संतान सुख की कामना का व्रत
हलषष्ठी का यह
पर्व माताओँ द्वारा संतान प्राप्ति तथा संतान की दीर्घायु एवं उनकी सुख समृद्धि के
लिए किया जानेवाला एक ऐसा पर्व है जिसे इस राज्य के हर वर्ग हर जाति की माताएँ
करती हैं।
छत्तीसगढ़ में
हलषष्ठी को हलछठ, कमरछठ या खमरछठ भी कहा
जाता है। यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। इस
व्रत में विशेष प्रकार की पूजन सामग्री का उपयोग किया जाता है। लाल चावल जिसे पचहर
चाँउर कहते हैं (बिना हल जुते हुए जमीन से उगा हुआ धान का
चावल), महुआ के पत्ते, धान की लाई,
भैस का दूध-दही व घी। इस व्रत-पूजन में छह की
संख्या का अधिक महत्त्व है। जैसे- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष
का छठा दिन, छह प्रकार की भाजी,
छह प्रकार के खिलौने, छह प्रकार के अन्नवाला
प्रसाद जिसमें धान की लाई, भुना हुआ महुआ तथा चना, गेहूँ, अरहर
आदि छह प्रकार के अन्न होते हैं को मिलाकर प्रसाद के रुप में बाँटा जाता है।
व्रत वाले दिन
दोपहर के बाद घर के आँगन में, मंदिर-देवालय या
गाँव के चौपाल आदि में बनावटी तालाब (सगरी) बनाते हैं तथा उसके चारो ओर बेर,
पलाश, गूलर आदि पेड़ों की टहनियों के साथ काशी
के फूलों से सजाते हैं। नए कपड़े से रंग-बिरंगे झंडे बनाकर
लगाते हैं। सामने एक चौकी या पाटे पर गौरी-गणेश और कलश रखकर हलषष्ठी देवी की पूजा
करते हैं। पूजा में साड़ी तथा सुहाग की सामग्री भी चढ़ाते हैं। अधिकांशतः यह पूजा
महिलाएँ समूह में करती हैं। गाँव में तो एक जगह सगरी बनाकर गाँव की सभी व्रत रखने
वाली महिलाएँ एक साथ पूजा करती हैं। पूजा के बाद हलषष्ठी माता की छह कथा कहने का
विधान है, जिसे पूजा करने वाली सभी महिलाएँ पूजा वाली जगह पर
बैठकर सुनाती हैं। कई जगह पंडित बुलाकर भी पूजा करवाया जाता है और वही कथा भी
सुनाते हैं।
चूँकि यह व्रत बच्चों के लिए है, अतः सगरी के आस-पास
बच्चों के खिलौनों जैसे- भौंरा, बाटी गेड़ी आदि भी रखा जाता
है। बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में गेड़ी (हरेली त्योहार के दिन बच्चों के चढ़ने के
लिए बनाया जाता है) को भी सगरी में रखकर पूजा करते हैं। पूजन के बाद माताएँ अपनी
संतान का पीठ में पोता (नए कपड़ों का टुकड़ा - जिसे हल्दी पानी से भिगाया जाता है)
मारकर अपने आँचल से पोछती हैं जो कि माता के द्वारा दिया गया रक्षा कवच का प्रतीक
होता है।
इस
पर्व की खास बात यह भी है कि व्रती महिलाएँ पचहर चावल खा कर ही अपना व्रत तोड़ती
हैं। साथ में भैंस का दूध दही व घी लेती हैं। पचहर चावल के साथ छह प्रकार की भाजी
(साग) भी बनाती हैं, जिसमें कुम्हड़ा, मुनगा (सहजन), सेमी, तोरई आदि सब्जियों की
भाजी, सेन्धा नमक तथा हरी मिर्च शामिल होती हैं। खाने के लिए थाली नहीं बल्कि महुआ
पेड़ के पत्ते का दोना- पत्तल का ही उपयोग किया जाता है।
इस व्रत के बारे
में पौराणिक कथा यह है कि वसुदेव-देवकी के 6 बेटों को एक-एक कर कंस ने कारागार में
मार डाला। जब सातवें बच्चे के जन्म का समय नजदीक आया तो देवर्षि नारद जी ने देवकी
को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दी थी। देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया
जिसके प्रभाव से उनके आने वाले संतान की रक्षा हुई। सातवीं संतान का जन्म समय जानकर भगवान् श्री कृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया कि माता
देवकी के इस गर्भस्थ शिशु को खींचकर वसुदेव की बड़ी रानी रोहिणी के गर्भ में
पहुँचा देना, जो कि इस समय गोकुल में नंद-यशोदा के यहाँ रह
रही है तथा तुम स्वयं माता यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। योगमाया ने भगवान् के आदेश का पालन किया जिससे देवकी के गर्भ से
संकर्षण होकर रोहणी के गर्भ से संतान के रूप में बलराम का जन्म हुआ। उसके बाद
देवकी की आठवीं संतान के रूप में साक्षात भगवान् श्री कृष्ण प्रकट हुए। इस तरह हलषष्ठी देवी के
व्रत-पूजन से देवकी के दोनों संतानों की रक्षा हुई।
हलषष्ठी का पर्व भगवान् कृष्ण व भैया बलराम से सम्बन्धित है। हल कृषि कार्य एक एक औजार है जो बलरामजी का प्रमुख हथियार भी है। बलदाऊ भैया कृषि कर्म को महत्त्व देते थे, वहीं भगवान् कृष्ण गौ पालन को। इसलिए इस व्रत में हल से जुते हुए जगहों का कोई भी अन्न आदि व गौ माता के दूध, दही, घी आदि का उपयोग वर्जित है। इस दिन उपवास रखनेवाली माताएँ हल चलने वाली जगहों पर भी नहीं जाती हैं। (उदंती फीचर्स)
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