-प्रभाष जोशी
परिषद साक्ष्य धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
यह कागद मैं उन्हीं अनुपम मिश्र और उनके काम पर काले
कर रहा हूँ, जिनका जिक्र आपने
कई बार देखा और पढ़ा होगा। यह जीने का वह रवैया है ,जिसे पहले समझे बिना अनुपम
मिश्र के काम और उसे करने के तरीके को समझना मुश्किल है। जो बहुत सीधा-सपाट और
समर्पित दिखता है वह ,वैसा ही होता तो जिन्दगी रेगिस्तान की सीधी और समतल सड़क की
तरह उबाऊ होती।
आप, हम सब एक पहलू के
लोग होते और दुनिया लम्बाई चौड़ाई और गहराई के तीन पहलुओं वाली बहुरूपी और अनन्त
सम्भावनाओं से भरी नहीं होती। विराट पुरुष की कृपा है कि जीवन-संसार अनन्त और
अगम्य है।
कितना अच्छा है कि अपने हाथों की पकड़, आँखों की पहुँच और मन की समझ से परे इतना कुछ है कि
अपनी पकड़, पहुँच और समझ में कभी आ ही
नहीं सकता। ऐसा है, इसीलिए तो जाना, करना और खोजना है।
ऐसा न हो तो जीने और संसार में रह क्या जाएगा?
मन में कहीं बैठा था कि अनुपम से मुठभेड़ सन इकहत्तर
में हुई। लेकिन यह गलत है। गाँधी शताब्दी समिति की प्रकाशन सलाहकार समिति का काम
सम्भालने के बाद देवेन्द्र भाई यानी राष्ट्रीय समिति के संगठन मन्त्री ने कहा कि
भवानी भाई ने गाँधी जी पर बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं। वे उनसे लो और प्रकाशित करो।
उन्हें लेने के जुगाड़ में ही भवानी प्रसाद मिश्र के घर जाना हुआ और वहीं उनके
तीसरे बेटे यानी माननीय अनुपम प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र या पमपम से मिलना हुआ। भवानी भाई की ये कविताएँ ‘गाँधी पंचशती’ के नाम छपीं, इसमें पाँच सौ से
ज्यादा कविताएँ हैं।
गाँधी शताब्दी समाप्त होते-होते एक दिन देवेन्द्र भाई
ने कहा कि अनुपम आने वाले हैं, उनका हमें गाँधी
मार्ग और दूसरे प्रकाशनों में उपयोग करना है। फिर राधाकृष्ण जी ने कहा कि किसी को
भेज रहा हूँ, जरा देख लेना।
अनुपम को देखा हुआ था। लेकिन किसी के भी भेजे हुए को अपन दूर ही रखते हैं। जब तक
कोई भेजा हुआ आया हुआ नहीं हो जाता तब तक वह अपनी आँखो में नहीं चढ़ता। बहरहाल, अनुपम ने काम शुरू किया- सेवक की विनम्र भूमिका में।
सर्वोदय में सेवकों और उनकी विनम्र भूमिकाओं का तब बड़ा महत्त्व होता था। सीखी या
ओढ़ी हुई विनम्रता और सेवकाई को मैं व्यंग्य से ही वर्णित कर सकता हूँ। विनम्र और
सेवक होते हुए भी अनुपम सेवा को काम की तरह कर सकता था।
सेवा का पुण्य की तरह ही बड़ा पसारा होता है। विनम्र
सेवक का अहं कई बार तानाशाह के अहं से भी बड़ा होता है।
तानाशाह तो फिर भी झुकता है और समझौता करता है, क्योंकि वह जानता है कि ज्यादती कर रहा है; लेकिन विनम्र सेवक को लगता
है कि वह गलत कुछ कर ही नहीं सकता,
क्योंकि
अपने लिए तो वह कुछ करता ही नहीं है ना। अनुपम में अपने को सेवा
का यह आत्म औचित्य नहीं दिखा, हालाँकि काम वह
दूसरों से ज्यादा ही करता था। लादने वाले को ना नहीं करता था और बिना यह दिखाए कि
शहीद कर दिया गया है - लदान उठाए रहता। तब उसकी उम्र रही होगी इक्कीस-बाईस की।
संस्कृत में एम ए किया था और
समाजवादी युवजन सभा का सक्रिय सदस्य रह चुका था। संस्कृत पढ़ने वाले का पोंगापन और युवजन सभा वाले की बड़बोली
क्रान्तिकारिता- माननीय अनुपम मिश्र में नहीं थी।
भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया
छोड़कर गाँधी संस्था करने का एहसान भी वह दूसरों
पर नहीं करता था। ऐसे रहता, जैसे रहने की क्षमा
माँग रहा हो। आपको लजाने या आत्मदया में नहीं, सहज ही। जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलिए चाहता हो कि आप उसे माफ कर दें। जैसे किसी पर उसका कोई
अधिकार ही न हो और उसे जो मिला है या मिल रहा है वह देने वाले की कृपा हो। मई
बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लिए चम्बल घाटी शान्ति मिशन ने हमें एक जीप दे दी। हम चले तो
अनुपम चकित। उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है। सच, इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी।
ऐसे विनम्र सेवक का आप क्या कर लेंगे?
