देशवासियों के नाम!
- डॉ.गीता गुप्त
मेरे प्यारे बच्चो,
आज मेरी आज़ादी की वर्षगाँठ है। तुम सब खुशी मनाओगे, बधाइयाँ
दोगे, मुझे
याद करोगे। मेरी भी इच्छा हुई कि इस बार तुम्हें पत्र लिखकर अपने हृदयोद्गार
व्यक्त करूँ। दरअसल देश की स्थितियों ने मुझे बहुत खिन्न कर दिया है। तनिक स्मरण
करो वह दिन। कितने लम्बे संघर्षों के बाद मेरी पराधीनता की बेडिय़ाँ टूट सकीं ? भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर
आज़ाद और न जाने कितने युवाओं ने अपने प्राणों की आहुति देकर मुझे आज़ाद कराया। वह
संघर्ष-गाथा अद्भुत रोमांचकारी और अविस्मरणीय है जिसका इस देश के बच्चे-बच्चे को
ज्ञान होना चाहिए। लेकिन कलियुगी अभिभावकों ने ही वह गाथा नहीं पढ़ी,
तो वे अपने बच्चों को कैसे बताएँगे और उनके हृदयों में 'स्वाधीनता’और 'स्वतन्त्रता’के प्रति
सम्मान और राष्ट्र प्रेम कैसे जाग्रत होगा? मेरी मुक्ति का उल्लास-पर्व मनाने के लिए
वर्ष भर में दो बार जलसे का आयोजन मात्र ही राष्ट्रप्रेम का प्रतीक नहीं है।
मेरी चिन्ता यह है कि 67 वर्षों बाद भी यह देश महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र
बोस और भगत सिंह जैसे महान नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों का भारत नहीं
बन पाया। कहने को तो यह देश 'स्वाधीन’हो गया पर हमारे नीति-निर्माता अभी भी इसे
गुलाम बनाये रखना चाहते हैं। तभी तो आज तक अंग्रेजी शिक्षा पद्धति, अंग्रेजी
भाषा, अंग्रेजी
खान-पान, रहन-सहन
और परिपाटियों को ढोये जा रहे हैं। जबकि समय काफ़ी बदल चुका है। सन् 1947 की 33 करोड़
आबादी अब सवा अरब से भी अधिक हो चली है। लोग 'वैश्विक मानव’बनने की होड़ में हैं। लेकिन वे पहले 'भारतीय’तो बनें;
क्योंकि जो अपनी जड़ों से न जुड़ा हो, वह कहीं भी स्थापित नहीं हो सकता है।
आज़ादी मिलते ही नेताजी ने कहा था-'गुलामी के
कारण देश में कई समस्याएँ पैदा हो गई हैं; जो धीरे-धीरे
ही दूर होंगी। इसके लिए उसी एकजुटता के साथ सबको मिलकर कोशिश करनी होगी, जो आज़ादी
के संघर्ष के दौरान दिखाई दी थी।पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी स्वतन्त्रता-प्राप्ति
के तत्काल बाद आराम की बजाय काम और कठिन परिश्रम की आवश्यकता पर बल दिया था। इन
दोनों नेताओं के कथन आज भी प्रासंगिक हैं; किन्तु उनका अनुशीलन कहीं दिखाई नहीं देता।
राजनीति, समाज, धर्म, न्याय, शिक्षा
आदि सभी क्षेत्रों में अराजकता बढ़ती जा रही है। राजनेता अपने आचरण से लोकतंत्र के
मंदिर को कलंकित कर रहे हैं। संसद और विधान सभाओं को उन्होंने अख़ाड़ा बना दिया है
और 'सत्ता
की कुर्सी’के
लिए दण्ड पेल रहे हैं। राष्ट्र-हित को भूलकर वे अपना स्वार्थ साधने में मग्न हैं।
अपने शासकीय भवन को ऐशगाह बनाने, हवाई यात्राएँ करने और अपनी अजन्मी पीढ़ी तक
का भविष्य सुरक्षित करने के लिए वे देश का खज़ाना खाली किये दे रहे हैं। आम जनता
भूखों मर रही हैं,
वे भूख पर पाँच सितारा होटलों में बैठकर राजनीति कर रहे हैं।
राजनीति भी कैसी?
