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Jun 11, 2013

एक पाँव का जूता



 एक पाँव का जूता
- भैरव प्रसाद गुप्त
जाने कैसी आवाज़ उनके कानों में पड़ी कि वह चिहुँक उठीं। तीन दिन से रात में कई-कई बार ऐसा हो रहा था। जीवन में पहले ऐसा कभी हुआ हो, उन्हें याद नहीं। इसी कारण दो रातों वह अपने कानों पर विश्वास न कर सकीं, यों ही, कुछ नहीं कहकर उन्होंने अपने को बहला लिया और करवट बदलकर सो गयीं। किन्तु आज वह कुछ सावधान थीं, दो रातों के लगातार अनुभव ने उनके मन में अनजाने की एक सन्देह पैदा कर दिया था। दिन में कई-कई बार उन्होंने बाबूजी को घूर-घूर कर देखा था। बाबूजी उन्हें बेहद उदास दिखाई पड़ते थे। उन्हें ऐसा लगा था कि अबकी लखनऊ से वापस आने के बाद बाबूजी की बोली बहुत कम सुनने को मिली थी। लेकिन ऐसा तो जीवन में अनेक बार हो चुका था। उनके मौन-व्रत से कौन परिचित नहीं? फिर भी आज उन्हें लगा कि ज़रूर कोई बात है! बाबूजी उदास यों ही नहीं होते, मौन-व्रत भी वह सब से कहकर ही धारण करते। लेकिन इधर तो बाबूजी ने उनसे भी कोई बात नहीं की थी।
उन्होंने पूछा था-क्या बात है? ऐसे खोए-खोए क्यों दिखाई देते हैं? तबीयत तो ठीक है?
बाबूजी ने जाने कैसी नज़रों से उन्हें एक पल को देखा था और फिर आँखें झुकाकर घर से बाहर चले गये थे। उन्हें उस तरह जाते हुए देखकर मन में खटका होना स्वाभाविक ही था। उन्होंने सोचा, शायद वह बाहर बैठक में जाएँगे। वह दरवाजे तक आई थीं; लेकिन बाबूजी तो दूसरी दिशा में उसी तरह सिर झुकाए जाने कहाँ चले जा रहे थे। बिना कोई  ख़बर दिए तो वह कभी कहीं नहीं जाते। वह वहीं फ़र्श पर बैठ गई थीं।
ज़रा दूर जाकर ही बाबूजी लौट आए थे। द्वार पर ठिठककर वह बोले थे-मन व्यग्र है। लेकिन तुम कोई चिन्ता न करो। जाकर भोजन करो। मैं थोड़ा आराम करूँगा।-और वह बैठक की ओर बढ़ गए थे।
बाबूजी के इस तरह के व्यवहार की वह अभ्यस्त थीं। बाबूजी ने उन्हें शुरू से ही सिखाया था कि उनकी व्यग्रता की स्थिति में उन्हें अकेले छोड़ देना चाहिए, उनके पीछे नहीं पडऩा चाहिए और उनके आदेश का, बिना किसी हील-हुज्जत के, पालन करना चाहिए। उन्हें इसी से शान्ति मिलती है।
वह अन्दर जाकर बाबूजी के आदेश का पालन करने लगीं। बाबूजी की तरह इनका भी जीवन यान्त्रिक होकर रह गया था। सन् 31 में जो बाबूजी ने एक व्रत लिया था, जीवन-भर के लिए उसी के व्रती होकर रह गए। कभी किसी ने कोई अन्तर नहीं देखा... वही एक जोड़ा अपने काते सूत के खद्दर का कुर्ता, धोती, गंजी, गाँधी टोपी और झोला... वही चप्पल, वही अपने हाथ से कपड़े साफ करना, दिन-रात में एक बार भोजन करना, चौकी पर चटाई बिछाकर सोना, सदा तीसरे दर्जे में सफ़र करना, सच बोलना और जनता की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना। पहले तो बाबूजी का यह सुराजी बाना जाने कैसा-कैसा उन्हें लगा था। यह किसी ऋषि की तपस्या से किसी भी माने में कम नहीं था। लेकिन बाबूजी की दृढ़ता भी कोई साधारण नहीं थी। कभी वह अपने पन से डिगे हों, ऐसा किसी ने नहीं देखा। वह बेचारी क्या करतीं? बब्बू को गोद में लिये वह मन-ही-मन रोतीं, लेकिन ऊपर से बाबूजी के आदेशों के पालन में कोई कमी दिखाई न दे, इसके प्रयत्न में लगी रहतीं। बब्बू के होने के बाद बाबूजी ने यह व्रत लिया, इसे वह अपना सौभाग्य समझतीं, वर्ना... और इसके आगे सोचकर वह काँप-काँप उठतीं। बाबूजी कभी ऐसे हठी हो जाएँगे, कौन सोचता था।