समझ न
आए, तो अचार भी डाल कर नहीं रख सकते। अनुपम मिश्र से बरतना
आसान नहीं था। अब भी नहीं है।
बहरहाल,
गाँधी
शताब्दी आई-गई हो गई और गाँधी संस्थाओं ने उपसंहार की तरह गाँधी जी का काम फिर शुरू किया। विनोबा क्षेत्र संन्यास लेकर पवार के
परमधाम में बैठे और बी से बाबा और बी से बोगस कह।कर ग्राम स्वराज कायम करने की निजी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए।
सबको लगता था कि अब यह काम जेपी का है। और जेपी को
लगने लगा कि ग्राम स्वराज सर्वेषाम् अविरोधेन नहीं आएगा। संघर्ष के बिना आन्दोलन
में गति और शक्ति नहीं आएगी और अन्याय से तो लडऩा ही होगा। बाबा के रास्ते से जेपी
कुछ करना चाहते थे, लेकिन लक्ष्य उनका
भी ग्राम स्वराज ही था। मुसहरी में जेपी ने नक्सलवादी हिंसा का सामना करने का एलान
किया। फिर बांग्लादेश के संघर्ष और चम्बल के डाकुओं के समर्पण में लग गए।
सर्वोदयी गतिविधियों का दिल्ली में केन्द्र ‘गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान’ हो गया और अनुपम और मैं आन्दोलन के बारे में लिखने, पत्रिकाएँ निकालने और सर्वोदय प्रेस सर्विस चलाने में लग गए। उसी सिलसिले में अनुपम का उत्तराखण्ड आना-जाना होता। भवानी बाबू गाँधी निधि में ही रहने आ गए थे, इसलिए कामकाज दिन-रात हो सकता था। फिर चमोली में चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने 'चिपको’ कर दिया। चिपको आन्दोलन पर पहली रपट अनुपम मिश्र ने ही लिखी। चूँकि सर्वोदयी पत्रिकाओं की पहुँच सीमित थी इसलिए वह रपट हमने रघुवीर सहाय को दी और ‘दिनमान’ में उन्होंने उसे अच्छी तरह छापा। चिपको आन्दोलन को बीस से ज्यादा साल हो गए हैं, लेकिन अनुपम का उत्तराखण्ड से सम्बन्ध अब भी उतना ही आत्मीय है। जिसे आज हम पर्यावरण के नाम से जानते हैं, उसके संरक्षण का पहला आन्दोलन चिपको ही था और वह किसी पश्चिमी प्रेरणा से शुरू नहीं हुआ। पेड़ों को कटने से रोकने के लिए शुरू हुए इस आन्दोलन और इससे आई पर्यावरणीय चेतना पर कोई लिख सकता है, तो अनुपम मिश्र। लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं ,तो अनुपम मिश्र हाथ जोड़ लेंगे। अपना क्या है जी, अपन जानते ही क्या हैं!
