नींव से शिखर तक
- अनुपम मिश्र
आज अनपूछी ग्यारस है।
देव उठ गए हैं। अब अच्छे-अच्छे काम करने के लिए किसी से कुछ पूछने की, मुहूर्त दिखवाने की जरूरत नहीं है। फिर भी सब लोग
मिल-जुल रहे हैं, सब से पूछ रहे हैं।
एक नया तालाब जो बनने वाला है।...
पाठकों को लगेगा कि अब उन्हें एक तालाब के बनने का-
पाल बनने से लेकर पानी भरने तक का पूरा विवरण मिलने वाला है। हम खुद ऐसा विवरण
खोजते रहे पर हमें वह कहीं मिल नहीं पाया। जहाँ सदियों से तालाब बनते रहे हैं, हजारों की संख्या में बने हैं- वहाँ तालाब बनाने का
पूरा विवरण न होना शुरू में अटपटा लग सकता है, पर यही सबसे सहज स्थिति है। ‘तालाब कैसे बनाएँ’ के बदले चारों तरफ ‘तालाब ऐसे बनाएँ’ का चलन चलता था। फिर भी छोटे-छोटे टुकड़े जोड़ें तो तालाब बनाने का एक
सुंदर न सही, काम चलाऊ चित्र तो
सामने आ ही सकता है।
...अनपूछी ग्यारस है। अब क्या पूछना है। सारी बातचीत
तो पहले हो ही चुकी है। तालाब की जगह भी तय हो चुकी है। तय करने वालों की आँखों
में न जाने कितनी बरसातें उतर चुकी हैं। इसलिए वहाँ ऐसे सवाल नहीं उठते कि पानी
कहाँ से आता है, कितना पानी आता है, उसका कितना भाग कहाँ पर रोका जा सकता है। ये सवाल नहीं
हैं, बातें हैं सीधी-सादी, उनकी हथेलियों पर रखी। इन्हीं में से कुछ आँखों ने
इससे पहले भी कई तालाब खोदे हैं। और इन्ही में से कुछ आँखें ऐसी हैं जो पीढ़ियों से यही काम करती आ रही हैं।
यों तो दसों दिशाएँ खुली हैं, तालाब बनाने के लिए, फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा गया है। गोचर की तरफ
है यह जगह। ढाल है, निचला क्षेत्र है।
जहाँ से पानी आएगा, वहाँ की जमीन मुरुम
वाली है। उस तरफ शौच आदि के लिए भी लोग नहीं जाते हैं। मरे जानवरों की खाल वगैरह
निकालने की जगह यानी हड़वाड़ा भी इस तरफ नहीं है।
अभ्यास से अभ्यास बढ़ता है। अभ्यस्त आँखें बातचीत में
सुनी-चुनी गई जगह को एक बार देख भी लेती हैं। यहाँ पहुँच कर आगौर, जहाँ से पानी आएगा, उसकी साफ-सफाई, सुरक्षा को पक्का
कर लिया जाता है। आगर, जहाँ पानी आएगा, उसका स्वभाव परख लिया जाता है। पाल कितनी ऊँची होगी, कितनी चौड़ी होगी, कहाँ से कहाँ तक बँधेगी तथा तालाब में पानी पूरा भरने पर उसे बचाने के लिए
कहाँ से अपरा बनेगी, इसका भी अंदाज ले
लिया गया है।
सब लोग इकट्ठे हो गए हैं। अब देर काहे की। चमचमाती
थाली सजी है। सूरज की किरणें उसे और चमका रही हैं। जल से पूर्ण लोटा है। रोली, मौली,
हल्दी, अक्षत के साथ रखा है लाल मिट्टी का एक पवित्र डला।
भूमि और जल की स्तुति के श्लोक धीरे-धीरे लहरों में बदल रहे हैं।
वरुण देवता का स्मरण है। तालाब कहीं भी खुद रहा हो, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की नदियों को पुकारा
जा रहा है। श्लोकों की लहरें थमती हैं, मिट्टी में फावड़ों के टकराने की खडख़ड़ाहट से। पाँच लोग पाँच परात मिट्टी
खोदते हैं, दस हाथ परातों को उठा कर
पाल पर डालते हैं। यहीं बँधेगी पाल। गुड़ बँट जाता है। महूरत साध लिया जाता है। आँखों
में बसा तालाब का पूरा चित्र फावड़े से निशान लगाकर जमीन पर उतार लिया गया है।
कहाँ से मिट्टी निकलेगी और कहाँ-कहाँ डाली जाएगी, पाल से कितनी दूरी पर खुदाई होगी ताकि पाल के ठीक नीचे इतनी गहरी न हो जाए
कि पाल पानी के दबाव से कमजोर होने लगे।...
