- अनुपम मिश्र
मृतकों से संवाद और
पुरखों से संवाद, ये दो अलग बातें
हैं।
इस अंतर में जीवन के एक रस का भास भी होता है।
जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। आज हम हैं और यह हमारा अनुभव है कि जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। यह आज, कल और परसों भी आज के रूप में था और उससे भी जुड़े थे उसके कल और उसके
परसों। बरसों से काल के ये रूप पीढिय़ों के मन में बसे हैं, रचे हैं। कल, आज और कल- ये तीन छोटे-छोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता से, तरलता से समेटे हुए हैं।
बहुत ही सरलता से जुड़े हैं ये कल, आज और कल। हमें इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता। बस हमें
तो यहाँ होना पड़ता है। यह होना (या कहें न होना भी) हमारे बस में नहीं है। फिर इन
तीनों कालों में एक सरल तरलता भी है। इन तीनों के बीच लोग, घटनाएँ,
विचार, आचार,
व्यवहार
अदलते-बदलते रहते हैं।
इस अदला-बदली में जीवन और मृत्यु भी आते और जाते रहते
हैं। सचमुच हम चाहें या न चाहें, जो कल तक हमारे बीच
थे, वे आज नहीं हैं। किसी के
होने का भाव न होने में बदल जाता है,
एक
क्षण में। फिर उस भाव के अभाव से हम सब दु:खी हो जाते हैं।
अपनों के इस अभाव से, हमारा यह भाव भी
अभाव में बदल जाता है। दु:ख का अनुभव करने वाला हमारा यह मन, यह शरीर भी न जाने कब उसी अभाव में जो मिलता है, जिसके भाव को याद कर हम दुखी हो जाता है।
तब स्मरण और विस्मरण शायद एक हो जाते हैं। बाकी क्या
बचता है, बचा रह जाता है, यह मुझे तो मालूम नहीं। कभी इसे जानने-समझने का मौका
ही नहीं मिला। जो कुछ भी सामने है,
सामने
आता जाता है, उसी को ज्यादातर मन
से, एकाध बार शायद बेमन से भी, पर करता चला गया। इसलिए इसके बाद क्या होता है, जीवन का भाव जब विलीन होता है तो जो अभाव है, वह क्या है, मृत्यु का है?
जो उस खाने में जा बैठे हैं, जीवन के बाद के खाने में, मृत्यु के खाने में, उन मृतकों से मेरा कभी कोई संवाद नहीं हो पाया है। आज मैं कोई इकसठ बरस का
हूँ। जो संवाद अभी तक नहीं हो पाया,
वह
बचे न जाने कितने छिन-दिन हैं, उसमें क्या हो
पाएगा, यह भी ठीक से पता नहीं है।
मृतक और मृत्यु शायद दोनों ही संज्ञा हैं, पर बिलकुल अलग-अलग तरह की। मृतक को, मृतकों को, अपने आसपास से बिछड़ चुके लोगों को, अपनों को और तुपनों को भी मैं जानता हूँ। पहचानता भी हूँ। पर वे जिस
मृत्यु के कारण मृतक बन गए हैं, उस मृत्यु को तो
मैं जान ही नहीं पाया। सच कहूँ तो उसे जानने की जरूरत ही नहीं लगी। इच्छा भी नहीं
हुई। इसलिए कोई ढंग की कोशिश भी नहीं की।
नचिकेता की कहानी तो बचपन में ही पढ़ी थी। जिसे जवानी
कहते हैं, उसी उमर में फिर से पढ़ी थी
यह कहानी। तब पढ़ते समय यह लगा था कि चलो मृत्यु से बिना मिले उस जवानी में ही
अपने को फोकट में वह ज्ञान मिल जाने वाला है, जिसे जान लेने की इच्छा में न जाने कितने बड़े लोगों ने, तपस्वियों, संतों ने न जाने कैसी-कैसी यातनाएँ अपने शरीर को दी थीं।
लेकिन नचिकेता ने कोई तप नहीं किया था। अपने पिता के
क्रोध के कारण वह यम के दरवाजे पर भूखा-प्यासा दो-तीन दिन जरूर बैठा रहा था। क्या
पता उसने यम के दरवाजे पर आने से पहले अपने पिता के घर में हुए उत्सव में एक बालक
के नाते थोड़ा ज्यादा ही पूरी-हलवा खा लिया हो!
