कागज की किश्तियाँ
चुनाव होने में अभी दो साल पड़े थे। राज्य में प्रौढ़- शिक्षा पर पांच सौ करोड़ रुपए का खर्च करने की मंजूरी मिली थी। जीपों का मुंह गांवों की तरफ मुड़ गया। अनुभव ने देहातियों को सिखा दिया है कि यहां मन्त्री और अफसर किन कारणों से आते हैं।
नए सिरे से अनपढ़ लोगों की सूचियां बनाई जाने लगीं। इनमें पिछली सूचियों में जोड़े गए कई नाम भी शामिल किए गए।
हमारे गांव बिज्जलपुर में भी ऐसा ही हुआ। जिस दिन प्रौढ़ों को पढ़ाने का सामान लाया गया, उस दिन बच्चों की आंखों में एक नई चमक आ गई। अधनंगे, नाक बहाते बच्चे जीप से कुछ दूर जमा होकर धीरे- धीरे बतियाने लगे।
सुबह का वक्त था। मर्द लोग खेतों में या शहर में निकल गए थे। चौधरी धर्मसिंह ही रह गया था। आवाज सुनकर वह लाठी टेकता, उनके चेहरे पढ़ता हुआ आ पहुंचा। जीप से सामान उतारा जा रहा था। चौधरी ने कहा- 'किस्मत सै रात नें पाणी बरस्या था। सब लोग खेत्तां नै गोडऩ खात्तर गए हैं।' फिर हाथ जोड़कर बोला- 'आप इन बालकां नै कुछ पढ़ा- लिखा दे तो इनकी जिंदगी बण जांदी।'
एक अधिकारी बोला- 'देख ताऊ, हमें बच्चों के लिए नहीं भेजा गया। यह पढऩे- लिखने का सामान रखा है, आने पर उन सबको दे देना।'
डयूटी पूरी करने के बाद ज्यों ही जीप स्टार्ट हुई, बच्चे सामान पर टूट पड़े। बीरू ने किताबों के पन्ने फाड़ते हुए कहा- 'चलो रै, जौहड़ में किश्तियां चलाएंगे।'
रिश्ते
वह आम बस थी और स्वरूप सिंह आम ड्राइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़- भाड़ से बाहर आकर बस तेज हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ स्वरूप सिंह के हाथ आज सख्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिघल रहा था, वह
कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहां कुछ खास बात को। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियां धीमी गति से परेशान हो उठीं।
'ड्राइवर साहब, जरा तेज चलाओ, आगे भी जाना है', एक ने तीखेपन से कहा।
स्वरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा, 'आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।'
इस पर सवारियां और उत्तेजित हो गईं। दो- चार ने आगे- पीछे कहा, 'इसका मतलब यह नहीं कि बीस- तीस पे ढीचम-ढीचम चलाओ।'
कोशिश करके भी स्वरूप सिंह बस तेज नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला, 'बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूं। बस के मुकाम पर पहुंचते ही मैं रिटायर हो जाऊंगा, इसलिए।'
नए सिरे से अनपढ़ लोगों की सूचियां बनाई जाने लगीं। इनमें पिछली सूचियों में जोड़े गए कई नाम भी शामिल किए गए।
हमारे गांव बिज्जलपुर में भी ऐसा ही हुआ। जिस दिन प्रौढ़ों को पढ़ाने का सामान लाया गया, उस दिन बच्चों की आंखों में एक नई चमक आ गई। अधनंगे, नाक बहाते बच्चे जीप से कुछ दूर जमा होकर धीरे- धीरे बतियाने लगे।
सुबह का वक्त था। मर्द लोग खेतों में या शहर में निकल गए थे। चौधरी धर्मसिंह ही रह गया था। आवाज सुनकर वह लाठी टेकता, उनके चेहरे पढ़ता हुआ आ पहुंचा। जीप से सामान उतारा जा रहा था। चौधरी ने कहा- 'किस्मत सै रात नें पाणी बरस्या था। सब लोग खेत्तां नै गोडऩ खात्तर गए हैं।' फिर हाथ जोड़कर बोला- 'आप इन बालकां नै कुछ पढ़ा- लिखा दे तो इनकी जिंदगी बण जांदी।'
एक अधिकारी बोला- 'देख ताऊ, हमें बच्चों के लिए नहीं भेजा गया। यह पढऩे- लिखने का सामान रखा है, आने पर उन सबको दे देना।'
डयूटी पूरी करने के बाद ज्यों ही जीप स्टार्ट हुई, बच्चे सामान पर टूट पड़े। बीरू ने किताबों के पन्ने फाड़ते हुए कहा- 'चलो रै, जौहड़ में किश्तियां चलाएंगे।'
रिश्ते
वह आम बस थी और स्वरूप सिंह आम ड्राइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़- भाड़ से बाहर आकर बस तेज हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ स्वरूप सिंह के हाथ आज सख्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिघल रहा था, वह
कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहां कुछ खास बात को। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियां धीमी गति से परेशान हो उठीं।
'ड्राइवर साहब, जरा तेज चलाओ, आगे भी जाना है', एक ने तीखेपन से कहा।
स्वरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा, 'आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।'
इस पर सवारियां और उत्तेजित हो गईं। दो- चार ने आगे- पीछे कहा, 'इसका मतलब यह नहीं कि बीस- तीस पे ढीचम-ढीचम चलाओ।'
कोशिश करके भी स्वरूप सिंह बस तेज नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला, 'बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूं। बस के मुकाम पर पहुंचते ही मैं रिटायर हो जाऊंगा, इसलिए।'
सम्पर्कः 1882, सेक्टर 13, करनाल-132001 (हरियाणा), फोन- 0184 2201202 मोबा. 9416152100
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