इप्पापल्ली गाँव की श्यामलम्मा के खेत के अनाज - फोटो अशीष कोठारी |
महिला किसानों का अन्न स्वराज
-बाबा मायाराम
तेलंगाना का संगारेड्डी जिला महिला
किसानों की पौष्टिक अनाजों की खेती का तीर्थ बन गया है। इस खेती को जानने समझने के
लिए देश-विदेश से लोगों का ताँता लगा रहता है।
किसान, पत्रकार, शोधकर्ता और
सामाजिक कार्यकर्ता सबका ध्यान इसने खींचा है। इस खेती ने न केवल खाद्य सुरक्षा की, बल्कि जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी किया है। यह सब हुआ है
डैक्कनडेवलपमेंटसोसायटी (डीडीएस) की पहल
से, जो
इस इलाके में पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से कार्यरत है।
हाल ही मुझे यहाँ जाने का मौका मिला। 26-29 नवंबर को
पस्तापुर ( जहीराबाद) में विकल्प संगम की कोर समूह की बैठक थी। इसमें मैं भी शामिल
था। इस दौरान मुझे डैक्कनडेवलपमेंटसोसायटी ( गैर सरकारी संस्था) और दलित महिला
किसानों की खेती को नजदीक से देखने का मौका मिला। कई महिला किसानों से बात की।
उनके खेतों का भ्रमण किया। देसी पौष्टिक अनाजों के बीज बैंक देखे। महिलाओं के
द्वारा संचालित संगम रेडियो स्टेशन देखा,
उनके द्वारा बनाई खेती-किसानी पर फिल्में देखीं और उनकी बातें सुनी व विचार
जाने। महिलाओं द्वारा संचालित संगम रेडियो देश का पहला सामुदायिक रेडियो है।
इपापल्ली गांव की श्यामलम्मा |
आगे बढ़ने से पहले यहाँ यह बताना उचित होगा कि यह इलाका
सूखा क्षेत्र है। यहाँ बहुत कम बारिश होती है। 600मिलीमीटर सालाना वर्षा का अनुमान है। जमीन कम उपजाऊ है।
पथरीली लाल और लैटराइट मिट्टी है,
जो चट्टानों की टूट-फूट से बनती है।
डैक्कन डेवलपमेंट सोसायटी कैसे बनी, और कैसे
दलित महिला किसानों के बीच काम शुरू हुआ,
इसकी भी कहानी है। 80 के
दशक में पी.व्हीसतीश (जो वर्तमान में डीडीएस के निदेशक हैं) पत्रकार थे, भारतीय जन
संचार संस्थान, दिल्ली
(इंडियन इंस्टीट्यूटआफ मास कम्युनिकेशन) से जुड़े थे। इस दौरान उनका कई गाँवों में
जाना होता था। कई डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाईं।
उन्होंने गाँवों को नजदीक से देखा। उनकी समस्याएँ सुनी और
देखीं, उन्हें
लगा कि उनकी जरूरत दिल्ली में नहीं,
गाँवों में है। और यहीं से उनके जीवन में मोड़ आया। उनके कुछ मित्र भी साथ थे, सबने मिलकर
गाँव की राह पकड़ी। लेकिन वे अकेले ही टिके जो अब भी इस इलाके में हैं और महिला
किसानों के साथ काम कर रहे हैं।
पी.व्ही. सतीश बताते हैं कि हम गाँव में कुछ करना चाहते थे, लेकिन क्या
करें, यह
पता नहीं था। जब हम यहाँ आए और लोगों के साथ बात की। उनकी बातें ध्यान से सुनी। और
यहाँ बेरोजगारी की हालत देखी। लोगों को काम नहीं मिलता था। रोजाना मजदूरी में 2रुपये मिलते
थे। दूसरी तरफ सूखे की खेती थी,
उपज नहीं होती थी। इन दोनों स्थितियों को मिलाकर देखने पर हमें लगा कि खेती को
बेहतर बनाकर रोजगार की समस्या हल हो सकती है।
महिलाओं के साथ काम करने का विचार ऐसे आया कि उस समय इंदिरा
