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Mar 15, 2016

शाम के वक्त कभी...

                                
                     शाम के वक्त कभी...

- सूर्यभानु गुप्त

शाम टूटे हुए दिलवालों के घर ढूँढ़ती है,
शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो!

शाम आयेगी तो जख्मों का पता पूछेगी,
शाम आयेगी तो तस्वीर कोई ढूँढ़ेगी।
इस कदर तुमसे बड़ा होगा तुम्हारा साया,
शाम आयेगी तो पीने को लहू माँगेगी।

शाम बस्ती में कहीं खूने- जिगर ढूँढ़ती है,
शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो!
याद रह- रह कर कोई सिलसिला आयेगा तुम्हें,
बार- बार अपनी बहुत याद दिलायेगा तुम्हें।

न तो जीते ही, न मरते ही बनेगा तुमसे,
दर्द बंसी की तरह लेके बजायेगा तुम्हें।
शाम सूली-चढ़े लोगों की खबर ढूँढ़ती है,
शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो!

घर में सहरा का गुमां इतना जियादा होगा,
मोम के जिस्म में रौशन कोई धागा होगा।
रुह से लिपटेंगी इस तरह पुरानी यादें,
शाम के बाद बहुत खूनखराबा होगा।

शाम झुलसे हुए परवानों के पर ढूँढ़ती है,
शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो!
किसी महफिल, किसी जलसे, किसी मेले में रहो,
शाम जब आए किसी भीड़ के रेले में रहो।

शाम को भूले से आओ न कभी हाथ अपने,
खुद को उलझाए किसी ऐसे झमेले में रहो।
शाम हर रोज कोई तनहा बशर ढूँढ़ती है,
शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो!


लेखक के बारे में: जन्म- 22 सितम्बर, 1940, नाथूखेड़ा (बिंदकी), जिला- फतेहपुर (उ.प्र.)। बचपन से ही मुंबई में। 12 वर्ष की उम्र से कविता लेखन की शुरुआत। कवि सूर्यभानु गुप्त ऐसे श्रेष्ठ ग़ज़लकार हैं जिन्होंने जिंदगी और समाज की समस्याओं के बरकस हिन्दी ग़ज़ल को भाषा, भावशैली और अभिव्यक्ति का नया तेवर दिया। पिछले 50 वर्षों के बीच विभिन्न काव्य-विधाओं में 600 से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त 200 बालोपयोगी कविताएँ प्रमुख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। समवेत काव्य-संग्रहों में संकलित एवं गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी में अनूदित।  गोधूलि (निर्देशक गिरीश कर्नाड) एवं आक्रोश तथा संशोधन (निर्देशक गोविन्द निहलानी) जैसी प्रयोगधर्मा फिल्मों के अतिरिक्त कुछ नाटकों तथा आधा दर्जन दूरदर्शन- धारवाहिकों में गीत शामिल। एक हाथ की ताली (1997) काव्य संकलन- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली- 110002, पुरस्कार- 1. भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर। 2. परिवार पुरस्कार (1995), मुम्बई।  संप्रति-  सम्प्रति स्वतंत्र लेखन।  मो. 090227 42711

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