- डॉ. रत्ना वर्मा
हमारे अधिकतर
पर्व-त्योहार पर्यावरण और प्रकृति से जुड़े हुए हैं, जो देश के अलग अलग राज्यों में थोड़ी भिन्नता के साथ मनाए जाते हैं;
पर जिनका मकसद एक ही होता है-अपनी संस्कृति से जुड़े रहना और प्रकृति
को भगवान मानना। यह तो शाश्वत सत्य है कि बगैर प्रकृति की रक्षा के जीवन सम्भव
नहीं है। भारत चूँकि कृषि प्रधान देश है इसलिए हमारे अधिकतर लोक-पर्व कृषक जीवन के
इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। बुवाई, रोपाई, जुताई और कटाई-मिंजाई के आसपास ही हमारे सारे पर्व-उत्सव मनाए जाते हैं।
यही वे कुछ दिन होते हैं, जब कड़ी मेहनत के साथ- साथ किसान
अपने परिवार के साथ आनन्दोल्लास के लिए समय निकालता है और फिर से दोगुने उत्साह के
साथ अपने खेतों में काम के लिए चल पड़ता है।
साल भर अलग-अलग
ऋतु विशेष में आने वाले इन लोक पर्वों में धरती को हरा- भरा बनाए रखने,
नदी तालाबों को स्वच्छ रखने की सीख के साथ परिवार और बच्चों की
सुरक्षा एवं खुशहाली का संदेश होता है। हमारे पूर्वजों ने इन सबके निमित्त ऐसे
कर्मकांड निर्धारित कर दिए हैं, जिसका पालन करने के लिए किसी
को बाध्य नहीं किया जाता। दरअसल पुरातन काल से ही हमारे ज्ञानीजन ने मनुष्य को
प्रकृति से प्रेम करने की सीख दी। नदी- तालाब, पशु- पक्षी,
पेड़ पौधों की पूजा करने का विधान बनाकर उन्हें भगवान का दर्जा दिया।
इन विशेष अवसरों पर व्रत उपवास तो किए ही जाते हैं, विशेष
पकवान भी बनाए जाते हैं। क्षेत्र विशेष के पकवान भी वहाँ की संस्कृति और परंपरा को
अलग पहचान दिलाते हैं।
आधुनिकीकरण के
दौर में बहुत से व्रत-त्योहार का महत्त्व अब बदल गया है। किसानों के मुख्य औजार हल,
कुदाल, हँसियाँ तो अब संग्रहालय में सँजोने
वाली चीजें बन गईं हैं। हम संग्रहालय इसीलिए तो बनाते हैं, ताकि
लुप्त होती जा रही अपनी पहचान, संस्कृति, पर्व त्योहार आदि के महत्व को आने वाली पीढ़ी को बता सकें।
कभी खेतों में
हल चलाकर धरती माता को अन्न उपजाने लायक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने
वाले बैलों की भूमिका अब नगण्य हो गई है। धान की कटाई,
जुताई, बुवाई और मताई जैसे कामों को किसान
परिवार कभी अपने हाथों से करता था अब ट्रेक्टर, हार्वेस्टर
जैसी अत्याधुनिक मशीनों ने उनके हाथों का काम छीन लिया है। गाँव में अनाज ढोने के
लिए तब बैलगाड़ी और भैंसागाड़ी ही सर्वसुलभ साधन होते थे; परन्तु
किसान यदि इनके सहारे आगे बढ़ने की सोचेगा तो वह अन्यों से पिछड़ जाएगा। कभी गौवंश
गाँव के प्रत्येक कृषक परिवार का आवश्यक अंग होता था। गौ माता की सेवा करके हर
व्यक्ति अपने को धन्य मानता था। प्रत्येक कृषक परिवार में गाय होने का मतलब बच्चों
के लिए आवश्यक पोषक पेय दूध उपलब्ध होने के साथ खेती के लिए जैविक खाद गोबर भी सहज
ही उपलब्ध हो जाता था। ऐसे खाद से उपजे अन्न को खाने से बीमारियाँ भी दूर भागती थीं। आज तो कीटनाशक