लेकिन इसके पहले कि अनुपम मिश्र पूरी तरह पर्यावरण के
काम में पड़ते, बिहार आन्दोलन छिड़
गया। हम लोग गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से ‘एवरीमैन्स’ होते हुए 'एक्सप्रेस’ पहुँच गए और 'प्रजानीति’ निकालने लगे। तब भी दिल्ली के एक्सप्रेस दफ्तर में कोई विनम्र सेवक
पत्रकार था तो अनुपम मिश्र। सबकी कॉपी ठीक करना, प्रूफ पढऩा, पेज बनवाना, तम्बाकू के पान के जरिये प्रेस को प्रसन्न रखना और
झोला लटकाकर पैदल दफ्तर आना और जब भी काम पूरा हो पैदल ही घर जाना। प्रोफेशनल जर्नलिस्टों
के बीच अनुपम मिश्र विनम्र सेवक मिशनरी पत्रकार रहे। इमरजेंसी लगी, 'प्रजानीति’ और फिर ‘आसपास’
बन्द
हुआ तो अनुपम को इस मुश्किल भूमिका से मुक्ति मिली। 'जनसत्ता’
निकला
,तो रामनाथ जी गोयनका की
बहुत इच्छा थी कि अनुपम उसमें आ जाएँ। अपन ने भी उसे समझाने-पटाने की बहुत कोशिश
की, लेकिन अनुपम बन्दा लौट कर
पत्रकार नहीं हुआ।

इमरजेंसी उठी और चुनाव में जनता पार्टी की हवा बहने
लगी ,तो कई लोग कहते कि अब हम
लोगों के वारे-न्यारे हो जाएँगे। किसी को यह भी लगता कि प्रभाष जोशी तो चुनाव लड़के लोकसभा
पहुँच जाएगा। जेपी से निकटता को भला कौन नहीं भुनाएगा। लेकिन अपन 'एक्सप्रेस’ में चुनाव सेल चलाने में लगे और अनुपम वहाँ भी मदद
करने लगा। जनता पार्टी जीती तो गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से सरकारी दमन का साया
हटा। अनुपम आखिर प्रतिष्ठान में काम करने लगा। अपना एक पाँव ‘एक्सप्रेस’ में और दूसरा शान्ति प्रतिष्ठान में। उन्हीं दिनों नैरोबी से राष्ट्रसंघ
के पर्यावरण कार्यक्रम का पत्र मिला कि क्या गाँधी शांति प्रतिष्ठान भारत की
स्वयंसेवी संस्थाओं का एक सर्वे करके दे सकता है ?
हम
इतने डॉलर सर्वे के लिए दे सकेंगे। यह भी
ख्याल रखिए कि क्या ये संस्थाएँ पर्यावरण
का काम करने में रुचि ले सकती हैं। राधाकृष्ण जी और मुझे लगा कि यह सर्वे तो अनुपम
ही सबसे अच्छा कर सकता है। काम उसे दिया गया और निश्चित समय में न सिर्फ पूरा हुआ
बल्कि जितना खर्च मिला था , उसका एक तिहाई भी
खर्च नहीं हुआ। उस सर्वे से अनुपम का देश की स्वयंसेवी संस्थाओं और पर्यावरण के
काम में लगी विदेशी संस्थाओं से जो सम्पर्क हुआ वह न सिर्फ कायम है ; बल्कि जीवन्त चल रहा है।
लेकिन एक बार राधाकृष्ण जी ने अनुपम से कहा कि फलाँ-फलाँ विदेशी संस्था से इतना
पैसा इस प्रोजेक्ट के लिए मिला है और
हमारी इच्छा है कि इसमें से तुम पाँच-छह हजार रुपया महीना ले लो।
तब अनुपम के मित्र इससे ज्यादा वेतन सहज ही पाते थे और प्रोजेक्ट करने वाले को तो
वे पैसे मिलने ही थे;लेकिन अनुपम
घबराया-सा मेरे पास आया। वह प्रतिष्ठान की सात सौ रुपल्ली के अलावा कहीं से भी एक
पैसा लेने को तैयार नहीं था। विदेशी पैसा है, मैं जानता हूँ इफरात में मिलता है। इसे लेने वालों का पतन भी मैने देखा
है। अपने देश का काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें?