यम जितने भयानक बताए जाते हैं, उस समय तो वैसे थे नहीं। हमारा मृत्यु का यह देवता तो
तीन-दिन के भूखे-प्यासे बैठे बच्चे से घबरा गया! आज तो मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि तीस-चालीस दिनों के झूठे तो छोडि़ए, सच्चे अनशनकारियों से भी नहीं घबराते।
यम उसे पूरी दुनिया की दौलत, सारी सुख-सुविधाएँ देने को तैयार थे, ऐसी भी चीजें, जिनकी शायद यम को जरूरत हो पर उस बालक को तो थी ही नहीं। कीमती हीरे, मोती,
अप्सराएँ
आदि लेकर वह बालक करता क्या। यह भी बड़ा अचरज है कि नचिकेता वायदों के इन तमाम
पहाड़ों को ठुकराता जाता है। वह डिगता नहीं, बस एक ही रट लगाता रहता है कि मुझे तो वह ज्ञान दो जिसमें मैं मृत्यु का
रहस्य जान जाऊँ।
सच पूछें तो मैं उस किस्से को इसी आशा में पढ़ता गया
कि लो अब मिलने वाला है वह ब्रह्मज्ञान। यह उपनिषद् कुछ हजार बरस पुराना माना गया
है। श्रद्धा भाव है तो फिर इसे ‘अपौरुषेय’ भी माना गया है। तब तो इसके लिखने का समय और भी पीछे
खिसक जाएगा। तब से यह उपनिषद् बराबर पढ़ा और पढ़ाया भी जाता रहा है।
कितनों को इससे मृत्यु का ज्ञान मिल गया होगा, मुझे नहीं मालूम। पर यह कठोपनिषद् मेरे लिए तो बहुत ही
कठोर निकला। मैं इससे मृत्यु को जान नहीं पाया। मृतकों को तब भी जाना था और आज तो
उस सूची में, उस ज्ञान में
वृद्धि भी होती जा रही है। फिर इतना तो पता है किसी एक छिन या दिन इस सुंदर सूची
में मुझे भी शामिल हो जाना है। उस सुंदर सूची को पढऩे के लिए तब मैं नहीं रहूँगा। फिर वह सूची मेरे बाद
भी बढ़ती जाएगी। यह सूची मेरे जन्म से पहले से न जाने कब से लिखी, पढ़ी और फिर अपढ़ी बन जाती है।
इस सुंदर सूची को लिखने वालों में और सूची में लिख गए
लोगों के बीच क्या कुछ बातचीत, संवाद हो पाता है? होता है तो कैसा? आज के टी.वी. चैनलों जैसा?
‘जब
आपको मृत्यु मिली तो आपको कैसा लगा?’
ऐसा
तो शायद नहीं!
जीवन से परे ही तो होगी मृत्यु। मुझे ब्रह्म का कोई
ज्ञान नहीं है। फिर भी यह तो कह ही सकता हूँ कि जीवन में वह मृत्यु है। पर मृत्यु
में यह जीवन नहीं है। मृत्यु में यदि जीवन होगा भी तो जो जीवन हम जानते हैं, जिसे हम मृत्यु तक जीते हैं, वैसा जीवन तो वह होगा नहीं। यदि वैसा ही जीवन है
मृत्यु के पार तो फिर इन दो जीवनों के बीच मृत्यु भला काहे को आती। ऐसे में जीवन
और मृत्यु का, आज के जीवितों का, कल के मृतकों से संवाद कैसा होता होगा, कैसे होता होगा? मैं कुछ कह नहीं सकता।
दुनिया के बहुत से समाजों में नीचे गिने गए कई तरह के
जादू-टोनों से लेकर बहुत ऊपर बताए गए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म की गूढ़ चर्चाएँ इस संवाद के तार जोडऩे की
बात करती हैं। इसके अलावा साधारण गृहस्थों के भी खूब सारे अनुभव हैं। खासकर संकट
के मौकों पर लोग बताते हैं कि दादा ने, काकी ने, नानी ने सपने में
आकर ऐसा बताया, वगैरह। पर ये अनुभव
प्राय: एकतरफा होते हैं- ‘उनने बताया’ बस।
