भादो के अमावस्या में पोला तिहार मनाए जाने के
बाद भादो के शुल्क पक्ष तृतीया को हरतालिका का लोकपर्व मनाया जाता है जिसे
छत्तीसगढ़ में तीजा कहते हैं। पोला के दिन भाई अपनी बहनों को लाने जाते हैं।
पूरे देश में
मनाए जाने वाले व्रत पर्व में छत्तीसगढ़ का यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें
सुहागिनें मायके जाकर यह निर्जला व्रत रखती है। प्रतिवर्ष बेटियों और बहनों को
ससुराल जाकर लिवाने की यह परम्परा भी अपने आप में एक उदाहरण हैं। बदलते सामाजिक
परिवेश के बाद भी यह परम्परा आज भी छत्तीसगढ़ में कायम है, जो इस बात को इंगित
करता है कि विवाह के बाद बेटियों का रिश्ता मायके से मजबूती से बंधा होता है और
जहाँ बेटियों को विदा करने के बाद पराये धन
की तरह भूला नहीं दिया जाता, बल्कि जीवन भर माँ के घर में
उसका सम्मानजनक स्थान है बना रहता है। समय बदल गया है बेटियाँ छत्तीसगढ़ से बाहर
भी चली गईं हैं ; परंतु तीजा का यह लोक रूप उसी रूप में आज
तक कायम है। किसी कारण से यदि बेटी इस समय मायके नहीं आ पाती, तब भी मायके वाले
अपनी बेटी, बहन को लेने जाने की रस्म अवश्य निभाते हैं।
शुक्ल पक्ष की
तृतीया तिथि को देवी पार्वती ने महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर
तप किया था, उनकी मनोकामना पूर्ण होने के प्रतीक
स्वरूप तीजा का यह पर्व मनाया जाता है।
व्रत के दूसरे दिन अर्थात् चतुर्थी को गणनायक गणेश जी के जन्मोत्सव का पर्व
मनाया जाता है. तीजहारिन महिलाएँ गणेश चतुर्थी के दिन ही अपना व्रत तोड़ती हैं।
सुहागिन
स्त्रियाँ एक ओर जहाँ यह व्रत अपने सुहाग की दीर्घायु की कामना में करती हैं वही कुँआरी लड़कियाँ अच्छे वर की चाह में। यही नहीं पति की मृत्यु के बाद भी
महिलाएँ इस व्रत को जारी रखती हैं। क्योंकि जिनके लिए उन्होंने इतने बरसों तक व्रत
रखा वही हर जन्म में उनका सुहाग बने यही कामना करते हुए वे मृत्यु पर्यन्त उनके
नाम का व्रत रखती हैं।
विवाह के बाद का
पहला तीजा बेटियों के लिए खास मायने रखता है। अपने पति के लिए पहला व्रत रखने वाली
बेटी के लिए मायके में विशेष तैयारी की जाती है। माता पिता अपनी हैसियत के अनुसार
बेटी को नई साड़ी, जेवर तथा शृंगार का पूरा सामान
देते हैं। मायके में सात प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। ये सात पकवान छत्तीसगढ़
के विशिष्ठ पारंपरिक व्यंजन होते हैं जिनमें- गुझिया, पपची, ठेठरी- खुर्मी, खाजा,
अनर्सा, देहरौरी आदि शामिल होती हैं। सात प्रकार के इन सभी व्यंजनों की सात टोकरी
बनाई जाती है, जिन्हें सात सुहागिनों को आलता, बिंदी, सिंदुर और कपड़ों के साथ
भेंट स्वरूप बेटी के हाथों दिलवाया जाता है। उपवास के दूसरे दिन उन सात सुहागिनों
को भोजन कराया जाता है।
तीन दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व में पहले
दिन ‘करू भात’ खाने की परम्परा है। यानी करेले की सब्जी
इस दिन के भोजन में आवश्यक होता है।भरवा मसाले वाली करेले की सब्जी के साथ चावल खा
कर ही दूसरे दिन निर्जला व्रत रखा जाता है। इस दिन अपने रिश्तेदारों व पारिवारिक
मित्रों को रात के भोजन के लिए बुलाया जाता है। इस तरह सब एक दूसरे के घर जा- जाकर
करु भात खाती हैं। करू भात खाने के पीछे भी स्वास्थ्य- जनित
कारण नज़र आता है। करेले को पेट के लिए बहुत अच्छा, पाचक और
बीमारियों को मुक्त करने वाला माना जाता है अतः निर्जला व्रत के पहले दिन इसे खाने
का कारण इसका पित्त नाशक होना साथ ही पेट में गैस बनने से रोकना माना जाता है। तभी
तो बिना किसी तकलीफ से महिलाएँ दूसरे दिन यह निर्जलाव्रत रख पाती हैं।
दूसरे
दिन प्रातः नीम की लकड़ी से दाँत साफ कर
स्नान कर पूजा की तैयारी करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर
फूलों से फुलेरा तैयार करती हैं। फुलेरा के बीच में लकड़ी का पट्टा रखकर बालू से शिवलिंग स्थापित करती है। पार्वती जी को सुहाग का पूरा
सामान साड़ी, चूड़ी, बिंदी, सिंदूर आदि चढ़ाए जाते हैं। मान्यता और विश्वास
के चलते व्रत करने वाली महिलाएँ रात्रि जागरण करती हैं, इसलिए भजन- कीर्तन करते
हुए रात बिताती हैं। हाथों में मेहँदी
पैरो में आलता लगाती हैं। व्रत वाले दिन शंकर भगवान् की तीन बार पूजा- आरती करती हैं और शिव पार्वती
के विवाह की कथा सुनती और सुनाती हैं। तीज की कथाओं में इस बात का उल्लेख होता है
कि इस व्रत को करने से सुहागिन स्त्रियों को शिव पार्वती अखंड सौभाग्य का वरदान
देते हैं, वहीं कुँवारी लड़कियों को
मनचाहे वर की प्राप्ति होती है।
इसके साथ- साथ
फलाहार की तैयारी भी आज ही करती हैं। पूड़ी, सब्जी और दाल चावल तो बनता ही है साथ
ही सिंघाड़ा और और तिखूर का कतरा बनता है, जिसे दिन भर उपवास रखने वाली महिलाओं के
पेट के लिए पाचक माना जाता है।
तीसरे
