- भीष्म साहनी
उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते
थे।
शहर की गलियाँ लाँघकर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे। हीरालाल को बातें
करने का शौक था और मुझे उसकी बातें सुनने का। वह बातें करता तो लगता जैसे जिंदगी
बोल रही है। उसके किस्से-कहानियों का अपना फलसफाना रंग होता। लगता जो कुछ किताबों
में पढ़ा है सब गलत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है। हीरालाल मुझसे
उम्र में बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है, बड़ा
अनुभवी और पैनी नजर का आदमी है।
उस रोज हम गलियाँ लाँघ चुके थे और बाग की लंबी दीवार को पार कर ही रहे थे
जब हीरालाल को अपने परिचय का एक आदमी मिल गया। हीरालाल उससे बगलगीर हुआ, बड़े तपाक से उससे बतियाने लगा,
मानों बहुत दिनों बाद मिल रहा हो।
फिर मुझे संबोधन करके बोला, आओ, मैं तुम्हारा
परिचय कराऊँ..यह शुक्ला जी हैं...
और गदगद आवाज में कहने लगा, इस शहर में चिराग ले कर भी ढूँढ़ने जाओ तो
इन-जैसा नेक आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा?
शुक्ला जी के चेहरे पर विनम्रतावश हल्की-सी लाली दौड़ गई। उन्होंने हाथ
जोड़े और एक धीमी-सी झेंप-भरी मुस्कान उनके होंठों पर काँपने लगी।
इतना नेकसीरत आदमी ढूँढ़े भी नहीं मिलेगा। जिस ईमानदारी से इन्होंने जिंदगी
बिताई है मैं तुम्हें क्या बताऊँ। यह चाहते तो महल खड़े कर लेते, लाखों रुपया इकट्ठा कर लेते...
शुक्ला जी और ज्यादा झेंपने लगे। तभी मेरी नजर उनके कपड़ों पर गई। उनका
लिबास सचमुच बहुत सादा था, सस्ते से जूते, घर का
धुला पाजामा, लंबा बंद गले का कोट और खिचड़ी मूँछें। मैं
उन्हें हेड क्लर्क से ज्यादा का दर्जा नहीं दे सकता था।
जितनी देर उन्होंने सरकारी नौकरी की, एक पैसे के रवादार नहीं हुए। अपना हाथ साफ
रखा। हम दोनों एक साथ ही नौकरी करने लगे थे। यह पढ़ाई के फौरन ही बाद कंपटीशन में
बैठे थे और कामयाब हो गए थे और जल्दी ही मजिस्ट्रेट बन कर फीरोजपुर में नियुक्त
हुए थे। मैं भी उन दिनों वहीं पर था...
मैं प्रभावित होने लगा। शुक्ला जी अभी लजाते हाथ जोड़े खड़े थे और अपनी
तारीफ सुन कर सिकुड़ते जा रहे थे। इतनी-सी बात तो मुझे भी खटकी कि साधारण
कुर्ता-पाजामा पहनने वाले लोग आम तौर पर मजिस्ट्रेट या जज नहीं होते। जज होता तो
कोट-पतलून होती,
दो-तीन अर्दली आसपास घूमते नजर आते। कुर्ता-पाजामा में भी कभी कोई
न्यायाधीश हो सकता है?
