नासूर बन रहा है नशा
- राजेश कश्यप
नशा पूरे समाज के लिए नासूर बन चुका है। बीड़ी,
सिगरेट, शराब से
लेकर सुलफा, भाँग, चरस,
गाँजा,
अफीम, ब्राउन
शुगर, हेरोईन, स्मैक,
भुक्की तक नाना तरह के नशे सामान्य बात हो गई है। सामान्य
धूम्रपान से लेकर स्वापक एवं मादक पदार्थों का सेवन लाखों-करोड़ों जिन्दगियों को
तबाह कर रहा है। विडम्बना का विषय है कि अब तो सामान्य दवाओं का भी नशे के रूप में
सेवन किया जाने लगा है। 'मोमोटिल’,
'कैरीसोमा’, 'पारवनस्पास,’
'कफ-सीरप’आदि अनेक
दवाओं को नशे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इन दवाओं को निर्धारित मात्रा से
अधिक लेने से व्यक्ति घातक नशे का शिकार हो जाता है। इसके बावजूद भी धडल्ले
से इस तरह की कई दवाओं का इस्तेमाल नशे के रूप में किया जा रहा है। दिल दहलाने
वाली बात यह है कि इन सब नशों के आदि लोगों को नशे को कई गुना बढ़ाने के लिए चोट
ठीक करने वाली मरहम 'आयोडैक्स’,
अति जहरीली छिपकली की 'पूंछ’,
'स्नफिरस’, 'लिक्विड
व्हाइट फ्लूड’, 'पेट्रोल’,
'पंक्चर सेल्यूशन’आदि का
सेवन करने से तनिक भी हिचक नहीं होती। असंख्य नशेड़ी तो अपने शरीर की नसों से लेकर
चीभ और गुप्तांगों तक में सिरिंज के जरिए नशे की दवा चढ़ा लेते हैं। इसके अलावा
अनेक ऐसे नशेड़ी हैं जो जानलेवा विषैले कीटों से स्वयं को बार-बार कटवाते हैं।
क्या इससे बढ़कर नशे का जुनून और खौफनाक खेल हो सकता है?
नशे का साम्राज्य अनंत रूप में फैल चुका है। आज कोई भी
घर ऐसा नहीं है, जो नशे से अछूता हो। कोई व्यक्ति भले
ही नशे से अछूता मिल जाए लेकिन, घर नहीं
मिलेगा। हर घर में कोई न कोई सदस्य किसी न किसी तरह के नशे का आदी मिल जाता है।
अपवाद के तौरपर भी संभवत: नशे से अछूता कोई परिवार मिलेगा। इससे सहज अनुमान लगाया
जा सकता है कि नशे के मकडज़ाल में समाज किस कद्र फँस
चुका है। सबसे बड़ी विडम्बना का विषय तो यह है कि इन घातक और खौफनाक नशों का शिकार
बड़ी संख्या में देश के नौजवान हो चुके हैं। युवाओं को नशे की दलदल में तेजी के
साथ धंसना, इस समय देश के समक्ष सबसे बड़ी विकट
चुनौती बन चुकी है। गतवर्ष पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने सार्वजनिक
मंच से अफगानिस्तान के राष्ट्रपति को सांकेतिक अनुरोध करते हुए कहा था कि आप अपनी
हेरोइन को रोकिए, हमारे नौजवान तबाह हो रहे हैं।
एसोचैम ने वर्ष 2009
में 2000 किशोरों का अध्ययन किया था, जिसमें यह
बात सामने आई थी कि पिछले पाँच वालों के दौरान 19 से 26 वर्ष के किशोरों के बीच
में शराब का उपभोग 60 फीसदी बढ़ा है। महानगरों में रहने वाले किशोरों में 45 फीसदी
से ज्यादा महीने में पाँच से छह बार पीते हैं। जबकि 70 फीसदी सामाजिक मौकों में
पीते हैं। नवम्बर, 2011 में एसोचैम ने अपने एक अन्य
सर्वेक्षण में पाया कि पिछले दस साल के दौरान 15 से 18 वर्ष के युवाओं के बीच पीने
की आदत में 100 फीसदी का इजाफा हुआ है।
स्वास्थ्य से संबंधित विभिन्न राष्ट्रीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टों के अनुसार शराब का इस्तेमाल करने की उम्र
में निरन्तर कमी दर्ज की गई है। जहाँ वर्ष 1980 में 28 वर्ष की औसत उम्र में शराब
पीनी शुरू की जाती थी, वहीं यह वर्ष 1997 में 19 वर्ष और वर्ष 2012 में मात्र 13 वर्ष की
उम्र दर्ज की गई है। सर्वेक्षणों के अनुसार 46 प्रतिशत लोग 'टुल’होने