आवास योजना के मकान बनाए जा रहे थे। महिलाएँ वहाँ काम करने आती थीं। इस दौरान हमने
देखा कि उनमें काम करने का बहुत धीरज है और किफायत से पैसा खर्च करने की आदत भी
है। उन्हें ही परिवार चलाना होता था। खेती के बारे में उनकी दिलचस्पी और जानकारी
दोनों थी। इस तरह महिलाओं के संगम ( समूह ) बनाए और देसी बीजों की खेती का काम
चलने लगा। और आजीविका के मुख्य स्रोत खेती को सुधारने का काम शुरू हो गया।
वे आगे बताते हैं कि वाटरशेड के माध्यम से खेतों का पानी
खेतों में रोका गया। जमीन को कम्पोस्ट खाद आदि से उपजाऊ बनाया गया। जब जमीन अच्छी
हुई तो खेती-बाड़ी अच्छी होने लगी। एक फसल की जगह मिश्रित फसलें होने लगीं। एक ही
खेत में 10-10
फसलें बोई जाने लगीं। मिट्टी-पानी को बचाने का नजरिया बना और इससे खेतों में
जैव-विविधता बढ़ी।
लम्बाड़ी आदिवासी महिलाएँ |
वे आगे बताते हैं कि लोगों की भोजन की थाली में पौष्टिक
अनाज शामिल होने लगा। चावल,
ज्वार, मड़िया, तुअर जैसी
कई प्रकार की दालें शामिल होने लगीं। यहाँ ज्वार की ही 10प्रजातियाँ
हैं। बीहड़ भोजन ( अन-कल्टीवेटेडफुड) की पहचान भी की गई। इसमें पोषण ज्यादा होता
है। करीब 165
प्रकार के गैर खेती भोजन की पहचान हुई। एक ही खेत में 40-50 प्रकार की
प्रजातियाँ मिली। इसके बारे में लोगों को ज्यादा मालूम नहीं था। लेकिन हमने और
कृषि वैज्ञानिकों ने गाँववालों के साथ मिलकर इनकी खोज की। इससे एक सोच बनी कि जहाँ
खेती कम होती है, वहाँ बीहड़
भोजन ज्यादा मिलता है। यानी सीधे खेतों व जंगलों से कुदरती तौर पर मिलने वाले कंद, अनाज, हरे पत्ते, फल और फूल
इत्यादि।
पी. व्ही. सतीश कहते हैं कि यह सब समुदाय से, किसानों से, महिलाओं से
सीखकर हमने समाज को बताया है,
यह उनका ज्ञान है,
जिसे पहले सीखा और फिर सबको सिखाया। अब हम 75 गाँव में काम करते हैं। यह सभी गाँव 30 किलोमीटर
के क्षेत्र में हैं। जिसमें 15 से
20प्रतिशत
दलित आबादी है।
हम महिला किसानों से मिलने उनके गाँव गए। 29 नवंबर को
हमारी (विकल्प संगम की) पूरी टीम इप्पापल्ली गाँव
पहुँची, जहाँ
हम श्यामलम्मा से मिले,
जो उनके डेढ़ एकड़ खेत में खेती करती हैं। उन्होंने पूरे अनाज को फर्श पर
सजाया कर हमें देसी बीजों की खास बातें बताईं।
रंग बिरंगे बीज न केवल रंग-रूप में बहुत सुंदर लग रहे थे, और लुभा रहे
थे बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ थे। उन्होंने बताया कि खेत में 28 से 30प्रजातियाँ
बोती हैं।
इनमें से 9 से
15
रबी की किस्में थीं,
बाकी सभी खरीफ की। उन्होंने बताया कि अगर बारिश ठीक हुई तो उसकी नमी में रबी
की फसलें बोती हैं। यहाँ दो प्रकार की मिट्टी है, लाल और काली। काली मिट्टी हो तो रबी की फसलें होती हैं।
उन्होंने सभी तरह की फसलें दिखाई जिनमें ज्वार, मड़िया,
सांवा, काकुम, बरबटी, तिल,सरसों अलसी, चना, मूँग, मटर आदि
थीं। श्यामलम्मा ने बताया कि यह सभी फसलें पूरी तरह जैविक हैं। उनके परिवार की
भोजन की जरूरत इससे पूरी हो जाती हैं। अगर जरूरत से ज्यादा हुई तो बेचते भी हैं।
अगला गाँव लच्छीनाथांडा था। इसमें लम्बाड़ी आदिवासी रहते