बाबूजी की तपस्या सफल होते बहुत देर न लगी। जनता के वह प्रिय हो गये। कस्बे से जि़ले के और फिर प्रान्त के नेता हो गये। चारों ओर बाबूजी की धूम, सब के मुँह पर बाबूजी-बाबूजी! लेकिन बाबूजी का जीवन वहीं-का-वहीं। रंचमात्र का भी परिवर्तन नहीं, जैसे जो बाबूजी पहले थे, वही अब भी, कहीं कोई अन्तर आया ही नहीं। फिर जेल... पुलिस की लाठियाँ ... और सन् बयालीस... भगवान की कृपा से उन्हें सिर्फ दस साल की सज़ा हुई, वर्ना लोग तो कहते थे, फाँसी पर लटका दिये जाएँगे।... प्यूनिटिव टैक्स... खेती-बारी ज़ब्त। कैसे कटे थे बब्बू की माँ के दिन! भगवान दुश्मन को भी न दिखाये वैसे दिन! लोग उनके पास भी आते सहमते। घर में एक दाना नहीं। रात को पड़ोसी सोता पडऩे पर छुपकर कुछ खाने को दे जाता, तो अधम काया की भूख मिटती वर्ना फ़ाँका...
आखिर वे यातना और आतंक के दिन भी कट ही गये। स्थिति सुधरी तो खोज-खबर लेनेवाले भी आए।... फिर तीन बरस बीतते-न-बीतते बाबूजी छूटकर आ गए। उनका स्वागत देखकर जैसे सारा कष्ट भूल गया। वह एक दिन और यह एक दिन! बाबूजी घर में आए तो बब्बू को गोद में उठाकर चूमा और उसकी माँ के सिर पर हाथ रखकर पूछा-तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा न!
तीन वर्ष तक रोते-रोते बब्बू की माँ के आँसू जैसे सूख गए थे। इस क्षण अचानक जाने कहाँ से फिर उबल पड़े।
बाबूजी जाने कैसे कण्ठ से बोले- रोती हो? मैं तो नहीं रोया।
बब्बू की माँ आँचल से आँसू पोंछती हुई बोलीं-आप आ गए, ये तो खुशी के आँसू थे।
बाहर भीड़ बाबूजी जि़न्दाबाद के नारे लगा रही थी।
बाबूजी अचानक गम्भीर होकर बोले-मैं आ गया, तुम खुश हो। लेकिन मेरी खुशी तो गुलामी ने लूट ली है। जब तक हमारा देश आज़ाद नहीं हो जाता, हमारी खुशी वापस नहीं आने की। आज़ादी बहुत मुश्किल चीज़ है, इसके लिए... और वह बब्बू को गोद से उतारकर बाहर चले गए।
बब्बू की माँ की समझ में कुछ न आया था। उनकी खुशी बहुत ही छोटी थी, वही उनका जीवन था। उन्होंने बाबूजी को कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया।... लेकिन जब बाबूजी की खुशी के दिन आए तो अचानक ही बब्बू की माँ को लगा कि अब उनकी खुशी बहुत बड़ी हो गई है। कई बार उनका मुँह खुला कि बाबूजी से कुछ कहें। लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। जाने वह खुशी बाबूजी के चेहरे पर कब आई और कब चली गई, जैसे एक फुलझड़ी जली हो, और बुझ गई हो। और बब्बू की माँ मुँह ताकती रह गई हों।
बब्बू ने किसी तरह हाईस्कूल पास किया और अपनी योग्यता से या भाग्य से रेलवे में क्लर्क हो गया। लोगों ने बब्बू की माँ से कहा-बाबूजी का इकलौता लड़का और ...
लेकिन बब्बू की माँ ने बाबूजी से फिर भी कोई शिकायत न की।
लोगों ने कहा-बाबूजी के सभी-के-सभी साथी जाने क्या-से-क्या हो गये। लेकिन बाबूजी एम.एल.ए. होकर भी...
