- डॉ. रत्ना वर्मा
अनुपम जी से मैं कभी
नहीं मिली हूँ, पर मुझे कभी ऐसा
लगा ही नहीं कि मैं उनसे नहीं मिली,
पिछले
तीन- चार वर्षों में शायद तीन या चार बार फोन पर उनसे बात करने का सौभाग्य मुझे
प्राप्त हुआ है। कभी उनके लेखों के संदर्भ में तो कभी उनकी किताबों के बारे में, तो कभी उनकी पत्रिका गाँधी मार्ग के बारे में। वे हर
बार इतनी आत्मीयता और इत्मीनान से बात करते थे कि मैं चकित रह जाती थी। यह सोचकर कि इतने व्यस्त और इतने बड़े- बड़े काम
करने वाले अनुपम जी मुझ अनजान से इतनी उदारतापूवर्क
कैसे बात कर लेते हैं, ऐसे जैसे उनसे बरसो
का नाता हो। और यह सच भी है, वे सबके साथ ऐसे ही
आत्मीय नाता बनाकर चलते रहे। उनके जानने वाले उनके इस स्वभाव के बारे में बहुत
अच्छे से जानते हैं।
पहली बार अपनी पत्रिका उदंती के लिए उनके लिखे लेखों
के प्रकाशन के लिए जब मैंने अनुमति चाही , तो उन्होंने पूछा कि आपने 'आज भी खरे है तालाब’ पढ़ी है,
जब
मैंने कहा पुस्तक तो नहीं पर उसके कई अंश मैंने पढ़े हैं; जो विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और वेब पेजों पर प्रकाशित
हुए हैं। तब उन्होंने कहा कि मैं आपको यह पुस्तक भिजवाता हूँ और साथ ही गाँधी शांति प्रतिष्ठान की
गाँधी मार्ग भी। उदंती में प्रकाशन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि मेरी यह किताब
तो कॉपी राइट से मुक्त है। आप
जो चाहे जितना चाहे प्रकाशित कर सकती हैं। उनके इतना कहते ही मैं अभिभूत हो गई।
मुझे कुछ कहते ही नहीं बना, न ही मैं शुक्रिया
के दो शब्द ही कह पाई। मेरा शुक्रिया कहना बहुत छोटा शब्द होता। सच कहूँ तो
पुस्तकें भेजकर वे मुझ पर आशीर्वाद बरसा रहे थे और मैं नतमस्तक होकर उन्हें
स्वीकार रही थी, नि:शब्द।
कुछ समय बाद ये दोनों किताबें मेरे पास डाक से पँहुच
गईं। मैंने तुरंत उन्हें फोन करके प्राप्ति की सूचना दी, तब मैं अपने आपको यह कहने से रोक नहीं पाई कि आपने
मुझे इस लायक समझा मैं आभारी हूँ आपकी। दोनों पुस्तकें पाकर मैं धन्य हो गई। वे हँस दिए और कहा कि आप अपनी
पत्रिका के माध्यम से देश के पर्यावरण को पानी को बचाने की दिशा में काम कर रही
हैं ,यह देश के लिए आपका अमूल्य
योगदान है। जिस तरह मेरा लिखा आप पढ़ रही हैं और उसे अपनी पत्रिका के माध्यम से
लोगों तक पँहुचा रही हैं, वह आपका बहुत बड़ा
काम है और इस उपक्रम से यदि एक व्यक्ति भी जागरूक होता है , तो यह देश के प्रति आपका बड़ा योगदान होगा। तब
उन्होंने अपनी एक और किताब जो पेंगुइन प्रकाशन की है- ‘साफ माथे का समाज’ के बारे में भी जानकारी दी,
जिसे
मैंने बाद में खरीद लिया। फिर एक-दो बार उनसे बात हुई और मैंने आज भी खरे हैं
तालाब के अलावा उनके प्रकाशित अन्य लेखों के लिए प्रकाशन की अनुमति चाही तो वे
बोले मेरा लिखा आप हमेशा छाप सकती हैं। हम जो लिखते हैं वह ज्यादा से ज्यादा लोग
पढ़ें यही हमारी मंशा होती है। हम लिखते ही इसीलिए हैं, मना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। तो ऐसे थे अनुपम
जी।
उनकी इन बातों ने मेरे मन में नया उत्साह और नई ऊर्जा भर दी। मैं सोचने लगी -जब अनुपम जी फोन पर बात करके इतनी प्रेरणादायी बाते