एक-दूसरे को नीचा दिखाने की या गड़े मुर्दे उखाडऩे की।
मुझे सरदार पटेल याद आ रहे हैं जिन्होंने देश की अखंडता
के लिए राजनीति की। आज तो नेता मेरे टुकड़े-टुकड़े करके सत्ता का सुख भोगने के लिए
लालायित हैं । मुझे शास्त्रीजी भी स्मरण आते हैं जिन्होंने 'जय
जवान-जय किसान’का
नारा देकर भूमि-पुत्रों को अधिकाधिक अन्न उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने
समूचे देश को एक दिन व्रत (निराहार) रखवाकर खाद्यान्न की कमी से जूझने का
स्वाभिमानी मार्ग भी अपनाया था। आज नेताओं की उपेक्षाओं
के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं और खाद्यान्न संकट गहराता जा रहा है।
जनसंख्या-वृद्धि पर विधिसम्मत नियंत्रण नेता ही नहीं
चाहते। यदि दो से अधिक संतान वालों का राजनीति में प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाए
तो बढिय़ा हल निकल सकता है लेकिन नेता ऐसा होने नहीं देंगे। अलबत्ता कन्या-जन्म पर
नियंत्रण हो गया है। कैसी विडम्बना है यह ! जीवन की धुरी मानी जाने वाली स्त्री
कोख में ही मारी जा रही है, जन्म लेने पर भी सताई
जा रही है, अपनी
योग्यता के बल पर कोई मुकाम हासिल करने के बाद पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने
की सजा भुगत रही है।
देश का प्रत्येक बच्चा विद्यालय की देहरी पर अब तक कदम
नहीं रख सका है। युवा पीढ़ी को दिशाहीन शिक्षा ने दिग्भ्रमित कर दिया है। वे
चरित्र, अनुशासन
और सदाचार की शिक्षा से कोसों दूर रहकर मात्र 'डिग्री’प्राप्त कर रहे हैं जिसके बूते पर यूरोप
पहुँचकर भारी भरकम वेतन वाली नौकरी और भौतिक ऐश्वर्य जुटा सकें। नयी पीढ़ी की यह
सोच मुझे दु:ख पहुँचाती है। गाँधीजी ने हमें बुनियादी शिक्षा की योजना दी थी,
ताकि युवा पढ़-लिखकर सादे सच्चे, ईमानदार, सच्चरित्र और अनुशासित नागरिक बन सकें। वे
शिक्षा प्राप्त करके हाथ न फैलाएँ बल्कि अपने अन्दर हुनर पैदा करके
अपने लिए धन और देश के लिए यश अर्जित कर सकें ; लेकिन अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिकता
के मोह ने उस योजना पर धूल डाल दी। यहाँ तक कि गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिष्ठित संस्था-जहाँ कला, साहित्य, रंगमंच के कलाकार, प्रखर
वैज्ञानिक और नोबल पुरस्कार विजेता पैदा होते थे, उसकी भी अवहेलना की गई। इसलिए आज हमारे युवा
वाणिज्य और व्यवसाय प्रबंधन पढ़कर मोटे पैकेज वाली नौकरी के लिए विदेश पलायन कर
रहे हैं। आरक्षण की आग ने भी उनके भविष्य को झुलसा दिया है;
अतएव मेरी गोद छोड़कर वे पराई धरती पर अपमान-जनक जीवन जीने के लिए सहर्ष तत्पर हैं।
समाज की कुरीतियों को देखकर मुझे पीड़ा होती है। धर्म, जाति, प्रान्त, भाषा आदि
के नाम पर भेदभाव सर्वथा अनुचित है। आरक्षण, क्षेत्रीयता, न्याय में विलम्ब, बच्चों और