और बाबू जी के जीवन में जैसे कोई परिवर्तन आने ही वाला न हो। वही सब-कुछ, बल्कि और भी सख्ती के साथ। कभी-कभी वह आप ही बब्बू की माँ के पास आ बैठते और जैसे आत्म-स्वीकृति कर रहे हो, बोल उठते-बब्बू की माँ! मैं कितना ग़लत सोचता था! आज़ादी अपने में कोई खुशी की चीज़ नहीं। खुशी तो देश की खुशहाली में है। हाय, हम कितने ग़रीब हैं, कितने दुखी हैं! जिस दिन यह ग़रीबी दूर होगी, दरअसल वही खुशी का दिन होगा! ...
और बब्बू की माँ जैसे उनकी यह बात भी नहीं समझती और उनका मुँह ताकती रहतीं। उनकी खुशहाली बहुत छोटी थी और वह सोचती थीं कि बाबूजी उसे बड़ी आसानी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन वह कुछ भी न कहतीं।
लोग कहते- बाबूजी सचमुच महात्मा हैं!
बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि महात्मा का अर्थ क्या होता है, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।
लोग कहते- न रहने पर तो सभी फ़कीर बनते हैं, रहने पर जो फ़कीर बने वही सच्चा फ़कीर!
बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि फ़कीर किसे कहते हैं, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।
उनकी बानी तो बाबूजी थे, उन्हें खुद कहने की क्या ज़रूरत?
एक बार पहले भी इसी तरह लखनऊ से लौटकर उन्होंने अपनी व्यग्रता प्रकट की थी। लेकिन उस बार तो ज़रा ही देर बाद बब्बू की माँ के पास आकर हँसते हुए कह गये थे-वे सब मुझे पाखण्डी कहते हैं, बब्बू की माँ। कहते हैं, जब फ़र्स्ट क्लास का टिकट मिलता है तो थर्ड क्लास में सफ़र करने का क्या मतलब? कुछ समझती हो?
बब्बू की माँ क्या समझें? जीवन में उन्होंने सफ़र कब किया कि उन्हें फ़र्स्ट और थर्ड की तमीज़ हो?
लेकिन उस बार रात में कभी कोई ऐसी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी। अबकी तो तीन-तीन दिन बीत गए। दिन-भर बाबूजी मौन व्यग्रता में पड़े रहते हैं। और रात में कई-कई बार जाने कैसी आवाज़ बब्बू की माँ के कानों में पड़ती है कि वह चिहुँक-चिहुँककर उठ बैठती हैं। लगता है, जैसे कोई बालक रोता हो, बापू-बापू की रट लगाता हो।
बब्बू की माँ आज रात अपने को बहला न सकीं। वह उठ बैठीं। आवाज़ वैसी ही आ रही है। उन्होंने ज़रा ध्यान से आहट ली, तो लगा, आवाज बाहर से आ रही है। बाहर सहन में बाबूजी सो रहे थे। अन्दर आँगन की अपनी चारपाई से बब्बू की माँ उठ खड़ी हुई। आँगन में मैली चाँदनी फैली हुई थी। दिन-भर की लू की मारी हवा इस वक्त कुछ ठण्डी-ठण्डी सी लग रही थी। रात के सन्नाटे में वह किसी बालक के रुदन-सी आवाज़ कितनी भयानक लग रही थी! बब्बू की माँ को ध्यान आया कि पहले तो यह आवाज़ ज़रा-ज़रा देर में चुप हो जाती थी, लेकिन आज तो यह जाने कब से आ रही है।... दूर के अपने स्टेशन पर जाने बब्बू कैसे है? क्यों ऐसा लगता है कि जैसे बब्बू ही रो रहा हो? जैसे शिकायत कर रहा हो कि बाबूजी ने उसकी पढ़ाई भी पूरी नहीं कराई... यह उम्र हो गई, अभी शादी नहीं कराई... लेकिन नहीं, नहीं, वह शिकायत करने वाला, मुँह लेकर कुछ कहने वाला बेटा नहीं है! जैसी माँ , वैसा ही बेटा।...