अनपूछी ग्यारस को इतना तो हो ही जाता था। लेकिन किसी
कारण उस दिन काम शुरू नहीं हो पाए तो मुहुर्त पूछा जाता था, नहीं तो और कई बातों के साथ कुआँ, बावड़ी और तालाब बनाने का मुहुर्त आज भी समझाते हैं- ‘हस्त,
अनुराधा, तीनों उत्तरा, शतभिषा, मघा, रोहिणी,
पुष्य, मृगशिरा, पूष नक्षत्रों में
चंद्रावर, बुधवार, बृहस्पतिवार तथा शुक्रवार को कार्य प्रारंभ करें।
परन्तु तिथि 4, 9 और 14 का त्याग
करें। शुभ लगनों में गुरु और बुध बली हो,
पाप
ग्रह निर्बल हो, शुक्र का चन्द्रमा
जलचर राशिगत लगन व चतुर्थ हो, गुरु शुक्र अस्त न
हो, भद्रा न हो तो खुदवाना शुभ
है।’
आज हममें से ज्यादा लोगों को इस विवरण में से दिनों के
कुछ नाम भर समझ में आ पाएँगे, पर आज भी समाज के
एक बड़े भाग के मन की घड़ी इस घड़ी से मिलती है। कुछ पहले तक तो पूरा समाज इसी
घड़ी से चलता था।
...घड़ी साध ली गई है। लोग लौट रहे हैं। अब एक या
दो दिन बाद जब भी सबको सुविधा होगी,
फिर
से काम शुरू होगा।
अभ्यस्त निगाहें इस बीच पलक नहीं झपकतीं। कितना बड़ा
है तालाब, काम कितना है, कितने लोग लगेंगे, कितने औजार, कितने मन मिट्टी
खुदेगी, पाल पर कैसे डलेगी मिट्टी? तसलों से,
बहँगी से, लग्गे से ढोई जाएगी या गधों की जरूरत पड़ेगी? प्रश्न लहरों की तरह उठते हैं। कितना काम कच्चा है, मिट्टी का है, कितना है पक्का, चूने का, पत्थर का। मिट्टी का कच्चा काम बिल्कुल पक्का करना है
और पत्थर, चूने का पक्का काम कच्चा न
रह जाए। प्रश्नों की लहरें उठती हैं और अभ्यस्त मन की गहराई में शांत होती जाती
हैं। सैकड़ों मन मिट्टी का बेहद वजनी काम है। बहते पानी को रुकने के लिए मनाना है।
पानी से, हाँ आग से खेलना है।
डुगडुगी बजती है। गाँव तालाब की जगह पर जमा होता है।
तालाब पर काम अमानी में चलेगा। अमानी यानी सब लोग एक साथ काम पर आएँगे, एक साथ वापस घर लौटेंगे।
सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते हैं। सैकड़ों हाथ पाल पर
मिट्टी डालते हैं। धीरे-धीरे पहला आसार पूरा होता है, एक स्तर उभरकर दिखता है। फिर उसकी दबाई शुरू होती है।
दबाने का काम नंदी कर रहे हैं। चार नुकीले खुरों पर बैल का पूरा वजन पड़ता है।
पहला आसार पूरा हुआ तो उस पर मिट्टी की दूसरी तह डलनी शुरू होती है। हरेक आसार पर
पानी सींचते हैं, बैल चलाते हैं।
सैकड़ों हाथ तत्परता से चलते रहते हैं, आसार बहुत धीरज के साथ धीरे-धीरे से उठते जाते हैं।
अब तक जो कुदाल की एक अस्पष्ट रेखा थी, अब वह मिट्टी की पट्टी बन गई है। कहीं यह बिल्कुल सीधी
है तो कहीं यह बल खा रही है, आगौर से आने वाला
पानी जहाँ पाल पर जोरदार बल आजमा सकता है, वहीं पर पाल में भी बल दिया गया है। इसे ‘कोहनी’ भी कहा जाता है।
पाल यहाँ ठीक हमारी कोहनी की तरह मुड़ जाती है।
जगह गाँव के पास ही है तो भोजन करने लोग घर जाते हैं।
जगह दूर हुई तो भोजन भी वहीं पर। पर पूरे दिन गुड़ मिला मीठा पानी सबको वहीं मिलता
है। पानी का काम है, पुण्य का काम है, इसमें अमृत जैसा मीठा पानी पिलाना है, तभी अमृत जैसा सरोवर बनेगा।
इस अमृतसर की रक्षा करेगी पाल। वह तालाब की पालक है।
पाल नीचे कितनी चौड़ी होगी, कितनी ऊपर उठेगी और