हैं। डेक्कनडेवलपमेंटसोसायटी का काम दलित महिलाओं में बरसों से रहा है। लेकिन
दो-तीन साल पहले ही आदिवासियों में पौष्टिक अनाज की खेती का काम शुरू किया है।
खेती के साथ स्वास्थ्य और कानूनी मुद्दों पर भी काम हो रहा है। इसके लिए अलग
कार्यकर्ता भी हैं। सामुदायिक रेडियो ( संगम रेडियो) और वीडियो फिल्म भी महिलाएं
ही बनाती हैं।
संगम रेडियो की मैनेजर जनरल नरसम्मा |
डैक्कनडेवलपमेंटसोसायटी की इस दिन नियमित बैठक थी। जिसे
संगम पर्व (संगम फेस्टिवल) कहा जाता है। संगम पर्व की प्रक्रिया में हम सब भागीदार
थे, जहाँ
आदिवासी महिलाओं ने अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने देसी बीजों की जानकारी दी। यह
बताया एक साल में क्या क्या किया। बीजों को बोने से लेकर भंडारण तक की प्रक्रिया
बताई।
यहाँ की मोतीबाई ने बताया कि पहले हम अनाज खरीदते थे, अब खेत में
ही 30
अनाज की किस्में लगाते हैं। संगम यानी समूह होता है जिसमें 20 से 40 या उससे भी
ज्यादा महिलाएँ होती हैं। अगर अनाज जरूरत से ज्यादा होता है ,तो बेचते हैं। अब मवेशियों के लिए पर्याप्त चारा है। खेत के लिए केंचुआ
खाद और जैवकीटनाशक गाँव में ही तैयार कर लेते हैं। संगम में हर सदस्य प्रत्येक माह
100 रुपये जमा करते हैं और जरूरत पड़ने पर ऋण ले लेते हैं।
महिलाओं ने बताया कि उनकी खेती में हैदराबाद के लोगों ने
मदद की है। असल में इसके लिए एक समूह है, जिसे
कन्यजूमर-फार्मरकाम्पेक्ट कहा जाता है। यानी उपभोक्ता और किसानों का समूह। किसानों
की मदद उपभोक्ता करेंगे और समय -समय पर वे किसान की खेती की प्रक्रिया में
शामिल होंगे। यानी बुआई और कटाई के समय आएँगे।
फसलें देखेंगे और किसान से मिलेंगे। उनमें खेती से जुड़ाव भी होगा और उन्हें जैव
उत्पाद सीधे किसान से मिल पाएगा। इसमें कोई बिचौलिए नहीं होंगे। यह नई पहल है।
इसके अलावा,
वैकल्पिक जन वितरण प्रणाली यानी सस्ते दामों पर जैविक अनाज लोगों को उपलब्ध
कराना। यानी उत्पादन करना,
भंडारण करना और वितरण करना,
तीनों ही काम स्थानीय स्तर महिलाओं ने सँभाले
हैं।
महिलाओं ने बताया कि छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज गाँव में
ही हो जाता है। इसके लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं। और गाँव के छोटे-मोटे झगड़े
गाँव में ही सुलझा लेते हैं। इसके लिए कानूनी मदद कार्यकर्ता देते हैं।
जो देसी बीज लुप्त हो रहे थे उनका बीज बैंक बनाया है।
किसानों के पास खुद बीज बैंक है। एक बीज बैंक पस्तापुर में है जिसे मैंने देखा।
बेडकन्या गाँव की मोलेगिरीचन्द्रम्मा और उमनापुर गाँव की ब्यागरीलक्षम्मा ने मुझे
यह बीज बैंक दिखाया और बीजों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि यहाँ 70 देसी बीजों
की किस्में हैं। जिसमें पौष्टिक अनाजों के साथ, तिलहन,
दलहन और मसाले शामिल हैं।
इसके अलावा,
हर वर्ष जैव विविधता मेला भी होता है। यह 1998 से चल रहा है। यह मेला हर साल की शुरूआत में होता है।