वह आवाज़ जैसे और भी करुण, और भी भयानक हो उठी। अकेले घर में बब्बू की माँ को डर लगने लगा। वह चारपाई से उठ खड़ी हुई। बाहर के दरवाज़े के पास की खिड़की से उन्होंने बाहर झाँका। आवाज़ बाहर से आ रही थी। बाबूजी चौकी पर दायीं करवट पड़े थे। कुहनी में उनका मुँह छुपा हुआ था, साफ़ दिखाई न दे रहा था। वह आवाज़ उसी तरह बही आ रही थी। फिर बाबूजी को देखते हुए बब्बू की माँ को सहसा ही ऐसा लगा कि जैसे अब वह आवाज़ उनके कानों से टकराकर दूर चली गई है और उनको एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। जब वह इस घर में आई थीं तो बाबूजी अकेले ही थे। उनके माँ-बाप जाने कब के गुज़र चुके थे। रात में चारों ओर जब सोता पड़ जाता तो वह इसी खिड़की पर आकर उन्हें धीरे-धीरे पुकारते, दरवाज़ा खोलो... और एक बार वह भी इस खिड़की पर आई थीं। यही जेठ के दिन थे। आँगन में सोई यी थीं कि अचानक उनकी नींद उचट गई। जाने मन में क्या उठा कि वह इस खिड़की पर आ गईं। लेकिन उन्हें पुकारें कैसे? फिर आँगन में से कुछ कंकडिय़ाँ चुन लाईयीं और एक-एक कर खिड़की से उनकी चारपाई पर फेंकने लगीं। वह उठे तो दरवाज़ा ज़ोर से खोलकर आँगन में चली गई थीं। उन्होंने अन्दर आकर कहा-एक कंकड़ी मेरी भौंह पर लगी है!
-अरे, उन्होंने व्यस्त होकर कहा था-कहाँ? चोट तो नहीं लगी?
-नहीं, नहीं, वह कंकड़ी थी कि पंखुड़ी? ...
और वह बब्बू! हे भगवान, उस रात कहीं वह चुक ई होतीं तो उन्हें बब्बू की माँ कौन कहता? और फिर उसके बाद तो ...
उनके मन में आया, एक कंकड़ी फेंकूँ क्या? ... कि अचानक बाबूजी चौकी पर उठ बैठे।
और बब्बू की माँ के मन में आया, दरवाज़ा खोल दूँ क्या? और सच ही बढ़कर उन्होंने दरवाज़ा खोला ही था कि उनकी आवाज़ आई-बब्बू की माँ! -उस आवाज़ में कैसी तो एक तड़प थी कि बब्बू की माँ का सपना टूट गया। सिर का आँचल ठीक करती हुई जैसे एक अपराधी की तरफ वह बोलीं-कहिए!
-इस बेला तुमने दरवाज़ा क्यों खोला?
-मुझे ऐसा लगा कि बाहर कोई बालक रो रहा है।
-तुमने सुना था?
-तीन रातों से सुन रहीं हूँ।
-ओह! तनिक रुककर बाबूजी ने कहा-यहाँ आओ।
वह सहमी-सहमी-सी उनके पास आ गई।
वह बोले- बैठो!
आपकी चौकी पर?
-हाँ, तुमसे एक बात कहनी है।
-मुझसे?
-हाँ, बाबूजी खड़े-खड़े ही बोले-अपनी यह बात मैं और किसी से कह नहीं सकता। ... जानती हो तीन रातों से मैं ही रो रहा हूँ...
-आप?
-हाँ, मैं। तुम ने ठीक ही किसी बालक का रुदन सुना। इन्सान जब रोता है तो बालक ही बन जाता है।
-लेकिन क्यों? आप तो मोह-माया...
-कितने दिनों बाद आज तुमने मुझसे एक सवाल पूछा है...
-ओह, क्षमा कीजिए!
-नहीं-नहीं, बब्बू की माँ! एक नहीं तुम हज़ार सवाल पूछो!
मेरा पतन हो गया है। जिस सिंहासन पर तुम लोगों ने मुझे बैठा रखा था, उससे मैं च्युत हो गया हूँ। मैं...
-यह सब आप क्या कहते हैं? मेरी समझ...