स्त्रियों के प्रति अमानवीय व्यवहार की समस्याएँ मेरे लिए चिंताजनक हैं। अब तो
शुद्ध हवा, पानी
और भोजन की समस्या भी विकराल रूप ग्रहण करती जा रही है। प्रकृति से सहज रूप में
प्राप्त जल तथा भोजन को मानवाधिकार घोषित करना एक गम्भीर संकेत है। एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण
बात यह कि विकास या उन्नति के नाम पर पश्चिम से आयातित जिस सांस्कृतिक प्रदूषण ने
यहाँ जड़ें जमा ली हैं वह सचमुच लज्जास्पद है। बिना वैवाहिक बंधनों में बँधे
युवा मातृत्व और पितृत्व प्राप्त कर रहे हैं, वृद्धों को घर से बेदखल किया जा रहा है, संयुक्त
परिवार का विघटन हो रहा है, स्त्रियों को विज्ञापन और उपभोग की वस्तु
मान लिया गया है और जीवन का लक्ष्य भोग-विलास मात्र रह गया है। ये सारे आयाम
भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल हैं। पश्चिम की उन्मुक्तता हमारी सांस्कृतिक
विशेषताओं को आघात पहुँचाती है।
मैं सिर्फ खामियों की बात नहीं करना चाहती। आजादी के बाद
सूचना-तकनीक और वैज्ञानिक दृष्टि से तुमने सचमुच बहुत प्रगति की है। बड़े-बड़े
उद्योग-धंधे, कल-कारखाने
और तकनीकी संस्थान स्थापित हुए। लोगों की जीवन-शैली बदल गई। मेरे रूप में भी निखार
आया। मेरे बेटों के साथ अब मेरी रक्षा के लिए सरहद पर बेटियाँ भी तैनात हैं। यदि
सचिन, अभिनव, विश्वनाथन
और कलाम जैसे बेटे मेरा गौरव बढ़ा रहे हैं तो किरण बेदी, साइना, प्रतिभा, मीरा जैसी
कई बेटियाँ मेरा नाम रोशन कर रही हैं। तुम सबको मेरी अस्मिता की चिंता है। मुझपर
तनिक भी आँच न आए, इसके
लिए तुम हरसम्भव प्रयास करते हो। मेरी समृद्धि के लिए तुमने संचार-माध्यम, आवागमन के
साधनों और व्यापार-व्यवसाय की नई तकनीक को अपने जीवन का अंग बना लिया
है। यह अर्थ-व्यवस्था की मजबूती में सहायक है। यह गर्व की बात है कि विदेशी
कम्पनियाँ यहाँ निवेश करने हेतु आतुर हैं। पूरी दुनिया तुम्हारी मेधा और मेहनत का
लोहा मानती है। सारे यूरोप में तुम्हारी प्रतिभा का डंका बज रहा है। यह मेरे लिए
प्रसन्नता का विषय होगा।
मगर कुछ ऐसी बातें हैं, जो मुझे सर्वाधिक पीड़ा पहुँचाती हैं। आज वह
सब सब तुमसे कहना चाहती हूँ। चारों तरफ भ्रष्टाचार के अंधकार ने उन्नति के मार्ग
को अवरुद्ध कर दिया है। तुम समाज में व्याप्त भूख, अन्याय, गरीबी, शोषण, असमानता और बेकारी जैसी समस्याओं को समूल
नष्ट कर देने की युक्ति क्यों नहीं सोचते? क्यों अब तक आरक्षण की बैसाखी के सहारे
अयोग्यता को बढ़ावा दे रहे हो और योग्यता को पलायन करने के लिए विवश कर रहे हो? तुम्हें
अपनी भाषा, संस्कृति, वेशभूषा, खानपान और
परंपराओं पर गर्व क्यों नहीं होता जबकि वे आध्यात्म और वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी
खरी उतरती हैं। अधकचरा पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने में तुम्हें क्यों
संकोच नहीं होता?
