महात्मा गाँधी
अपने युग के निराले इन्सान
- पी.डी.टण्डन
महात्मा
गाँधी जहाँ बैठते थे वह स्थान मन्दिर की पवित्रता प्राप्त कर लेता था। जब वह
चलते थे, तो
वह देश-प्रेम की यात्रा होती थी। गाँधी जी की खामोशी भी एक जबरदस्त आवाज़ होती थी।
जब वह आँखें मूँद कर मनन करते थे, जब वह सब बातों और वाकयात को और ज़्यादा सफाई से
देखते और समझते थे। वह अपने विरोधियों से भी बड़ी नम्रता से बरताव करते थे, मगर उनकी विनम्रता के
पीछे फौलादी मजबूती होती थी, जब सिद्धान्त का सवाल होता था।
1946 में जब क्रिप्स मिशन आया था उस समय बापू पूना
में थे। सर स्टेफर्ड क्रिप्स और पैटिक लारेन्स गाँधी जी से मिलने के लिए बड़े
उत्सुक थे। गाँधी जी के दिल्ली आने के लिए खास गाड़ी का इंतजाम किया गया और उनके
साथियों के लिए तीसरे दर्जे में। जहाँ-जहाँ से गाड़ी निकलती थी वहाँ लोग जमा होते
थे और गाड़ी रुकवा कर गाँधी जी की जय-जयकार करते। जब गाँधी जी दिल्ली पहुँचे तो उन्होंने
वाइसराय के प्राइवेट सेक्रेटरी के पास तीसरे दर्जे के हिसाब से रेल का किराया जो
तीन सौ पचपन रुपया चौदह आने होता था भिजवाया। प्राइवेट सेक्रेटरी जार्ज ऐविल को यह
बात खली और उन्होंने सुधीर घोष से जो रुपया लेकर गए थे, कहा: यह क्या बेकार
बात है। क्या मैं कोई स्टेशन मास्टर हूँ और रुपया किसने माँगा है। गाड़ी का
इन्तजाम तो सरकार की ओर से हुआ है।
जब
उनको समझाया गया कि बापू बिना किराया दिये नहीं रहेंगे तो उन्होंने कहा कि तब तो
उन्हे स्पेशल ट्रेन का 18000/- रुपये देना होगा। जब यह बात गाँधी जी को बताई
गयी तो उन्होंने कहा 18000/- रुपये की माँग गलत है; क्योंकि वे तो हमेशा
तीसरे दर्ज़े में ही चलते हैं और वहीं किराया देना है। स्पेशल ट्रेन उन्होंने नहीं
माँगी थी। अगर सरकार ने दी तो वह जाने। मगर गाँधी जी से और उनके साथियों से तीसरे
दर्जे का ही किराया लेना मुनासिब है।
गाँधी
जी ने स्पेशल गाड़ी का किराया देने से इनकार किया और तीसरे दर्जे का किराया देने
की जिद की। सेक्रेटरी साहब ने परेशान होकर रुपया ले लिया और रेलवे बोर्ड के सभापति
को भेज दिया।
एक
लड़की ने आश्रम में गाँधी जी से कहा: बापू देख कुत्ते की पूँछ है। बापू ने उत्तर
दिया, अरे कुत्ते
की पूँछ है, और
कुछ आश्चर्य जाहिर किया, एक
दो क्षण के बाद बापू ने बच्चे से पूछा, क्या तुम्हारी भी पूँछ है। बच्चा कहकहा मार कर
हँसा और बोला-अरे बापू तुम इतने बड़े और बूढ़े हो गए हो; लेकिन तुम्हे यह भी नहीं
मालूम कि आदमी की पूँछ नहीं होती, आप वाकई बड़े बुद्धू हैं। बापू और दूसरे लोग जो
वहाँ खड़े थे खूब हँसे।
बापू
जब बच्चों के साथ होते थे, वह अपने आपको भूल जाते थे और स्वयं एक बच्चे की
तरह व्यवहार करते थे। चाहे वह कितने ही काम में फँसे हों; परन्तु वह बच्चा को सदैव
याद रखते थे। उनका अद्भुत तरीका था। एक दिन बम्बई में बापू कोई चीज जोरों से ढूँढ
रहे थे। आचार्य काका साहेब कालेलकर ने उनसे पूछा, बापू आप क्या ढूँढ रहे हैं। बापू ने उत्तर दिया, एक छोटी सी पेंसिल।
