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Mar 16, 2019

कविताः अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

अगले जनम मोहे बिटिया कीजो
- प्रेम गुप्ता 'मानी

माँ,         
आज तुम्हारी इजाज़ के ब़गैर
मैं
तुम्हारे भीतर की सुरंग में उतर रही हूँ
यद्यपि,
तुमने जीते जी
कभी वहाँ झाँकने भी नहीं दिया
पर आज,
जब मेरे पाँव तले की धरती
खिसक रही है
मैं जानना चाहती हूँ कि
बिना किसी ठोस आधार के
तुम जीती कैसे थी?
एक इतिहास
जो ढेरो-ढेर स्त्रियों के क्रंदन का है
तुमने रचा
और बंद कर लिया अपनी गुफा में
वह गुफा
काफी लम्बी...गहरी और अँधेरे से भरी हुई है

माँ,
मैं जानती हूँ कि
ऊबड़-खाबड़ पत्थरों
दलदली मिट्टी
और दरकती दीवारों वाली खोह में
कहीं $फन है वह इतिहास
और उसके पीले पन्नों में
आज भी दर्ज है
प्रागैतिहासिक काल का सच


माँ,
मैं तुम्हारी बड़की
देखती थी कि
जब-जब तुम्हारे भीतर का अँधेरा
तुम्हारी आँखों के रस्ते
बाहर आने को ललकता था
तब-तब
पानी की एक घूंट भर कर
तुम उसे भीतर सरका देती थी
क्या तुम्हें पता नहीं था कि
उसे भी,
हवा-पानी और रोशनी की दरकार थी

माँ,
तुम्हारी कोशिश को नकार
तुम्हारा अँधेरा
तुम्हारी आँखों की कोर-बिन्दु से टपक
मेरे भीतर भर गया था
और उसी दिन
तुम्हारी आँखों से टपका
एक मोती
मैंने चुपके से चुरा लिया था
समय से परे वह मोती
आज भी मेरे आँचल से बँधा है
और अक्सर  मेरे एकांत में
तुम्हारी चुगली करता है

माँ...
नानी की कहानी सुनाते वक़्त
तुम कितना-कितना तो रोई थी
आठ बेटियों के बोझ (?) से दबी
मेरी नानी
अपनी कोख का बदला चुकाते वक़्त
कैसे भूल जाती थी
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों को
जो बर्तन घिसते-घिसते
खुद घिस गए थे
और कच्चे फर्श की धूल

तुम आठों बहनों की आँखों में भर कर
तुम सबके सपनों की उजास को
ढँक लेती थी
आज जब
नन्हें-मुन्नों से लेकर
जवान-जहान लड़कियों को
टाइट स्कर्ट और जीन्स में देखती हूँ
तब सोंचती हूँ कि
मात्र आठ बरस की उमर में
कैसे पहनती थी तुम
पाँच गज़ की साड़ी...?
और तेरह बरस की कच्ची उम्र में
ढेर सारे
भारी गहनों से लदकर
नन्हें-नन्हें पाँवों में महावर रचा
नंगे पाँव
कैसे उतरी होगी पालकी से
सासरे की ठोस-पथरीली ज़मीन पर?

माँ,
आज पूरी निडरता से पूछती हूँ तुमसे
क्या नानी की छाती में
दिल नहीं धड़कता था?
तुम आठों बहनों का
क्या कसूर था?
तुम्हारी मासूमियत
उन्हें पिघलाती नहीं थी?