अगर आप अनुपम को जानते हों तो उसका संकोच एकदम समझ में
आ जाएगा। नहीं तो उसके मुँह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू कहने वालों में आप भी
शामिल हो सकते हैं। पिछले तीन साल से होशंगाबाद में नर्मदा के किनारे उसके लिए पर्यावरण की कोई संस्था
खड़ी करने के जुगाड़ में हूँ। इसलिए भी कि देश के
पर्यावरण के लिए नर्मदा योजना आर-पार की साबित हो सकती है। लेकिन अनुपम को सरकारी
जमीन और पैसा नहीं चाहिए। विदेशी पैसे को वह हाथ
नहीं लगाएगा, और तो और, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान छोड़कर अपना बनाया गाँधी
शान्ति केन्द्र चला रहे, राधाकृष्ण जी से भी
वह संस्था खड़ी करने के लिए एकमुश्त पैसा
नहीं लेगा। कुछ उद्योगपतियों से पैसा ला सकता हूँ, लेकिन मुझे मालूम है कि वे पैसा क्यों और कैसे देते हैं। और वह लाना अनुपम
के साथ छल करना होगा।
पर्यावरण का काम आजकल विदेश यात्रा का सबसे सुलभ मार्ग
है। अनुपम एक-आध बार तो नैरोबी गया,
क्योंकि
पर्यावरण सम्पर्क केन्द्र के बोर्ड में निदेशक बना दिया गया था। कुछ और यात्राएँ
भी वैसे ही की जैसे आप-हम मेरठ, अलवर या चण्डीगढ़
हो आते हैं। झोला टांगा और हो आए। मैं नहीं जानता कि बाहर बैठक में अंग्रेजी कैसे
बोलता होगा? बोलना ही नहीं
चाहता। मुंह टेढ़ा करके अमेरिकी स्लैंग में अंग्रेजी बोलना तो अनुपम के लिए पाप-कर्म होगा। धीरे-धीरे उसने बहुत जरूरी विदेश
यात्राएँ भी बन्द कर दीं। पिछले साल रियो में हुए विश्व सम्मेलन का कार्यक्रम तय
करने के लिए पिछले साल फ्रांस सरकार की मदद से पर्यावरण सम्पर्क केंद्र ने पेरिस
में सम्मेलन किया था। अनुपम को ही लोग भेजते थे। उसने भेजे पर खुद ऐन मौके पर ना
कर गया। रियो भी नहीं गया।
भारत सरकार या राज्य सरकारों को पर्यावरण पर सलाह वह
नहीं देता। कमेटियों और प्रतिनिधिमंडलों में शामिल नहीं होता। गाँधी शान्ति
प्रतिष्ठान में चुपचाप सिर गड़ाए मनोयोग से काम करता रहता है। उसकी पुरानी कुर्सी
के पीछे एक स्टिकर चिपका है- पॉवर विदाउट परपज- सता बिना प्रयोजन के। अनुपम के पास
प्रयोजन ही नहीं सत्ता का स्पर्श भी नहीं है। आज तक वैसे ही तंगी में यात्रा करता
है ,जैसे हम जेपी आन्दोलन के
समय झोला लटकाए किया करते थे। और ज्यादातर यात्राएँ बीहड़, सुनसान,
रेगिस्तान
या जंगलों से।
अनुपम को लड़कपन में गिलटी की टीबी हुई थी। इस बीच
उसके दिल ने भवानी बाबूवाला रास्ता पकड़ लिया था। नाड़ी कभी पचास हो जाए और कभी एक
सौ पचास। दिल का चलना इतना अनियमित हो गया कि सब परेशान, कौन जाने कब क्या हो जाए! लड़-झगड़कर डॉक्टर खलीलुल्लाह को दिखाया। उन्होंने गोली
दी और कहा कि पेस मेकर लगवा लो। मन्ना यानी भवानी बाबू को लगा ही था। लेकिन अनुपम
ने न गोली ली न पेस मेकर लगवाना मंजूर किया। निमोनिया कभी भी हो जाए। मुझे और
बनवारी (जो कि अनुपम के कॉलेज के दोस्त हैं) को लगे कि अनुपम में शहीद होने की
इच्छा है; लेकिन अनुपम अपनी बीमारी
से पर्यावरण काम करते हुए और किताबे निकालते हुए लड़ रहा है।