दवाओं ने अन्न को भी ज़हर बना दिया है। अधिक उपज के लालच ने गोबर-खाद की अहमियत को
घटा दिया है।
इसके साथ एक और
महत्त्वपूर्ण बात- इन सब संस्कारों परम्पराओं के
साथ गाँव वालों के रोजगार भी एक- दूसरे के साथ जुड़े होते थे। भारत के गाँव
में परम्परात रूप से हर प्रकार के व्यवसाय करने वाले रहते थे। उन्हें कहीं बाहर से
सामान लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लुहार, कुम्हार,
बढ़ई, बुनकर सब एक गाँव में मिल जाते थे। कपड़ा,
बर्तन और कृषि औजार जैसी आवश्यक चीजें सहज ही उपलब्ध हो जाया करती
थीं। पहले गाँव के घर मिट्टी से बने होते थे, जिन्हें गोबर
से लीपकर कीटाणु-मुक्त रखा जाता था।
मिट्टी के घर और गोबर से लिपा आँगन अब देखने को नहीं मिलते। इसी प्रकार छप्पर वाले हवादार घर भी अब
कहीं-कहीं ही देखने को मिलते हैं- जहाँ न पंखे की जरूरत होती थी न एसी की। अब तो
गाँव भी शहरों की तरह कांक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं।
बात शुरू हुई थी
हमारे पर्व त्योहार की, तो जीवनचर्या के साथ
पर्व त्योहारों में भी इन सबको अतिरिक्त रोजगार मिलता था। जैसे पोला पर्व में
मिट्टी से बने नंदी बैल की पूजा की जाती है साथ में बच्चों के लिए खिलौने की भी
खूब बिक्री होती है। अत: कुम्हारों के लिए यह त्योहार उनके लिए अतिरिक्त रोजगार का
साधन बन जाता है। पहले छप्पर वाले घर होते थे, तो कुम्हारों
की अहमियत हमेशा बनी रहती थी। छप्पर टूटते
रहते थे, उन्हें साल में एक बार बदलना ही होता था। इसी
प्रकार गर्मी के मौसम में पीने के ठंडे पानी के लिए घड़ा हर घर को चाहिए। आज तो
गाँव के घर कांक्रीट के छत वाले बनते जा रहे हैं और सबको फ्रिज़ का ठंडा पानी पीने
की आदत हो गई है। जाहिर है कुम्हारों की पूछ- परख कम होती जा रही है और वे दूसरे
रोजगार की तलाश में गाँव से पलायन करते जा रहे हैं। इसी तरह लुहारों का भी हाल है-
न अब हल की जरूरत होती न रॉपा और गैंती की, ऐसे में लुहार
अपना घर लुहारी कला से कैसे चलाएगा। यही हाल लगभग सभी हस्तशिल्पियों का है। चाहे
वे बुनकर हों, चाहे बाँस का काम करने वाले।
समाजशास्त्रीय
नज़रिये से देखें तो समय के साथ बदलाव समाज का आवश्यक अंग है। अत: आधुनिकीकरण का
प्रभाव गाँव पर भी पड़ा है। पर बदलाव और परिवर्तन तभी तक अच्छे होते हैं जब तक कि
उसका दुष्प्रभाव सामाजिक जीवन पर न पड़े। यहाँ तो यह देखने को मिल रहा है कि
आधुनिकीकरण के चक्कर में हम समूचि प्रकृति को ही नष्ट करते चले जा रहे हैं। परिणाम
तो सबके सामने हैं- कभी बाढ़ तो कभी सूखा। इसीलिए अब कहा जा रहा है कि हमें अपनी
पुरातन संस्कृति की ओर लौटना होगा। उन बातों को पुन: अपनाना होगा,
जिनसे सामाजिक जीवन सहज सरल तो बने ही, साथ
प्रकृति के लगातार होते दोहन को भी रोका जा सके। ऐसा करके सम्भवत: हम अपनी भावी
पीढ़ी को एक भव्य सांस्कृतिक विरासत और एक साफ सुथरा पयार्वरण दे पाएँगे। जैसा कि