-आज तक तुम ने समझकर मेरी कोई बात नहीं मानी। मेरी बात ही तुम लोगों के लिए वेद-वाक्य रही। लेकिन आज मैं चाहता हूँ कि पहले तुम मेरी बात समझो। तुम्हें मैं वह पूरी घटना ही सुनाता हूँ, जिसने मेरे जीवन के सभी आदर्शों, सिद्धान्तों और बड़ी-बड़ी त्याग-तपस्या की बातों को एक मामूली- सी स्थिति की चट्टान पर पटककर चूर-चूर कर दिया है। मैं तीन दिनों से रो रहा हूँ, लेकिन ऐसा लगता है कि सारी जि़न्दगी जिस राह मैं चला हूँ, उसी पर मैं भटक गया हूँ। सुनो! उस दिन गाड़ी में बेहद भीड़ थी। दोपहर को गाड़ी पहुँची, तो ऐसी भीड़ डब्बे में घुसी कि मेरा दम फूलने लगा। ऐसा लग रहा था। कि मैं बेहोश हो जाऊँगा। लोगों की साँसों से जैसे लपटें छूट रही थीं । सोचा, उतरकर जान बचाऊँ, लेकिन उस भीड़ में से उतरना कोई मामूली काम न था। फिर भी मैं झोला लेकर उठ खड़ा हुआ। और किसी तरह एक पग बढ़ाया ही था कि गाड़ी ने सीटी दे दी। अब क्या करूँ, लोगों ने कहा, बैठ जाइए, गाड़ी चलेगी तो थोड़ी राहत मिलेगी। मेरे बैठते-बैठते गाड़ी चल पड़ी। तभी एक चमरौंधा जूता मेरी गोद में आ गिरा। मैंने खिड़की की ओर नज़र घुमाई तो एक पोटली मेरी पीठ से बज उठी। देखा, एक बूढ़ा किसान मेरी खिड़की में पाँव डाले ऊपर चढ़ रहा है। जाने मुझे क्या हुआ कि मेरा दिमाग ही खराब हो गया। गोद का जूता उठाकर मैंने बाहर फेंक दिया और मारे गुस्से से काँपने लगा। किसानों ने अन्दर आकर माथे का पसीना मेरे सिर पर चुलाते हुए कहा, छिमा कीजिएगा, बाबूजी, हमें दो ही टीसन जाना है। उसके मुँह से बाबूजी सुनकर मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। वह शायद मुझे पहचानता था। मैंने दूसरी ओर मुँह फेर लिया वह अपनी पोटली और जूते सँभालने लगा। फिर बोला, हमारा एक जूता किधर जा पड़ा? मैं जानता था कि उसका एक जूता कहाँ है, लेकिन मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली। अब मैं सोच रहा था कि कहीं इसे मालूम हो जाय कि मैंने ही इसका एक जूता... वह छटपटाकर आस-पास के लोगों से पूछ रहा था और लोग उसे डाँट रहे थे। आखरी हार-पछताकर उसने पूछना बन्द कर दिया। फिर भी रह-रहकर बोल उठता था, जाने हमारा एक जूता कहाँ चला गया? भुभुर में मेरा पाँव जल जाएगा। आखरी बेल्थरा रोड आया और जब वह एक जूता और पोटली लटकाये नीचे उतर गया, तो मेरी जान में जान आयी। लेकिन, बब्बू की माँ, फिर जो दृश्य मैंने देखा है, वह... वह...बाबू जी का गला भर्रा गया- वह मैं कभी भी न भूल सकूँगा! वह किसान एक पाँव में जूता डाले और दूसरे नंगे पाँव से पिघलते कोलतार पर चला जा रहा था।  उसका पाँव पिघलते कोलतार पर ऐसे पड़ रहा था, जैसे अंगार पर और फिर मुझे ऐसा लगा कि वह नंगे पाँव अंगार पर नहीं, मेरी छाती पर चल रहा है... और मैं कुचला जा रहा हूँ ...कुचला जा रहा हूँ ... बब्बू की माँ, मैं क्या करूँ? क्या करूँ?- और बाबूजी अपनी छाती मसलते हुए चौकी पर बैठ गए।
बब्बू की माँ को लगा कि जैसे वही आवाज़ फिर उनके कानों से आकर टकराने लगी। वह उठ खड़ी हुईं और दरवाज़े की तरफ बढ़ती हुई बोलीं- मैं क्या जानूँ, बाबूजी मेरी समझ में तो आज तक आपकी कोई बात नहीं आई, फिर यह बात तो और भी मुश्किल मालूम होती है। मैं आपको क्या बता सकती हूँ?  

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