'देश का पर्यावरण’ उसने कोई नौ-दस साल पहले निकाली। सम्पादित है। लेकिन क्या तो जानकारी, क्या भाषा, क्या सज्जा और क्या सफाई! जिस दिलीप चिंचालकर ने ‘जनसत्ता’
का मास्टर,हेड बनाया, अखबार डिजाइन किया उसी दिलीप ने इस किताब का ले आऊट, स्केचिंग और सज्जा की है। हिन्दी में ही नहीं, इस देश में अंग्रेजी में भी ऐसी किताब निकली हो तो
बताना! लेकिन अनुपम ने किताब निकालने में भी शान्ति प्रतिष्ठान का पैसा नहीं लगाया।
फोल्डर छपाया। संस्थाओं और पर्यावरण में रुचि रखने वाले लोगों से अग्रिम कीमत मँगवाई। उसी से कागज खरीदा, छपाई करवाई। फिर खुद ही चिट्ठी लिख-लिखकर किताब बेची। दो हजार छपाई थी, आठ हजार लागत लगी। दो लाख कमाकर अनुपम ने प्रतिष्ठान
में जमा कराया।
4 साल बाद 'हमारा पर्यावरण’ निकाली। 'देश के पर्यावरण’ से भी बेहतर इसका भी फोल्डर छपवाकर अग्रिम कीमत इकट्ठी
की। इस बार खर्च डेढ़ लाख के आस-पास हुआ। पुस्तक छपी 6 हजार। फिर चिट्ठियाँ लिखकर बेची। शान्ति प्रतिष्ठान
में जमा कराए (कमाकर) नौ लाख रुपए। आज ये
दोनों किताबें दुर्लभ हैं और मजा यह है कि पर्यावरण मन्त्रालय ने इन पुस्तकों को
नहीं खरीदा। हिन्दी के किसी भी राज्य ने किताबों की सरकारी खरीद में इसे नहीं
खरीदा। किसी प्रकाशक ने वितरण और बिक्री में कोई मदद नहीं की। पिछले दस साल के देश
के पर्यावरण पर हिन्दी में ऐसी किताबें नहीं निकलीं। अनुपम ने न सिर्फ लिखी और
छापी, बेची भी और कोई दस लाख
कमाकर संस्था को दिया।
और अनुपम मिश्र ने 'आज भी खरे हैं तालाब’ निकाली है यह
संपादित नहीं है अनुपम ने खुद लिखी है। नाम कहीं अन्दर है छोटा सा, लेकिन हिन्दी के चोटी के विद्वान ऐसी सीधी, सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिन्दी तो जरा लिखकर बताएँ! जानकारी
की तो बात कर ही नहीं रहा हूँ। अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रख कर देखा है।
समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह की पिरोया है। कोई
भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता था। लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, पर्यावरणविद् नहीं, शोधक विद्वान नहीं, भारत के समाज और
तालाब से उसके सम्बन्ध को सम्मान से समझने वाला विनम्र भारतीय। ऐसी सामग्री हिन्दी
में ही नहीं अंग्रेजी और किसी भी भारतीय भाषा में आप को तलाब पर नहीं मिलेगी। तालाब
पानी का इंतजाम करने का पुण्य कर्म है जो इस देश के सभी लोगों ने किया है। उनको
उनके ज्ञान को और उनके समर्पण को बता सकने वाली एक यही किताब है। आप चाहें तो
कोलकाता का राष्ट्रीय सभागार देख लें। यह किताब भी दूसरी किताबों की तरह ही निकली
है। ‘वृक्ष मित्र पुरस्कार’ जिस साल चला अनुपम को दिया गया था। पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है। उसके जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर
हमारे जैसे लोग जी रहे हैं। यह उसका और हमारा- दोनों का सौभाग्य है।
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