के लिए, 32 प्रतिशत 'परेशानियों’के
कारण, 18 प्रतिशत ''अकेले’और
15 प्रतिशत बोर होकर पीते हैं। दिल्ली-एनसीआर, मुबई,
चण्डीगढ़, हैदराबाद
आदि महानगरों के 70 प्रतिशत युवाओं ने सर्वे में यह माना कि वे सामाजिक मौकों,
परीक्षाओं से पहले, और बाद
में सुकून के लिए या रात के समय एल्कोहल का सेवन करते हैं।


सामान्य तौरपर देखने में आता है कि व्यक्ति सामान्यत: 'संगत’में
फँसकर
नशे का स्वाद चखता है। नशे की शुरूआत बीड़ी, सिगरेट,
तम्बाकू, हुक्के
जैसे सामान्य नशे से होती है। जहां तक बीयर, शराब आदि
का विषय है तो यह अक्सर विवाह, जीत,
उपलब्धि, आमदनी,
उद्घाटन, जन्मदिन
आदि हर खुशी के अवसर पर प्रयोग की जाने लगी थी। लेकिन,
बाद में यह लोगों की दिनचर्या का एक हिस्सा बनती चली गई। काफी
लोग मित्रों की संगत में फँसकर नशे का शिकार हो गए। बच्चे भी कुसंगति का शिकार होने
से बच नहीं पाते। महानगरों में हाई-सोसायटी और उच्च जीवन-शैली के दिखावे के तौरपर
विभिन्न तरह के नशों का सेवन हो रहा है। लेकिन, सबसे अजीब
बात यह है कि आज नशे का मूल कारक खुशी नहीं, बल्कि 'गम’,
'परेशानी’, 'तनाव’,
'अवसाद’, 'हार’,
'हीनता’, 'अति
महत्त्वाकांक्षा’, 'उदासी’, 'नीरसता’आदि
बन गए हैं। आज की इस भागदौड़ में व्यक्ति स्वयं को अकेला महसूस करने लगा है। उसके
सामने जिम्मेदारियों व चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है और सपनों का अम्बार
लगा है। लेकिन, उन्हें पूरा न होने का डर अथवा सामर्थ्य
न पाकर दु:खी है। असफलताओं की टीस और चिड़चिड़ेपन से जीवन नीरस हो चला है। ऐसे में
वह नशे का सहारा लेता है। नशा के आगोश में कुछ पलों के लिए वह अपनी सुध-बुध खोकर
सपनों के संसार में खो जाता है। धीरे-धीरे यही सपनों का संसार उसे अच्छा लगने लगता
है और वह बाहर निकलने का नाम नहीं लेता है। जब कोई उस संसार से निकालने की कोशिश
करता है तो उसे लौटना गवारा नहीं होता। उसमें पुन: जिम्मेदारियों और चुनौतियों के
पहाड़ों से टकराने का साहस पैदा नहीं हो पाता। ऐसे में मनौवैज्ञानिकों की भूमिका
सबसे महत्त्व पूर्ण हो चली है।

शौकिया और उच्च जीवन-शैली जीने का दम्भ भरकर नशा करने
वाले लोगों को भी मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाना होगा और उन्हें अहसास दिलाना होगा
कि वे ऐसा करके जीवन की कितनी भयंकर भूल कर रहे हैं? उन्हें इस
भूल का अहसास करवाने के लिए विशेष अभियान चलाए जाने की सख्त आवश्यकता है। इसके साथ
ही गैर-कानूनी तरीके से नशे का कारोबार करने वाले लोगों और गिरोहों पर भी सख्ती से
लगाम लगाने की आवश्यकता है। नशे के साम्राज्य को ध्वस्त करने के लिए युवाओं को ही
प्रेरित करना होगा और युवा शक्ति को ही नशे के नाश के लिए ब्रहा्रस्त्र के रूप में
इस्तेमाल करना होगा।
संतोषजनक बात यह है कि जितने भी नशे के शिकार व्यक्ति
हैं उनमें से अधिकतर इसे 'लत’मानने
लगे हैं और वे इससे छुटकारा पाने की चाह भी रखते हैं। नशे को 'लत’या
'बीमारी’मान लेना
सबसे बड़ी बात है। इससे समस्या से छुटकारा पाना बेहद आसान हो जाता है। इसलिए,
मनौवैज्ञानिक तरीके ही नशे का नाश कर सकते हैं?
संपर्क: स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक, म.नं. 1229, पाना नं. 8, नजदीक शिव मन्दिर, गाँव टिटौली, जिला. रोहतक
हरियाणा-124005, मो. 09416629889,
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