काका कालेलकर ने अपनी अटैची से एक पेंसिल निकाल कर बापू को दे दी। बापू ने कहा, नहीं, नहीं मैं छोटी पेंसिल
चाहता हूँ ; जिसकों मैं ढूँढ रहा हूँ।
1945 में बापू बंगाल गए थे और वहाँ के गर्वनर से
मुलाकात की। जब बापू घर वापस चलने के लिए उठे ; तब गवर्नर साहब अचानक बापू को
पहुँचाने नीचे आ गए और उन्हें उनकी मोटर तक छोड़ऩे चले गए, जैसा कभी नहीं होता
था। उस दिन उन्होंने एक अजीब नज़ारा देखा।उनकी कोठी के सारे नौकर, जो करीब दो सौ थे, सब नीचे हाल में हाथ
जोड़े गाँधी के दर्शन के लिए खड़े हुए थे। कुछ लोगों के कपड़े ठीक भी नहीं थे। ऐसे
कपड़ों में वे कभी लाट साहब के सामने आ ही नहीं सकते थे। बात यह थी कि जब उन सबको
यह पता चला कि गाँधी जी उस दिन कोठी पर जाएँगे तो उन्होंने सोचा कि उससे अच्छा
उन्हें कौन सा मौका बापू के दर्शन का सकताथा। लाट साहब को उन सब को देखकर बड़ी
हैरत हुई। उन्होंने नौकरों की तरफ हाथ उठाते हुए कहा, गाँधी जी, यह देखिए मैं आपको
यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मैंने उनको यहाँ जमा होने को नहीं कहा था।
बापू
आनन्द भवन वालों को हर मामले में सलाह देते थे और सारे घर वाले उनके सामने अपनी
समस्याएँ रखते थे। रंजीत पंडित के देहान्त के बाद विजयलक्ष्मी जी को उनके देवर
वगैरह से कुछ अनबन हो गई। उनका चित्त बड़ा खिन्न था। वे बापू से मिलने गईं। बापू
ने उनसे पूछा -क्या रिश्तेदारों से तुम्हारी सुलह हो गई?
श्रीमती
पंडित ने कहा, मैंने
किसी से झगड़ा नहीं किया है, लेकिन मैं उन लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना
चाहती, जो एक
पुराने कानून का फायदा उठाकर मुझे मुसीबत में डालना चाहते हैं।
बात
यह थी कि रंजीत पंडित के कोई लड़का नहीं था और उनके भाई वगैरह श्रीमती पंडित को या
उनकी लड़कियों को उनका वारिस नहीं मानते थे। उस समय श्रीमती पंडित को बापू ने
समझाया और यह सलाह दी, तुम्हें
कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता। सिर्फ तुम्हीं अपने आपको नुकसान पँहुचा सकती हो। तुम्हारे
चित्त में बड़ा रोष है, जिससे
तुमको नुकसान पहुँचेगा। श्रीमती पंडित को ये शब्द बहुत जमे और बापू की यह सलाह
उन्हें सदैव याद रहती थी। उन्होंने कहा था कि जीवन में उन्हें सबसे अच्छी सलाह यही
मिली, जो बापू
ने दी थी।
बापू
अपने युग के एक निराले इन्सान थे। जैसे-जैसे हम उनकी मानवता और शराफत की कहानियाँ
सुनते रहेंगे, हमारा
यकीन इस बात में बढ़ता ही जाएगा कि बापू एक बड़े महान पुरुष थे। उन्होंने अपनी
योग्यता और वीरता की छाप दुनिया के लोगों पर छोड़ी थी। जब उनकी मृत्यु हुई तो
करोड़ों आदमियों ने सोचा कि उनके घर का एक प्यारा इन्सान उनसे जुदा हो गया है।
बापू अमर हैं।
उनका
राजनीति करने का ढंग निराला था उन्होंने हर गम
को खुशी में ढाला था। लोग जिन हादसों में मरते हैं, उन्हें उन हादसों ने
पाला था।
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