भूमंडलीकरण की आँधी में गुम होते गाँव
अब विकास की
नई इबारत लिखी जाएगी
- गिरीश पंकज
पिछले दो दशकों से एक जुमला भारतीय साहित्य और नागरजीवन
शैली का हिस्सा बन चुका है और वो है भूमंडलीकरण। इस जुमले की आड़ में बाजारवाद ने
भी अपने पैर पसारे और उसका खमियाजा भुगतना पड़ा पूरे देश को। सबसे अधिक नुकसान हुआ
गाँवों का। वे गाँव जो कभी हमारी संस्कृति के संग्रहालय हुआ करते थे,
अब विकृति के प्रतीक बनते जा रहे हैं। सौ साल पहले इस देश में
साढ़े सात लाख गाँव हुआ करते थे, मगर पिछली
जनगणना में गाँवों की संख्या घट कर छह लाख हो गई है। जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा
है, ये संख्या और घटेगी। कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले पचास
सालों में ही एकाध लाख गाँव लुप्त हो जाएँ। इसका एक मात्र कारण यह है कि अब हमारा
गाँवों से मोहभंग होता जा रहा है। गाँव हमें अपने पुरातन स्वरूप में बर्दाश्त नहीं हो रहे हैं। हम सब आधुनिक बनने की हड़बड़ी
में गाँवों की बलि देने पर आमादा हैं। आज नगर निगम, नगर
पालिकाएँ और नगर पंचायतें कोशिश करती हैं कि आसपास के गाँव उनकी शहरी सीमा में आ
जाएँ। आबादी के बढ़ते दबाव के कारण शहर गाँवों की तरफ फैल रहे हैं। पिछले सौ सालों
में एक लाख गाँव जो लुप्त हुए, वे शहरी
सीमा का हिस्सा बन कर विलुप्त हो गए। और अब वे नगरों और महानगरों के विहार या
कॉलोनियों के रूप में पहचाने जाते हैं। उदाहरण के रूप में हम दिल्ली को देख सकते
हैं, जहाँ अनेक गाँव अपने देसी ठाठ में जीते थे,
मगर अब वे कहीं नहीं हैं। सरकारी रिकार्ड में उनके केवल नाम
भर रह गए हैं। वहाँ गगनचुंबी इमारतें तन गई हैं या मॉल बन गए हैं। दिल्ली की ही
तर्ज पर देश के अनेक गाँव धीरे-धीरे खत्म हो गए।
गाँवों के विलुप्त होने की मुहिम निरंतर जारी है। अनेक
नगर निगमों और पालिकाओं ने सरकार से माँग की है कि उनको आसपास के गाँवों को
शहरी सीमा में शामिल करने की अनुमति दी जाए। और अनुमतियाँ भी मिल रही हैं। गाँव के
लोग खुश हो रहे हैं कि उनका शहरीकरण हो रहा है। गाँवों के लोग इस बात से प्रसन्न
नहीं होते कि वे अपने प्यारे गाँव में रहते हैं या वे खेती करते हैं अथवा गौ पालन
करते हैं। ये सब चीज़े उन्हें उबाऊ लगती हैं । गाँव के युवक अब खेती करना नहीं
चाहते। गौ पालन उनके लिए सिरदर्द है। हाँ, शहरों में
जा कर कोई छोटी-मोटी नौकरी करना मंजूर है। गाँव के कास्तकार खत्म हो रहे हैं।
कुम्हार लुप्त हो रहे हैं। अनेक देशज कलाएँ खत्म हो चुकी हैं। क्योंकि
अब गाँव-गाँव में सस्ता चीनी उत्पाद बिक रहा है। या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल
खपाए जा रहे हैं। पहले चीन हमें सीमा पर पराजित किया,
अब वह हमारे घर में घुस कर हमें मार रहा है और हमें इसका आभास
भी नही? आश्चर्य। गाँवों की अर्थक्षमता को
ध्यान में रख कर एक-दो रुपये के पैकेट में भी सामान मिल रहा है। खेल-खिलौने मिल
रहे हैं। कभी जो गाँव अपना साबुन बनाता था, अपने
खिलौने बनाया करता था, अपनी जरूरत के कपड़े उत्पादित किया
करता था, वाद्ययंत्र भी बना लिया करता था,
वो गाँव अब इन सबसे दूर होता जा रहा है। उसकी मौलिकता खत्म हो रही है। वह
पराश्रित होता जा रहा है। उसे विदेशी या कहें कि
चीनी उत्पाद ही भाने लगे हैं। क्योंकि वह मेहनत नहीं करना चाहता।
गाँधी, लोहिया,
बिनोबा और जेपी जैसे चिंतकों ने लोग के महत्त्व को समझा था।
समाजवाद और लोक स्वराज भारत इन सबका सपना था। भारत गाँवों का देश हैं,
यह गर्व से बताया जाता था। लेकिन अब गाँव कहने भर के गाँव रह
गए हैं। वहाँ उद्योगपतियों की नज़र हैं। वहाँ की नदियों का दोहन कल-कारखाने कर रहे
हैं। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि न केवल नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं,
वरन गाँव भी बीमार होते जा रहे हैं। गाँवों के लोगों को
आर्थिक प्रलोभन दे कर उनसे उनके गाँव छीने जा रहे हैं। आज से चौदह साल पहले जब तीन
नए राज्य बने तो उनकी नई राजधानियों के लिए सैकड़ों गाँवों की बलि ले ली गई।
रायपुर और आसपास के गाँव को मैंने लुप्त होते देखा है। विकास की यह कैसी अंधी चाल
है कि वह गाँव उजाड़ देती है, वह पेड़ों
की बलि ले लेती है, वह नदियों को पी जाती है,
वह तालाबों को खत्म कर देती है? क्या हम
संतुलित विकास की प्रविधियाँ नहीं खोज सकते? गाँवों को
उनके मूल स्वरूप में रखते हुए क्या उन्हें नगर-जैसा नहीं बनाया जा सकता?