माँ,
तुम्ही से जाना था
नाना अंग्रेजों के ज़माने के अफसर थे
हिन्दुस्तानी होने के बावज़ूद
उनके अंग्रेज मातहत भी काँपते थे उनसे
अंग्रेजों का साम्राज्य
ऐसे विद्वान फ़सरों पर ही तो टिका था
मैं जानना चाहती हूँ कि
ऐसे विद्वान-कड़क आदमी को भी
एक बेटे का सहारा चाहिए था?
नाना,
दूसरी शादी करते कि
नानी एक के बाद एक
चार बेटों की सौगात दे मुक्त हो गई
उस दुनिया से ही
जहाँ बेटियों की कोई कदर नहीं थी
और,
भारत माता की तरह
बेटियों की माएँ भी गुलाम थी
वे परम्पराओं की जंजीर से बँध कर
उसमें अपनी बेटियों को भी जकड़ लेती थी
पर माँ,
मैं पूछती हूँ तुमसे
तुम तो आज़ाद भारत में माँ बनी थी?
पिता भी आज़ादी का समर्थन करते थे
फिर किन सरोकारों के चलते
एक बेटे की चाहत ने
तुम दोनों को जकड़ लिया था
और बड़े अरमान से तुमने
अपनी मन्नतों की कोख को सींच कर
सड़ी-गली मान्यताओं की
अँधेरी...सीलन भरी उस कोठरी में
जहाँ दस बेटियाँ जन्मी थी
तुमने सहसा
एक बेटे को जनम दे
चौंका दिया था
दादा-दादी और पिता को
उन सबका बस यही एक अरमान था
माँ - याद है?
पूरा महीना 'घर
रोशनी से नहाया रहा
और तुम्हारे वे पाँव
जो मात्र तेरह बरस की उमर में
पथरीली ज़मीन की ठसक से आहत थे
अब उन पर पिता के हाथों का मरहम था
माँ- तुमने और पिता ने
उस बेटे का नाम भी रखा तो...'अरमान
पर माँ
एक बेटे की कीमत पर
कहीं--कहीं नानी की तरह
तुम भी हारी थी
यद्यपि
पिताजी नानाजी की तरह कड़क नहीं थे
पर परम्पराओं से आज़ाद भी नहीं थे
वंश को आगे बढ़ाने के लिए
उन्हें भी चाहिए था
एक बेटा...
एक ऐसा बेटा जो बुढ़ापे का सहारा बने
माँ...तुम्ही बताओ
क्या बेटियाँ सहारा नहीं बनती?
वंश-ग्रंथावली में उनका नाम क्यों नहीं होता?

माँ,
तुम नानी की तरह
अपने बोझ (?) का बदला
अपनी बेटियों से नहीं लेती थी
पर हर बरस
जब तुम्हारी कोख हरी होती
तब पूरे नौ महीने
तुम्हारी आँखों में
एक अनकही पीड़ा भरी रहती
पिताजी,
अपने सपनो की सारी उजास
सारी खुशियाँ
तुम्हारे आँचल में डाल देते
पर उन्हें लेते भी
तुम्हारे हाथ काँप-काँप जाते
चकित हूँ माँ
यह सोच कर कि
साल-दर-साल का ही फ़र्क था हम बहनों में
पर फिर भी
अपनी मासूम आँखों से
तुम्हारे दर्द को महसूसती ही नहीं थी
बल्कि,
अपनी नन्हीं हथेलियों से उन्हें
समेटने की कोशिश करती थी
अपने गोल घड़े जैसे पेट को
सावधानी से पकड़ कर
अपने भीषण दर्द को होंठो से दबा कर
अपने बच्चों के लिए ढेर सी
पूड़ी-सब्जी बना कर
जब तुम पतली-मरगिल्ली सी
दाई के साथ
अँधेरी कोठरी में जाती थी
तब पल भर के लिए
हम सब की सांसे थम जाती थी
पिता बहुत बेचैन हो उठते
उनके हर क़दम के साथ
तुम्हारी ज़िन्दगी भी जैसे
चलती-थमती थी
और हम सब की खुशियाँ भी
माँ,
ग्यारहवीं बार तुमने
कूड़े के ढेर ( बेटियों) पर
एक हीरे (?) को जनम दिया

माँ-
आज तुम नहीं हो
पिता भी नहीं हैं
पर काश! माँ,
उस वक्त हम नन्हीं बच्चियाँ
तुम्हें बता सकती
पिताजी के सपनों की उस उजास की बात
जो पूरे घर में फैल गई थी
मरियल सी दाई के पैरों पर झुके
पिताजी की आँखों से गिरे
खुशी के वे आँसू
आज भी
हमारे घर की दीवार पर टँगी
पिताजी की तस्वीर पर
ठहरी हुई है

माँ-
तुम नानी की तरह नहीं थी
पर उनका अंश तुम्हारे भीतर था
तभी तो
अरमान को पालने, बड़ा करने
खूब पढ़ाने
और बड़ा आदमी बनाने के जनून में
अपनी बेटियों के अरमानों को भूल गई
और जब याद आया
पिताजी ने तुम्हारा साथ छोड़़ दिया
और उसके चंद महीने बाद
तुमने अपनी बेटियों का...