इस झेंप-विनम्रता-प्रशंसा में ही यह बात रह गई कि शुक्ला जी अब कहाँ रहते
हैं, क्या रिटायर हो गए हैं या अभी भी सरकारी नौकरी करते हैं और उनका
कुशल-क्षेम पूछ कर हम लोग आगे बढ़ गए।
ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई। शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है।
जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर
अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी
आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है। शुक्ला जी ने धन कमाया होता, भले ही बेईमानी से कमाया होता, तो उनका चेहरा दमकता,
हाथ में अँगूठी दमकती, कपड़े चमचम करते,
जूते चमचमाते, बात करने के ढंग से ही रोब
झलकता।
खैर,
हम चल दिए। बाग की दीवार पीछे छूट गई। हमने पुल पार किया और शीघ्र
ही प्रकृति के विशाल आँगन में पहुँच गए। सामने हरे-भरे खेत थे और दूर नीलिमा की
झीनी चादर ओढ़े छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खड़ी थीं। हमारी लम्बी सैर शुरू हो गई थी।
इस महौल में हीरालाल की बातों में अपने आप ही दार्शनिकता की पुट आ जाती है।
एक प्रकार की तटस्थता, कुछ-कुछ वैराग्य-सा, मानो प्रकृति की
विराट पृष्ठभूमि के आगे मानव-जीवन के व्यवहार को देख रहा हो।
थोड़ी देर तक तो हम चुपचाप चलते रहे, फिर हीरालाल ने अपनी बाँह मेरी बाँह में
डाल दी और धीमे से हँसने लगा।
सरकारी नौकरी का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ्तर की फाइल है। सरकारी अफसर को दफ्तर की
फाइल के मुताबिक चलना चाहिए।
हीरालाल मानो अपने आप से बातें कर रहा था। वह कहता गया, इस बात की उसे फिक्र नहीं होनी
चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है। बस,
यह देखना चाहिए कि फाइल क्या कहती है।
यह तुम क्या कह रहे हो? मुझे हीरालाल का तर्क बड़ा अटपटा लगा,
हर सरकारी अफसर का फर्ज है कि वह सच की जाँच करे, फाइल में तो अंट-शंट भी लिखा रह सकता है।
न,
न, न, फाइल का सच ही उस
के लिए एकमात्र सच है। उसी के अनुसार सरकारी अफसर को चलना चाहिए, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। उसे यह जानने की कोशिश
नहीं करनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, यह उसका काम
नहीं...
बेगुनाह आदमी बेशक पिसते रहें?
हीरालाल ने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। इसके विपरीत मुझे इन्हीं
शुक्ला जी का किस्सा सुनाने लगा। शायद इन्हीं के बारे में सोचते हुए उसने यह
टिप्पणी की थी।
जब यह आदमी जज हो कर फीरोजपुर में आया, तो मैं वहीं पर रहता था। यह उसकी पहली
नौकरी थी। यह आदमी सचमुच इतना नेक, इतना मेहनती, इतना ईमानदार था कि तुम्हें क्या बताऊँ। सारा वक्त इसे इस बात की चिंता
लगी रहती थी कि इसके हाथ से किसी बेगुनाह को सजा न मिल जाए। फैसला सुनाने से पहले
इससे भी पूछता, उससे भी पूछता कि असलियत क्या है, दोष किसका है, गुनहगार कौन है? मुलजिम तो मीठी नींद सो रहा होता और जज की नींद हराम हो जाती थी। ...अगर मैं
भूल नहीं करता तो अपनी माँ को इसने वचन भी दिया था कि वह किसी बेगुनाह को सजा नहीं
देगा। ऐसी ही कोई बात उसने मुझे सुनाई भी थी।
छोटी उम्र में सभी लोग आदर्शवादी होते हैं। वह जमाना भी आदर्शवाद का था, मैंने जोड़ा।
पर हीरालाल कहे जा रहा था, आधी-आधी रात तक यह मिस्लें पढ़ता और मेज से
चिपटा रहता। उसे यही डर खाए जा रहा था कि उससे कहीं भूल न हो जाए। एक-एक केस को
बड़े ध्यान से जाँचा करता था।
फिर यों हाथ झटक कर और सिर टेढ़ा करके मानो इस दुनिया में सही क्या है और
गलत क्या है,
इसका अंदाज लगा पाना कभी सम्भव ही न हो, हीरालाल कहने लगा,
उन्हीं दिनों फीरोजपुर के नजदीक एक कस्बे में एक वारदात हो गई और
केस जिला कचहरी में आया। मामूली-सा केस था। कस्बे में रात के वक्त किसी राह-जाते
मुसाफिर को पीट दिया गया था और उसकी टाँग तोड़ दी गई थी। पुलिस ने कुछ आदमी हिरासत
में ले लिये थे और मुकदमा इन्हीं शुक्ला जी की कचहरी में पेश हुआ था। आज भी वह
सारी घटना मेरी आँखों के सामने आ गई है... अब जिन लोगों को हिरासत में ले लिया गया
था ,उनमें इलाके का जिलेदार और उसका जवान बेटा भी शामिल थे। पुलिस की रिपोर्ट थी
कि जिलेदार ने अपने लठैत भेज कर उस राहगीर को पिटवाया है। जिलेदार खुद भी
पीटनेवालों में शामिल था। साथ में उसका जवान बेटा और कुछ अन्य लठैत भी थे। मामला
वहाँ रफा-दफा हो जाता ,अगर उस राहगीर की टाँग न टूट गई होती। मामूली मारपीट की तो
पुलिस परवाह नहीं करती ;लेकिन इस मामले को तो पुलिस नजर?अंदाज
नहीं कर सकती थी। खैर, गवाह पेश हुए, पुलिस
ने भी मामले की तहकीकात की और पता यही चला कि जिलेदार ने उस आदमी को पिटवाया है,
और पीटनेवाले, राहगीर को अधमरा समझ कर छोड़ गए
थे।
तीन महीने तक केस चलता रहा। हीरालाल कहने लगा, केस में कोई उलझन, कोई पेचीदगी नहीं थी, पर हमारे शुक्ल जी को चैन कहाँ?