उसमें ‘हमने पूछा या कहा’ प्राय: नहीं होता। फिर भी यदि यह संवाद है तो चलता
चले। मृतकों से मिली शिक्षा से जीवितों का कुछ लाभ हो जाए तो अच्छा ही होगा। पर
यदि यही संवाद है तो फिर यह एक तरह से स्वार्थ को पूरा करने का ही तरीका निकला।
ऐसा संवाद तो जीवित का जीवित से भी हो सकता है। पर आज एक बड़ी दिक्कत है।
जीवित लोगों का जीवितों से ही संवाद टूट चला है। शहरों
में ऐसा दृष्य कभी भी देखने को मिल जाएगा! रेलवे स्टेशनों पर, बस अड्डों पर, हवाई अड्डों पर तो खासकर,
चार-पाँच
लोग कान में मोबाइल फोन लगाए कहीं दूर, दो-पाँच सौ किलोमीटर दूर किसी से बातचीत कर रहे हैं। पर उनका आपस में कोई
संवाद नहीं हो पाता। ये चार-पाँच जिन दूर के चार-पाँच से बात करते हैं, वहाँ भी इनमें से हरेक संवादी के आसपास ऐसे ही
चार-पाँच संवादी होंगे, जिनका आपस में कोई
संवाद नहीं हो पाता।
इस तरह आज के समाज में अपने आसपास को न जानना, अपने पड़ोसी को न जानना ज्ञान की नई कसौटी है। यह घरों
से लेकर देशों तक पर लागू हो चली है। हम जीना भूल गए हैं, इसलिए हमें अब जीवन जीने की कला सिखाने वालों की शरण
में आँख मूँद कर जाना पड़ रहा है।
लेकिन जहां इस नए संवाद के तार या कहें बेतार नहीं बिछ
पाए हैं, उन इलाकों में आज भी अपने
मृतकों से हर क्षण संवाद बना हुआ है। आज की सरकार और आज के बाजार से अछूता एक बड़ा
भाग आज भी ऐसा है, जहाँ आज का जीवित
और जीवंत समाज, उसका हर सदस्य अपनी
पीढ़ी के लिए, आगे आने वाली पीढ़ी
के लिए वही सब करता चला जा रहा है,
जो
उसके पहले की पीढिय़ों ने किया था।
जैसलमेर जैसे मरुप्रदेश का उदाहरण देखें। वहाँ आज नए
समाज के सबसे श्रेष्ठ माने गए लोगों ने पोखरण में अणु बम का विस्फोट किया है। पर
उसके पास के गाँव खेतोलाई को जरा देखें। वहां का सारा भूजल खारा है, पीने योग्य नहीं है। वहाँ लोग आज भी अपने खेत में
छोटी-सी तलाई बनाते हैं। जहाँ सैकड़ों वर्षों से देश की सबसे कम वर्षा होती है, वहाँ लोग बम नहीं फोड़ते, वर्षा का मीठा जल जोड़ते हैं। तालाब बनाते हैं। क्यों, कोई पूछे उनसे, तो उनका जवाब होगा, हमारे पुरखों ने
बताया था कि तालाब बनाते जाना। जो बने हैं, उनकी रखवाली करते जाना।
पुरखों से उनका शायद संवाद नहीं होता। पर पुरखों ने
बताया है, इसलिए वे तालाब बना रहे
हैं। समाज के लिए तरह-तरह के छोटे-बड़े काम कर रहे हैं। उनके मन में, उनके तन में, उनके खून में, उनकी कुदाल-फावड़े
में पुरखे बसे हैं। वे उन्हें गीतों में, मुहावरों में, आचार में, व्यवहार में बताते चलते हैं। ये अपने पुरखों की बताई
बातों को सुनते, और उससे भी ज्यादा
करते चलते हैं।
यहाँ मृतकों से नहीं, पुरखों से संवाद होता है। मृतक हमें मृत्यु तक ले जाते हैं। फिर वहाँ
संवाद नहीं रह जाता। पुरखे हमें जीवन में वापस लाते हैं। हमारे जीवन को पहले से
बेहतर बनाते हैं। (mansampark.in)
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