शोध से ज्यादा श्रद्धा की जरूरत
- अनुपम मिश्र
रुड़की इंजीनियरिंग, बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत ही नहीं एशिया का
पहला इंजीनियरिंग कालेज कहाँ बना था?
आप
जानते हैं वह कब और क्यों बना?
यह जानना इसलिए भी जरूरी है, कि आज तकनीकी का जो हमारा थोड़ा पढ़ा लिखा समाज है
उसकी नींव में हमारे वे अनपढ़ लोग रहे हैं जिनको हमने दुत्कार कर अलग कर दिया।
लेकिन शायद ही इसके बारे में किसी को पता हो। मुझे चार-पाँच आईआईटी में जाने का
मौका मिला है। मैंने वहाँ के फैकल्टी से भी यह जानने की कोशिश की कि क्या उन्हें
पता है कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई कहाँ से शुरू होती है। आप उन्हें दोष न दें, लेकिन उनको भी नहीं पता। आज हम मानते हैं कि जितने
सुविधा सम्पन्न शहर में रहेंगे उतनी अच्छी पढ़ाई होगी। लेकिन देश का पहला
इंजीनियरिंग संस्थान कोई दिल्ली, मुंबई या कोलकाता
मद्रास में नहीं बना। और जब बना तो उसमें प्रवेश के लिए कोई कैट टेस्ट भी नहीं
देना होता था। जिसने बनाया वह भी देश में कोई उच्च शिक्षा का काम करने नहीं आए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी वाले साफ-साफ व्यापार करने आए थे या शुद्ध हिन्दी में कहें तो लूटने के लिए आए थे; इसलिए उनको उच्च शिक्षा का कोई केन्द्र खोलने की जरूरत नहीं थी।
लेकिन 1847 में उसने हरिद्वार
के पास रूड़की नामक एक छोटे से गाँव में पहला इंजीनियरिंग कालेज खोला था। उस समय
शायद रूड़की गाँव की आबादी 700-750 रही होगी। वह
हमारे देश का पहला इंजीनियरिंग कालेज था। और उसे बनाने का एकमात्र कारण था लोकज्ञान
का उपयोग। जिस लोकबुद्धि को हम भूल चूके हैं, और अनपढ़ गँवार समझ बैठे हैं रूड़की इंजीनियरिंग कालेज बनाने में उन्हीं
लोगों की प्रेरणा थी। प्रसंग यह था कि अकाल चल रहा था। लोग मर रहे थे। लोग मरें
इससे ईस्ट इंडिया कंपनी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन एक सहृदय अंग्रेज
अधिकारी ने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक डिस्पैच भेजकर कहा कि जो लोग मर रहे हैं उनमें
तो आप लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं होगी ; लेकिन अगर यहाँ आप एक नहर बनाएँगे तो आपको सिंचाई का कर
मिलना शुरू हो जाएगा और अकाल से लोग निपट लेंगे। लेकिन मुश्किल यह थी कि उस समय
कोई पीडब्लूडी नहीं था। पब्लिक वर्क की ऐसी अवधारणा उस समय नहीं थी इसलिए कोई
विभाग भी नहीं था।
अंग्रेज महोदय ने स्थानीय लोगों को इकट्ठा किया। उनसे
पूछा कि तुम लोग पानी का बहुत अच्छा काम जानते हो ,तो क्या नहर बना सकते हो?
तो
लोगों ने कहा कि हाँ बना सकते हैं। 200 किलोमीटर लंबी नहर
बनानी थी ,लेकिन दो टुकड़े कागज भी
नहीं प्रयोग किया गया। बिना ड्राईंग बोर्ड और बिना किसी यंत्र के उन्होंने यह नहर
बनाई। मन पर उकेरा और जमीन नहर उभरती चली गयी। उसमें बीच में नहर को एक नदी पार
करानी थी जिसमें नदी से ज्यादा पानी गंगा का निकाल कर ले जाना था। आज हम अंग्रेजी
में इसे अक्वाडक कहते हैं। वह भी उन लोगों ने ही डिजाइन किया था।

लेकिन दस साल बाद ही गदर शुरू हो गया। 1847 के बाद 57। जो उदार
गिने-चुने अधिकारी इस तरह के प्रयोगों को बढ़ावा दे रहे थे कि यहाँ के जो लोग
अनपढ़ माने जाते हैं वे बाकायदा इंजीनियर हैं और उससे ये देश चलना चाहिए, गदर से वह धारा एकदम से कट गयी। सबको ब्लैक लिस्ट किया
गया और साफ-साफ कहा गया कि जो ईस्ट इंडिया कंपनी के वफादार हैं ,उन्हें ये सब पढ़ाई पढ़नी चाहिए। उनको और कोई चीज आती हो तो आए, हमारे लिए वे अनपढ़ हैं। इस तरह से वह रस्सी तब कटी ;लेकिन फिर कभी वह रस्सी हम जोड़ नहीं पाए।
30-35 साल में काम करते हुए मैंने यह सब शोध के नजरिए
से नहीं देखा। इसको मैंने श्रद्धा से देखा। शोध में तो पाँच साल का प्रोजेक्ट
होगा। मुझे मंत्रालय से पैसा मिलेगा ,
तो
करूँगा नहीं मिलेगा तो नहीं करूँगा। लेकिन अगर हम श्रद्धा रखेंगे, तो हम उस काम को सब तरह की रुकावटों के बाद भी
करके आगे जाएँगे। इसके लिए विशेषज्ञ बनना जरूरी नहीं। हमें समाज का मुंशी बनना
होगा। समाज के अच्छे काम को मुंशी की तरह लोगों के सामने रखना होगा। तब शायद हमारी
यह चिंता थोड़ी कम हो सके कि जिस समाज को हम पिछड़ा और अनपढ़ कहते हैं उनको साक्षर
करने की जरूरत नहीं है बल्कि उनसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। (इंडिया वाटर पोर्टल से)
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