हम, अपने पुरखों का नाम लेकर आज गर्व करते हैं, उनके दिए संस्कारों और परम्पराओं की दुहाई देते हैं। क्या हम अपने आगे आने
वाली पीढ़़ी के लिए गर्व करने लायक कोई विरासत सौंप कर जा पाएँगे? या कि प्रदूषित पर्यावरण, आपदाएँ और मशीनी जीवन देकर
हम अपने लिए गालियाँ इकट्ठी करेंगे।
अब बात करें
छत्तीसगढ़ की तो अलग राज्य बनने के बाद से ही छत्तीसगढ़ के किसान यहाँ के पारंपरिक
पर्व त्योहारों पर छुट्टी के साथ भव्यता के साथ मनाए जाने की माँग करती रही है।
बिहार के प्रमुख पर्व छठ पूजा पर यदि छत्तीसगढ़ में छुट्टी दी जा सकती है,
तो यहाँ के स्थानीय पर्व जैसे- हरेली, तीजा,
पोला, हलषष्ठी आदि पर तो छुट्टी मिलनी ही
चाहिए। तो इस दिशा में छत्तीसगढ़ की नई
सरकार ने एक शुरुआत कर दी है। सरकार ने पहली बार हरेली त्योहार किसानों के साथ
धूमधाम से मनाया और राज्य में छुट्टी की भी घोषणा की। हरेली के दिन जिलों में
पारंपरिक खेल गेंड़ी, नारियल फेंक के साथ कई स्थानीय खेल
आयोजित किए गए। इससे जनता को उम्मीद की एक किरण नज़र आई है कि आने वाले समय में
अन्य प्रमुख पर्व-त्योहारों पर भी सरकार प्रदेश की जनता की खुशियों का ध्यान
रखेगी।
इसमें कोई दो मत
नहीं कि इस प्रकार के आयोजन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लोगों को जोड़े रखने की
दिशा में एक मजूबत कदम है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार आगे भी स्थानीय
पर्व-संस्कृति को वृहद पैमाने पर महत्त्व देकर देश भर में अपनी एक अलग पहचान
बनाएगी। यह प्रयास छत्तीसगढ़ के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी अच्छा कदम होगा।
राजस्थान और गुजरात जैसे प्रदेशों ने अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ही आगे रखकर
पर्यटन के क्षेत्र में एक अलग मुकाम हासिल किया है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और
लोक परंपराएँ भी किसी से कम नहीं है, ज़रूरत
है यहाँ की माटी में रचे बसे पारम्परिक लोक गीतों लोक गाथाओँ, लोक कथाओं और लोक कलाओँ को बढ़ावा देने की।
छत्तीसगढ़ के
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी सरकार को किसानों की सरकार कहा है और गरवा,
घुरवा, बाड़ी जैसी कई योजनाओं के जरिए गाँवों
की तस्वीर बदलने के प्रयास शुरू हो चुके हैं।
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि ये सब आयोजन, और
योजनाएँ केवल राजनैतिक लाभ-हानि तक सीमित न रहकर प्रदेश की परम्परा और संस्कृति को
संरक्षित- संवर्धित करते हुए प्रकृति के हो रहे नुकसान को बचाने की दिशा में भी
काम करेंगी; क्योंकि इन लोकपर्वों के बहाने ही सही प्रकृति
के साथ संतुलन-बनाए रखने में बहुत सहायता मिलती है।
1 comment:
बहुत सुंदर लेख,प्लास्टिक प्रतिबंध करना अतिआवश्यक है,कड़े कानून की आवश्यकता है।हमारा प्राकृतिक संरक्षण का कार्य इतने में ही आधा सुलझ सकता है।
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