गाँवों में खेती भी हो, गौ पालन
भी हो। हाथकरघा भी चले। बढ़ई भी अपनी कला का विकास करे। लोक कलाकार भी अपने
वाद्ययंत्रों के साथ अपनी कला का संरक्षित रख सके। क्या यह बहुत जरूरी है कि
गाँवों को आधुनिक बनाने के चक्कर में हम उसे जड़ों से ही काट दें?
वहाँ के उद्योगों को हतोत्साहित करें?
जो खादी कभी लाखों लोगों को रोजगार देती थी,
वो अब दम तोड़ रही है। स्वराज की लड़ाआ में गाँधी ने खादी को
एक हथियार बनाया था। स्वदेशी की ऐसी मुहिम चली थी कि विदेशी वस्त्रों की होलियाँ
जलती थी। उस खादी से दूर हो कर हम ब्राँडेड कपड़ों की ओर झुकते चले जा रहे हैं।
स्वदेशीपन खत्म होता जा रहा है। पश्चिम इतना अधिक सम्मोहित कर रहा है कि गाँव-गाँव
में लड़के-लड़कियाँ जींस और टॉप में नज़र आ जाएँगे। सलवार-कुरता तो पुरानी बात
होती जा रही है।
इस तथाकथित आधुनिकीकरण ने सबसे पहले हमारे विचार को कुंद
कर दिया है इसलिए अब अगर गाँवों में नवयुवक खेती नहीं करना चाहता,
गौ पालन नहीं करना चाहता तो इसका सबसे बड़ा कारण पूरा परिवेश
है जो पश्चिम की साजिश का शिकार होता जा रहा है। विदेश के कपड़े,
विदेश के उत्पाद, विदेश का
संगीत, विदेश की अप-संस्कृति को नागर और लोकजीवन का हिस्सा
बनाया जा रहा है। यही कारण है कि गाँव-गाँव नहीं रहना चाहता। वह अपने आप से ऊब
चुका है। वह खुद से मुक्ति के लिए बेताब है। कहीं गाँव खुद से ऊब रहे हैं तो कहीं
विकास के नाम पर राज्य सरकारें गाँवों को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। कहीं बाँधों
के नाम पर, कहीं कारखानों के नाम पर गाँवों और
ग्रामीणों का विस्थापन हो रहा है। भारत माँ यह सब देख कर रो रही है मगर वह कुछ कर
नहीं सकती क्योंकि यह उत्तरआधुनिक काल है, यह
भूमंडलीकरण का दौर है।
ऐसे संक्रमण काल में जब भाजपा सरकार अस्तित्व में आई है तब लगता है कि एक पुरातन
भारत को बचाते हुए विकास की नई इबारत लिखी जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी
चुनावी सभाओं में गंगा और गाँव की बातें
किया करते थे। वे गाय के महत्त्व पर भी अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं। वे गौ
भक्त हैं। गाय और गाँव को अटूट सम्बन्ध हैं। कभी भारत में चालीस करोड़ गाएँ
हुआ करती थी, जो अब घट कर सोलह करोड़ रह गई हैं।
जिस तेजी से गायें कट रही हैं, और उसका
मांस विदेश भेजा जा रहा है, उसे देखते
हुए यही लगता है कि आने वाले समय में भारत में गाय बचाओ मुहिम चलाई जाएगी। मोदी
सरकार से उम्मीद की जा सकती है कि वह गंगा की तरह अब गाँव और गाय पर ध्यान देगी।
गाँव को बचाने का मतलब है अपनी संस्कृति को बचाना, अपनी
कलाओं को बचाना, कुटीर उद्योगों को बचाना। अपनी
अस्मिता को बचाना। गाँव नहीं बचेंगे तो यह भारत भारत नहीं रहेगा,
इंडिया हो जाएगा। वैसे भी बीस फीसदी इंडिया तो बन ही गया है।
भाजपा सरकार संस्कृति की बात करती है। राष्ट्रवाद उसका प्रिय जुमला है। तब ऐसी
सरकार से देश उम्मीद कर सकता है कि वह गाँव बचाएगी, गायों को
बचाएगी, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करेगी;
क्योकि अभी नहीं तो कभी नहीं।
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