इधर जिलेदार के हिरासत में लिये जाने पर, हालाँकि
बाद में उसे जमानत पर छोड़ दिया गया था, कस्बे-भर में
तहलका-सा मच गया था। जिलेदार को तो तुम जानते हो ना। जिलेदार का काम मालगुजारी
उगाहना होता है और गाँव में उसकी बड़ी हैसियत होती है। यों वह सरकारी कर्मचारी
नहीं होता।
खैर! तो जब फैसला सुनाने की तारीख नजदीक आई तो शुक्ला जी की नींद हराम।
कहीं गलत आदमी को सजा न मिल जाए। कहीं कोई बेगुनाह मारा न जाए। उधर पुलिस तहकीकात
करती रही थी,
इधर शुक्ला जी ने अपनी प्राइवेट तहकीकात शुरू कर दी। इससे पूछ,
उससे पूछ। जिस दिन फैसला सुनाया जाना था, उससे एक दिन पहले शाम को
यह सज्जन उस कस्बे में जा पहुँचे और वहाँ के तहसीलदार से जा मिले। वह उनकी पुरानी
जान-पहचान का था। उन्होंने उससे भी पूछा कि भाई, बताओ भाई,
अंदर की बात क्या है, तुम तो कस्बे के अंदर
रहते हो, तुमसे तो कुछ छिपा नहीं रहता है। अब जब तहसीलदार ने
देखा कि जिला-कचहरी का जज चल कर उसके घर आया है, और जज का
बड़ा रुतबा होता है, उसने अंदर की सही-सही बात शुक्ला जी को
बता दी। शुक्ला जी को पता चल गया कि सारी कारस्तानी कस्बे के थानेदार की है,
कि सारी शरारत उसी की है। उसकी कोई पुरानी अदावत जिलेदार के साथ थी
और वह जिलेदार से बदला लेना चाहता था। एक दिन कुछ लोगों को भिजवा कर एक राह-जाते
मुसाफिर को उसने पिटवा दिया, उसकी टाँग तुड़वा दी और जिलेदार
और उसके बेटे को हिरासत में ले लिया। फिर एक के बाद एक झूठी गवाही। अब कस्बे के
थानेदार की मुखालफत कौन करे? किसकी हिम्मत? तहसीलदार ने शुक्ला जी से कहा कि मैं कुछ और तो नहीं जानता, पर इतना जरूर जानता हूँ कि जिलेदार बेगुनाह है, उसका
इस पिटाई से दूर का भी वास्ता नहीं।
वहाँ से लौट कर शुक्ला दो-एक और जगह भी गया। जहाँ गया, वहाँ पर उसने जिलेदार की तारीफ
सुनी। जब शुक्ला जी को यकीन हो गया कि मुकदमा सचमुच झूठा है तो उसने घर लौट कर
अपना पहला फैसला फौरन बदल दिया और दूसरे दिन अदालत में अपना नया फैसला सुना दिया
और जिलेदार को बिना शर्त रिहा कर दिया।
उसी दिन वह मुझे क्लब में मिला। वह सचमुच बड़ा खुश था। उसे बहुत दिन बाद
चैन नसीब हुआ था। बार-बार भगवान का शुक्र कर रहा था कि वह अन्याय करते-करते बच गया, वरना उससे बहुत बड़ा पाप होने
जा रहा था। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो रही थी। यह तो अचानक ही मुझे सूझ गया और मैं
तहसीलदार से मिलने चला गया। वरना मैंने तो अपना फैसला लिख भी डाला था, उसने कहा।
हीरालाल की बात सुन कर मैं सचमुच प्रभावित हुआ। अब मेरी नजरों में शुक्ला
सस्ते जूतों और मैलों कपड़ों में एक ईमानदार इंसान ही नहीं था; बल्कि एक
गुर्देवाला,
जिंदादिल और जीवटवाला व्यक्ति था। उसे बाग की दीवार के पास खड़ा देख
कर जो अनुकंपा-सी मेरे दिल में उठी थी वह जाती रही और मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धा