करते हैं, तो उनसे मिलना, उनसे रूबरू होना कितना उत्साहजनक होता होगा। यूट्यूब में विभिन्न
स्थानों पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यानों को सुनने से ही समझ में आ जाता है कि
उनके शब्द कितने सच्चे, खरे और प्रेरक होते
हैं। उनसे न मिल पाने का अफ़सोस तो रहेगा ही, पर इस बात का संतोष भी है कि मैं उन चंद लोगों में से
हूँ, जिसे उनसे बात करने का
अवसर मिला।
पर्यावरण और
खासकर पानी संरक्षण पर लिखे और बोले गए उनके विचारों ने मुझे हमेशा ही प्रभावित
किया है। मैं जितना उन्हें पढ़ती गई ,उतना ही उनके लिए
आदर और सम्मान का भाव उठता, कि हमारे पास इतनी
अच्छी सोच और इतना अच्छा रास्ता दिखाने वाला व्यक्ति मौजूद है, जो हमें अपने अध्ययन, अपने शोध के आधार पर उस जमाने में ले जाते हैं ,जब आज जैसे न आधुनिक साधन थे न ऐसी तकनीक, पर फिर भी पानी बचाने के जो तरीके और पर्यावरण की
रक्षा के जो उपाय हमारे पुरखे करते थे, वे आज के मुकाबले कहीं ज्यादा कारगर और पर्यावरण के संरक्षक उपाय थे। वे
हम सबको यही बताने की कोशिश करते रहे कि हम परम्परागत जल- संरक्षण के उपाय को
अपनाकर ही पीने के पानी की समस्या से उबर सकते हैं। वे ये सारे काम बिना हो-हल्ला किए चुपचाप करते चले जा रहे थे। जन -चेतना जगाने का उनका तरीका सबसे अलग था।
जब उदंती के
संस्मरण अंक की तैयारी कर रही थी तब,
पिता
भवानी प्रसाद मिश्र पर उनका लिखा एकमात्र संस्मरण उदंती में प्रकाशित करने की
अनुमति हेतु जब मैंने फोन किया ,तो उनसे बात नहीं
हो पाई। मुझे उनके सहयोगी ने बताया कि वे बीमार हैं और अस्पताल में हैं। मैंने
उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की और उदंती के जनवरी 2016 के संस्मरण अंक के प्रकाशन के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा -आप उनका संस्मरण प्रकाशित कर सकती हैं, हाँ अंक अवश्य भिजवा दीजिएगा। तब मैंने कल्पना भी नहीं कि अनुपम जी की
बीमारी इतनी गंभीर होगी और
19 दिसम्बर को उनके न होने की
दुखद खबर मिलेगी। दिल को जबरदस्त सदमा
लगा। उन्हें तो अभी बहुत कुछ करना था,
आज के
युवाओं को बताना था कि अपने देश के पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर
है। अभी बहुत कुछ करना है। अब हम सबके सामने एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि कौन अब
दिखाएगा रास्ता।
यह हम सबके लिए बेहद दुख: की बात है कि पर्यावरण
के प्रति चिंता व्यक्त करने वाले अनुपम जी असमय ही हम सबको छोड़कर चले गए। पानी का
रखवाला चला गया, लेकिन
उनके विचार उनकी बातें, पानी
और पर्यावरण पर उनकी चिंता उनके शब्दों के रुप में उनके किताबों में अब भी जिंदा
हैं, जिनपर
अमल करते हुए हमें आगे बढऩा है। पर्यावरण की रक्षा करनी है। अगर हम ऐसा कर पाए तो
यही हम सबकी उनके प्रति सच्ची और खरी श्रद्धांजलि होगी। उदंती के इस अंक को सादर
नमन के साथ मैं अनुपम जी को समर्पित कर रही हूँ, जो उनके द्वारा लिखे लेखों और
वक्तव्यों पर आधारित है।
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