आमंत्रित किया जाता है
उसी तरह भोजली बदने के बाद मित्र और उसके परिवार को भी आमंत्रित किया जाता है। (उदंती फीचर्स)
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