से भर उठा। हमें सचमुच ऐसे ही लोगों की जरूरत है जो मामले की तह तक जाएँ और
निर्दोष को आँच तक न आने दें।
खेतों की मेड़ों के साथ-साथ चलते हम बहुत दूर निकल आए थे। वास्तव में उस
सफेद बुत तक जा पहुँचे थे जहाँ से हम अक्सर दूसरे रास्ते से मुडऩे लगते।
फिर जानते हो क्या हुआ? हीरालाल ने बड़ी आत्मीयता से कहा।
कुछ भी हुआ हो हीरालाल, मेरे लिए इतना ही काफी है कि यह आदमी
जीवटवाला और ईमानदार है। अपने उसूल का पक्का रहा।
सुनो,
सुनो, एक उसूल जमीर का होता है तो दूसरा फाइल
का। हीरालाल ने दानिशमंदों की तरह सिर हिलाया और बोला, आगे
सुनो... फैसला सुनाने की देर थी कि थानेदार तो तड़प उठा। उसे तो जैसे साँप ने डस
लिया हो। चला था जिलेदार को नीचा दिखाने, उल्टा सारे कस्बे
में लोग उसकी लानत-मलामत करने लगे। चारों ओर थू-थू होने लगी। उसे तो उल्टे
लेने-के-देने पड़ गए थे।
पर वह भी पक्का घाघ था उसने आव
देखा न ताव,
सीधा डिप्टी-कमिश्नर के पास जा पहुँचा। जहाँ डिप्टी-कमिश्नर जिले का
हाकिम होता है, वहाँ थानेदार अपने कस्बे का हाकिम होता है।
डिप्टी-कमिश्नर से मिलते ही उसने हाथ बाँध लिये, कि हुजूर मेरी इस इलाके से तबदीली कर दी
जाए। डिप्टी-कमिश्नर ने कारण पूछ तो बोला, हुजूर, इस इलाके को काबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है। यहाँ चोर-डकैत बहुत हैं,
बड़े मुश्किल से काबू में रखे हुए हूँ। मगर हुजूर, जहाँ जिले का जज ही रिश्वत लेकर शरारती लोगों को रिहा करने लगे, वहाँ मेरी कौन सुनेगा। कस्बे का निजाम चौपट हो जाएगा। और उसने अपने ढंग से
सारा किस्सा सुनाया। डिप्टी-कमिश्नर सुनता रहा। उसके लिए यह पता लगाना कौन-सा
मुश्किल काम है कि किसी अफसर ने रिश्वत ली है या नहीं ली है, कब ली है और किससे ली है। थानेदार ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि फैसला
सुनाने के एक दिन पहले जज साहब हमारे कस्बे में भी तशरीफ लाए थे। डिप्टी-कमिश्नर
ने सोच-विचार कर कहा कि अच्छी बात है, हम मिस्ल देखेंगे,
तुम मुकद्दमे की फाइल मेरे पास भिजवा दो। थानेदार की बाँछें खिल
गईं। वह चाहता ही यही था, उसने झट से फिर हाथ बाँध दिए,
कि हुजूर एक और अर्ज है। मिस्ल पढऩे के बाद अगर आप मुनासिब समझें तो
इस मुकदमे की हाईकोर्ट में अपील करने की इजाजत दी जाए।
आखिर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। डिप्टी-कमिश्नर ने मुकदमे की मिस्ल मँगवा
ली। शुरू से आखिर तक वह मुकद्दमे के कागजात देख गया, सभी गवाहियाँ देख गया, एक-एक कानूनी नुक्ता देख गया और उसने पाया कि सचमुच फैसला बदला गया है।
कागजों के मुताबिक तो जिलेदार मुजरिम निकलता था। मिस्ल पढऩे के बाद उसे थानेदार की
यह माँग जायज लगी कि हाईकोर्ट में अपील दायर करने की इजाजत दी जाए। चुनाचे उसने
इजाजत दे दी।
फिर क्या?