तुम क्यों भौतिकता के पीछे पागल हो रहे हो? क्यों यह
भूल गये कि भारतीय संस्कृति भोग की नहीं वरन् त्याग, वैराग्य और नि:स्वार्थ परोपकार की है? तुम पर
अपने पूर्वजो, माता-पिता, गुरु, मातृभूमि
और राष्ट्र का ऋण है, जिससे कभी मुक्त नहीं हुआ जा सकता। आज यहाँ तीनों सेनाओं में
सैनिकों और अधिकारियों की बहुत कमी है। फिर भी, पराये देश में तुम अपमान की रोटी खाकर, जीना
चाहते हो लेकिन अपने देश में सैनिक बनकर सम्मान नहीं पाना चाहते, मेरी
रक्षा नहीं करना चाहते। यह तुम्हारा कैसा राष्ट्रप्रेम है?
तुम गाते हो 'सारे जहाँ से
अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’, लेकिन इसे अच्छा बनाए
रखने के लिए क्या करते हो? अपने घर की गंदगी बाहर फेंक देते हो, सड़क पर
चलते हुए कहीं भी थूक देते हो, पेड़-पौधों को काट डालते हो, नदियों-तालाबों
को प्रदूषित करते हो। वृद्धों को अपमानित करते हो, स्त्रियों और बच्चों के प्रति हिंसा पर उतर
आते हो। मामूली-सी बात पर उत्तेजित हो कर तोड़-फोड़, हिंसा और आगजनी करके शान्त हवा में विष घोल
देते हो। भाषा, धर्म, जाति और
क्षेत्रीयता को मुद्दा बनाकर आपस में लड़ते-मरते हो। सार्वजनिक संपत्ति को
क्षतिग्रस्त करते हो। राष्ट्र के हित में कर नहीं चुकाते, मतदान
नहीं करते, समाज
और राष्ट्र के बजाय सिर्फ अपने हित की चिंता करते हो। इसीलिए तुम्हें अपने देश पर
छाए
संकट के बादल नज़र नहीं आते।
मेरे बच्चो, तुम्हें याद दिलाना चाहती हूँ कि
स्वतन्त्रता सेनानियों ने समाज का यह वीभत्स रूप देखने के लिए कुर्बानी नहीं दी
थी। वे भी स्वामी विवेकानंद की तरह संवेदनशील राष्ट्र के निर्माण की कल्पना करते
थे, जिसमें
कोई निर्धन, शोषित
और उपेक्षित न हो। स्वामी विवेकानंद ने अपने नागरिकों का आह्वान
करते हुए पूछा था-'क्या तुम्हें इस बात पर दु:ख होता है कि लाखों मनुष्य आज भूख
की ज्वाला से तड़प रहे हैं ?’क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञानता देश पर
सावन-मेघों की तरह छा गई है ? क्या तुम इससे छटपटाते हो ? क्या इससे
तुम्हारी नींद उचटती है और क्या तुम्हें इसने लगभग पागल-सा बना दिया है ? यदि ऐसा
है तो यह देशभक्ति की प्रथम सीढ़ी है। केवल प्रथम सीढ़ी।’
सचमुच, आज एक संवेदनशील राष्ट्र की आवश्यकता है।
जिसके नागरिक सच्चे इंसान हों, जिनमें प्रकृति और प्राणी मात्र के प्रति
ममत्व ओर संवेदनशीलता हो। जो अपने पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति
पूर्णत: सजग हों। क्या तुम सचमुच मुझे अपनी माता समझते हो? मैं तो
ऐसा ही मानती हूँ। इसीलिए कहती हूँ-मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश करो। तुम्हें
अपनी 'स्वाधीनता’ 'स्वतन्त्रता’और 'स्वराज्य’के मर्म
को समझना चाहिए। अपने सांस्कृतिक मूल्यों को महत्त्व देते हुए तदनुकूल आचरण करना
चाहिए। यही हम सबके लिए हितकर होगा। मेरी बात मानो-सत्कर्म करो। सबके साथ प्रेम से
रहो और मानवता के मार्ग पर चलकर एक गौरवशाली अध्याय रचो, जिसकी
गूँज दिग्दिगन्त तक सुनाई दे।
- तुम्हारी प्यारी भारत माता
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