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Feb 10, 2015

लघुकथाएँ

मानव धर्म
पिछले दिनों मुरादाबाद के दंगों के बाद हमारे शहर में भी तनाव का वातावरण चल रहा था। उन्हीं दिनों एक बार मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सिनेमा देखने गया था।
जैसे ही सिनेमा हाल से हम बाहर आए, तो देखा कि सड़क पर भगदड़ मची थी। सभी फुर्ती के साथ भागे जा रहे थे। मैंने मुश्किल से पता लगाया तो मालूम हुआ कि शहर में दंगा-फसाद हो रहा है।
सुनकर मेरी पत्नी और बच्चे भयभीत हो गए। हमारा घर शहर से काफी दूर था। कोई रिक्शा-तांगा नहीं था।
तभी एक युवक हमारे पास आया और हमारी समस्या जानकर हमें अपनी कार से हमारे घर तक छोडऩे को राजी हो गया।
रास्ते भर मेरी पत्नी मुसलमानों को भला-बुरा कहकर कोसती रही।
वह व्यक्ति सुनकर मुस्कुराता रहा।
रास्ते में पत्थर- वर्षा से कार का पिछला कांच फूट गया। खैर, हम सकुशल घर पहुंच गए।
मैंने सौ रुपए का नोट निकाल कर उस युवक को देते हुए आभार व्यक्त किया। उसने रूपया लेने से इंकार करते हुए कहा- 'क्या मानव धर्म की कोई कीमत होती है, भाई साहब?'
मेरी पत्नी ने उसका परिचय पूछा तो मुस्कुराते हुए उसने अपना नाम बताया, 'नजमल हुसैन।
और हमारे मुंह पर धुंआ छोड़ते कार चली गई।
दीया तले
एक मंत्रीजी ने अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा, 'सरकार बालकों के कल्याण के लिए बहुत कुछ करना चाहती है। आप लोग ध्यान रखें कि होटलों, दुकानों, कारखानों आदि में कम उम्र के बालकों से काम नहीं लिया जाए। यह कानून के खिलाफ भी है। इसे पूरी शक्ति के साथ रोककर सरकार को सहयोग करें।'
सभी अधिकारियों ने सहमति प्रकट की। मीटिंग समाप्ति के बाद उन्होंने चपरासी को चाय लाने को कहा।
थोड़ी देर बाद एक बारह वर्ष के दुबले- पतले, फटेहाल मासूम बच्चे ने सब के सामने चाय के कप रख दिए।

सम्पर्क: 235, क्लर्क कॉलोनी, इन्दौर, मो. 09926080810  

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