शक की गुंजाइश ही नहीं थी। डिप्टी कमिश्नर को भी शुक्ला की ईमानदारी
पर संदेह होने लगा...
कहते-कहते हीरालाल चुप हो गया। धूप कब की ढल चुकी थी और चारों ओर शाम के
अवसादपूर्ण साए उतरने लगे थे। हम देर तक चुपचाप चलते रहे। मुझे लगा मानो हीरालाल
इस घटना के बारे में न सोच कर किसी दूसरी ही बात के बारे में सोचने लगा है।
ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया, वह कहने लगा, मामला
हाईकोर्ट में पेश हुआ और हाईकोर्ट ने जिला-अदालत के फैसले को रद्द कर दिया।
जिलेदार को फिर से पकड़ लिया गया और उसे तीन साल की कड़ी कैद की सजा मिल गई।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले मे शुक्ला पर लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता
पर संदेह भी प्रकट किया।
इस एक मुकद्दमे से ही शुक्ला का दिल टूट गया। उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि
उसने जिले से तबदीली करवाने की दरख्वास्त दे दी और सच मानो, उस एक फैसले के कारण ही वह
जिले-भर में बदनाम भी होने लगा था। सभी कहने लगे, रिश्वत
लेता है। बस, इसके बाद पाँच-छह साल तक वह उसी महकमे में
घिसटता रहा, इसका प्रमोशन रुका रहा। इसीलिए कहते हैं कि
सरकारी अफसर को फाइल का दामन कभी भी नहीं छोडऩा चाहिए, जो
फाइल कहे, वही सच है, बाकी सब झूठ
है...
अँधेरा घिर आया था और हम अँधेरे में ही धीमे-धीमे शहर की ओर लौटने लगे थे।
मैं समझ सकता हूँ कि शुक्ला के दिल पर क्या बीती होगी और वह कितना हतबुद्धि और
परेशान रहा होगा। वह जो न्यायप्रियता का वचन अपनी माँ को दे कर आया था।
फिर?
फिर क्या हुआ? जजी छोड़ कर शुक्ला जी कहाँ गए?
अध्यापक बन गया, और क्या? एक कालिज में दर्शनशास्त्र
पढ़ाने लगा। सिद्धांतों और आदर्शों की दुनिया में ही एक ईमानदार आदमी इत्मीनान से
रह सकता है। बड़ा कामयाब अध्यापक बना। ईमानदारी का दामन इसने अभी भी नहीं छोड़ा
है। इसने बहुत-सी किताबें भी लिखी हैं। बढ़िया
से बढ़िया किताबें लिखता है,
पर व्यवहार की दुनिया से दूर, बहुत दूर...।
2 comments:
हृदय को टच करती हुई कहानी सच की दुनिया में कोई कदर नहीं चारों ओर उसका गला घोटने वाले ही बैठें है ।बहुत सुन्दर चित्रन किया इस बात का ।
आम रूप में एक कहावत है कि सत्य की हमेशा जीत होती है | सुनने में यह भले ही बहुत अच्छा लगे पर असल ज़िंदगी की हकीकत कई बार इससे उलट ही होती है | यथार्थपरक कहानी पढवाने का बेहद शुक्रिया...|
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