इसमें गाँव-गाँव में महिला किसान का जत्था जाता है। एक साथ मिलकर और हर गाँव में
उनके खेत की जैव विविधता को दिखाते हैं। इसमें टिकाऊ खेती, स्वावलंबी
खेती, देसी
बीजों के गुणधर्म, जैविक
उत्पादों का बाजार, मिट्टी
और किसान के रिश्ते पर चर्चा होती है। यह एक माह तक चलता है जिसमें महिलाएं देसी
बीजों को सजाकर उनका प्रदर्शन करती हैं। इस प्रकार, खेती को एक पूरी संस्कृति बना दिया जो पूर्व में हमारी
संस्कृति थी ही। लोगों में खेती को लेकर उत्साह जगाया और उसे फिर से लोगों की
मुख्य आजीविका बना दिया।
माचनूर गाँव में बीज बैंक |
कुल मिलाकर,
डैक्कनडेवलपमेंटसोसायटी और महिला किसानों की पौष्टिक अनाजों के खेती के बारे
में चार-पाँच बातें कही जा सकती है,
उससे कुछ सीखा जा सकता है। एक, जहाँ कम
वर्षा हो, अनियमित
वर्षा हो या सूखा हो,
सभी परिस्थितियों में हो यह खेती हो जाती है। यानी इन अनाजों में मौसमी
उतार-चढ़ाव तथा पारिस्थितिकी हालात का मुकाबला करने की क्षमता होती है। कम उपजाऊ
मिट्टी में भी ये आसानी से हो जाते हैं। इनमें किसी प्रकार के रासायनिक खाद की
जरूरत नहीं होती और न ही किसी प्रकार का कीट-प्रकोप होता है। यानी यह अनाज
कीट-मुक्त होते हैं। पौष्टिक अनाज की फसलें पूरी तरह मौसम बदलाव के लिए उपयुक्त
हैं।
दो,यह ऐसे अनाज हैं जो लुप्त होते जा रहे हैं। हरित क्रांति के बाद गेहूँ और चावल का उत्पादन तो
बढ़ा है लेकिन अन्य अनाजों में हम पीछे हो गए हैं, जिनमें कई फसलों के तो अब देसी बीज मिलना मुश्किल हो रहा
है। देसी बीजों की खेती की ओर वापस लौटे। देसी परंपरागत ज्ञान से उन्होंने सीखा।
उनकी समस्याओं का हल उन्हें पारंपरिक ज्ञान में मिला और आधुनिक ज्ञान ने उनकी राह
को आसान बनाया।
तीन,
कुपोषण भी कम हुआ। ये सभी अनाज पोषण से भरपूर है। इनमें कई तरह के पोषक तत्त्व होते हैं। जैसे रेशा, लौह तत्व, प्रोटीन, कैल्शियम
खनिज जैसे पोषक तत्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं। ये अनाज न केवल मनुष्य के भोजन
की जरूरत पूरी करते हैं बल्कि पशुओं के लिए चारा भी प्रदान करते हैं। खाद्यान्न के
साथ भरपूर पोषण भी देते हैं। स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हैं। जैव विविधता और
पर्यावरण की रक्षा करते हैं।
चार,
फली वाले अनाजों से जैव खाद बनती हैं,
जो मिट्टी को उर्वर बनाती है। यानी ये अनाज न केवल मिट्टी की उर्वरता का
इस्तेमाल करते हैं बल्कि मिट्टी में उर्वरता वापस भी देते हैं। महिला सशक्तीकरण तो
हुआ ही, उनमें
गजब का आत्मविश्वास देखने में आता है। आज वे वीडियोग्राफी से लेकर फोटोग्राफी कर
रही हैं। फिल्में बना रही हैं। रेडियो कार्यक्रम बना रही हैं।
एक और बात जो कही जा सकती है कि विकल्प धीरे-धीरे बनता है।
एक जगह टिककर काम करने के नतीजे देर से निकलते हैं, लेकिन वे टिकाऊ और मार्गदर्शक होते हैं। खेत में अनाज का
उत्पादन, भंडारण
और वितरण का काम महिलाओं ने किया है,
जो पूरी तरह स्वावलंबी है। यह अन्न स्वराज है। (विकल्प संगम से साभार)
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