मन की पीड़ा
-
ज़हीर कुरैशी
1
मन
को तैयार कर नहीं पाए,
वक्त
पर वार कर नहीं पाए।
अपने
बचपन के दोस्त को..हम भी,
शत्रु
स्वीकार कर नहीं पाए।
जो
परिष्कार करने आये थे,
वो
परिष्कार कर नहीं पाए।
खींच
दी है लकीर रिश्ते ने,
हम
जिसे पार कर नहीं पाए।
वो
मिसाइल के ‘कुल
के’ हैं लेकिन,
दूर
तक मार कर नहीं पाए।
स्वप्न
को देखते रहे के वल,
स्वप्न
साकार कर नहीं पाए।
लोग
अपने अहम् के कारण भी,
मन
का उपचार कर नहीं पाए।
2
वो
जो मुश्किल में डाल जाता है,
हाँ, वहीं हल निकाल जाता
है।
साल
में एक बार बेटा ही,
खुद
मुझे देख-भाल जाता है।
उसका
हँसना तो है बड़ी पीड़ा,
मुस्कुराना
भी साल जाता है।
अपना
अधिकार मान कर मुझ पर,
रोज
अस्मत खँगाल जाता है।
जब
भी ज्वालामुखी फटा कोई,
पूरा
गुस्सा निकाल जाता है।
उनका
अनुरोध मुस्कुराते हुए,
वो
मुहब्बत से टाल जाता है।
मैं
उन्हें याद भी नहीं... शायद,
मेरा
जिन तक खयाल जाता है।
सम्पर्क:
108 त्रिलोचन टावर, संगम
सिनेमा के सामने, गुरूबक्श
की तलैया, स्टेशन
रोड, भोपाल-462001
म.प्र. मो. 09425790565
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