ऊपर की चौड़ाई कितनी होगी- ऐसे प्रश्न गणित या विज्ञान का बोझ नहीं बढ़ाते।
अभ्यस्त आँखों के सहज गणित को कोई नापना ही चाहे तो नींव की चौड़ाई से ऊंचाई होगी
आधी और पूरी बन जाने पर ऊपर की चौड़ाई कुल ऊँचाई की आधी होगी।
मिट्टी का कच्चा काम पूरा हो रहा है। अब पक्के काम की
बारी है। चुनकरों ने चूने को बुझा लिया है। गरट लग गई है। अब गारा तैयार हो रहा
है। सिलावट पत्थर की टकाई में व्यस्त हो गए हैं। रक्षा करने वाली पाल की भी रक्षा
करने के लिए नेष्टा बनाया जाएगा। नेष्टा यानी वह जगह जहाँ से तालाब का अतिरिक्त
पानी पाल को नुकसान पहुँचाए बिना बह जाएगा। कभी यह शब्द ‘नसृष्ट’
या ‘निस्तरण’
या ‘निस्तार’
रहा
होगा। तालाब बनाने वालों की जीभ से कटते-कटते यह घिस कर ‘नेष्टा’
के
रूप में इतना मजबूत हो गया कि पिछले कुछ सैकड़ों वर्षों से इसकी एक भी मात्रा टूट
नहीं पाई है।
नेष्टा पाल की ऊँचाई से थोड़ा नीचा होगा, तभी तो पाल को तोडऩे से पहले ही पानी को बहा सकेगा। जमीन से इसकी ऊँचाई, पाल की ऊँचाई के अनुपात में तय होगी। अनुपात होगा कोई 10 और 7 हाथ का।
पाल और नेष्टा का काम पूरा हुआ और इस तरह बन गया तालाब
का आगर। आगौर का सारा पानी आगर में सिमट कर आएगा। अभ्यस्त आँखें एक बार फिर आगौर
और आगर को तौलकर देख लेती हैं। आगर की क्षमता आगौर से आने वाले पानी से कहीं अधिक
तो नहीं, कम तो नहीं। उत्तर हाँ में
नहीं आता।
आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया पर
आज फिर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर।
अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था,
वह आज
पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा
होना बाकी है। आगर के स्तंभ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हैं सर्पराज। घटोइया बाबा
घाट पर बैठकर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे।
आज सबका भोजन होगा। सुंदर मजबूत पाल से घिरा तालाब दूर
से एक बड़ी थाली की तरह ही लग रहा है। जिन अनाम लोगों ने इसे बनाया है, आज वे प्रसाद बाँट कर इसे एक सुंदर - सा नाम भी देंगे।
और यह नाम किसी कागज पर नहीं, लोगों के मन पर
लिखा जाएगा।
लेकिन नाम के साथ काम खत्म नहीं हो जाता है। जैसे ही
हथिया नक्षत्र उगेगा, पानी का पहला झला
गिरेगा, सब लोग फिर तालाब पर जमा
होंगे। अभ्यस्त आँखें आज ही तो कसौटी पर चढ़ेंगी। लोग कुदाल, फावड़े,
बाँस
और लाठी लेकर पाल पर घूम रहे हैं। खूब जुगत से एक-एक आसार उठी पाल भी पहले झरे का
पानी पिए बिना मजबूत नहीं होगी। हर कहीं से पानी धंस सकता है। दरारें पड़ सकती
हैं। चूहों के बिल बनने में भी कितनी देरी लगती है भला! पाल पर चलते हुए लोग
बाँसों से, लाठियों से इन छेदों को
दबा-दबाकर भर रहे हैं।
कल जिस तरह पाल धीरे-धीरे उठ रही थी, आज उसी तरह आगर में पानी उठ रहा है। आज वह पूरे आगौर
से सिमट-सिमट कर आ रहा है -
सिमट-सिमट जल भरहि तलावा।
जिमी सदगुण सज्जन पहिं आवा॥
अनाम हाथों की मनुहार पानी ने स्वीकार कर ली।
(पुस्तक: आज
भी खरे हैं तालाब से)
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