दिन प्रातः स्नान कर मायके से मिली साड़ी पहन
और सोलह शृंगार कर पूजा करती हैं। सभी महिलाएँ एकत्र होकर बालू के शिवलिंग, फुलेरी आदि को नदी या तालाब में जाकर ठंड़ा करती हैं। सुहाग का सामान
सुहागिन स्त्री को दान करने के साथ वस्त्र, दाल-चावल, सब्जी-
फल, मिष्ठान्न आदि पंडित को भी दान करती हैं. तदुपरांत पूरा परिवार एक साथ बैठकर पूर्व रात्रि बनाए गए पकवान से व्रत
तोड़ती हैं। जिस प्रकार पारिवारिक मित्र महिलाएँ पहले दिन एक दूसरे के घर जाकर ‘करू भात’ खाने जाती हैं उसी तरह तीसरे दिन भी वे सब
एक दूसरे के घर फलाहार के लिए जाती हैं।
इस प्रकार तीन
दिनों का यह उत्सव समाप्त होता है। बेटियाँ प्रतिवर्ष इस पर्व का बेसब्री से
इंतजार इसीलिए करती हैं क्योंकि यही एक अवसर होता है जब में अपने मायके में अधिक
समय तक भाई बहनों और माता- पिता के साथ समय व्यतीत कर पाती हैं। बेटियों को मायके
से विभिन्न प्रकार के उपहार, साड़ी और मिठाई आदि देकर विदा किया जाता है और वे अगले
तीजा में वापिस मायके आने का सोचती हुई ससुराल चली जाती हैं।
हरतालिका तीज
व्रत कथा -पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव जी ने माता पार्वती को इस व्रत के बारे
में विस्तार पूर्वक बताया था। शिव भगवान् ने इस कथा में माँ पार्वती को उनका पिछला
जन्म याद दिलाया था-
'हे गौरा,
पिछले जन्म में तुमने मुझे पाने के लिए बहुत छोटी उम्र में कठोर तप
और घोर तपस्या की थी। तुमने ना तो कुछ खाया और ना ही पीया बस हवा और सूखे पत्ते
चबाए। जला देने वाली गर्मी हो या कंपा देने वाली ठंड तुम नहीं हटीं। डटी रहीं।
बारिश में भी तुमने जल नहीं पिया। तुम्हें इस हालत में देखकर तुम्हारे पिता दु:खी
थे। उनको दु:खी देखकर नारदमुनि आए और कहा कि मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ
आया हूँ। वह आपकी कन्या की से विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय
जानना चाहता हूँ।
नारदजी की बात
सुनकर आपके पिता बोले अगर भगवान् विष्णु
यह चाहते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं।
परन्तु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला , तो तुम
दुःखी हो गईं। तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछा तो तुमने कहा कि
मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे
पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ।
अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।
तुम्हारी सखी
बहुत ही समझदार थी। उसने कहा-प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है?
संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए। भारतीय नारी के जीवन की
सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवन पर्यन्त उसी से निर्वाह करें। मैं तुम्हें घनघोर वन में ले चलती हूँ, जो साधना स्थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी नहीं पाएँगे।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे...
तुमने ऐसा ही
किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। इधर
तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी
आराधना में लीन रहने लगीं। तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। तुम्हारी इस
कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा
और तुमसे वर माँगने को कहा ,तब अपनी तपस्या के
फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा, ' मैं आपको सच्चे मन
से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर
यहाँ पधारे हैं ,तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार
कर लीजिए। तब 'तथास्तु' कहकर मैं कैलाश
पर्वत पर लौट गया।
उसी समय गिरिराज
अपने बंधु-बांधवों के साथ तुम्हें खोजते हुए वहाँ पहुँचे। तुमने सारा वृतांत बताया
और कहा कि मैं घर तभी जाऊँगी अगर आप महादेव से
मेरा विवाह करेंगे। तुम्हारे पिता मान गए औऱ उन्होंने हमारा विवाह करवाया। इस व्रत
का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को
मनवांछित फल देता हूँ। इस पूरे प्रकरण में तुम्हारी सखी ने तुम्हारा हरण किया था
इसलिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत हो गया।
हरतालिका तीज शब्द इसी किदवंती पर आधारित है जिसमें
हरत का अर्थ ‘अपहरण‘
तथा आलिका का अर्थ ‘सहेली‘ होता है। हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया का वह दिन था। जब माता
पार्वती ने शिवलिंग की स्थापना की तथा इस दिन निर्जला उपवास उखते हुए उन्होंने
रात्रि में जागरण भी किया। जिसके कारण महिलाएँ दिन भर निराहार निर्जला उपवास रखती
हैं तथा रात्रि में भजन कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करती हैं। (उदंती फीचर्स)
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