माँ-
आज मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ
कि जिस अरमान को
तुमने बड़े अरमान से पाला था
वह विदेश में
अपनी पत्नी के साथ सुखी है
और इतना सुखी कि
उसने हमारी ओर मुड़ कर भी नहीं देखा
माँ,
क्या तुम जानना नहीं चाहोगी
कि तुम्हारी बेटियाँ कैसी हैं?
आज मैं तुम्हें ही नहीं
पिताजी को भी बताना चाहती हूँ
कि छुटकी
किसी आवारा लड़के के साथ भाग गई है
और मँझली...
गैंगरेप का शिकार हो
ख़ुदकुशी कर चुकी है

माँ,
दु: के क्षणों में तुम्हीं कहा करती थी
कि हम
दस बहनें नहीं,
दस उँगलियाँ हैं तुम्हारी
मुट्ठी बंध जाए तो तुम्हारी ताकत हैं
पर माँ
दो उँगलियाँ तो कट गई
और आठ उँगलियों से मुट्ठी नहीं बँधती
बाँधने की कोशिश करते हैं
तो एक खालीपन घेर लेता है

माँ,
हम आज़ाद देश की लड़कियाँ हैं
हमें पूरी आज़ादी है
चाहे तो छोटे-छोटे कपड़े पहन कर
बाज़ारों में घूम सकते हैं
बिना कपड़ों के भी
खुली हवा में साँस ले सकते हैं

माँ,
जानती हो
आज हमारे देश में
हर बरस
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है
उन्हें शिक्षित करने का संकल्प लिया जाता है
पुरुषों के कँधे-से-कँधा मिला कर
चलने की हिम्मत दी जाती है
सब कुछ है
इस आज़ाद (?) देश में
पर बेटियों के
जिस्म की सुरक्षा का संकल्प नहीं
जिन बेटियों के पास कोई 'अरमान’  नहीं
उनकी सुरक्षा का संकल्प कौन लेगा?
मंदिर-मस्जि़द-गुरुद्वारा
या कोई महिला-आश्रम...?

माँ,
हम पूरी दुनिया को बताना चाहते हैं
कि हम भी झाँसी की रानी है
हम भी इंदिरा गाँधी हैं
हम भी ठोस हैं- इस धरती की तरह
पर माँ,
अब दुनिया हमें बता रही है
झाँसी की रानी का अंत
इंदिरा गाँधी का हश्र
और ख़त्म होती ओजोन परत से
सूखती धरती का भविष्य...

माँ,
जिस घर को
पिताजी ने अरमान के लिए
बड़े 'अरमानसे बनाया था
अब उसके चौबारे पर
गुंडों का कब्जा है
सारी रात शराब और शबाब का दौर है
और है काँपती हुई फिज़़ा
माँ, याद है तुम्हें?
दसवीं बार में जब तुमने छुटकी को जन्मा था
तब तुम्हारे होंठ बुरी तरह काँपे थे
और तुम्हारी आँखों से बहा था
खारे पानी का झरना
सारी रात उस झरने के नीचे बैठ कर
तुमने किससे कहा था-
'अगले जनम मोहे बिटिया कीजो


माँ...
वह झरना आज भी बह रहा है
और तुम्हारी बेटियाँ भी
सारी रात भीगती हैं उसमें
पर माँ,
इस जनम का क्या करूँ ?
सोचती हूँ
इस पुरानी...जर्जर हवेली का
चरमराता दरवाज़ा टूटे
उससे पहले ही
हमें पूरी हिम्मत के साथ
बाहर आना होगा...

सम्पर्क: एम.आई.जी- 292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना सं-एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (.प्र), E-mail- premgupta.mani.knpr@gmail.com

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