फुदकने लगी मेरे घर-आँगन में गौरैया
-डॉ. रत्ना वर्मा
देर अभी भी नहीं हुई है, आप अपने घर के आस पास हरियाली रखिए, पेड़- पौधे लगाइए फिर आप खुद देतख लीजिएगा सैकडों गौरैया आपके आँगन में
फुदकती नज़र आएँगी।
मुझे अपना बचपन याद है जब हम
गर्मियों की छुट्टियों में अपने गाँव जाया करते थे। पक्षी तब हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करते थे।
खासकर गौरैया, कबूतर, कौआँ और तोता।
दादा जी ने घर की कोठी के एक तरफ ऊपरी मंजिल पर 10-12 मटके बँधवा दिए थे जहाँ ढेर
सारे कबूतरों ने अपना स्थायी बसेरा बना लिया था। इनके गूटरगूँ से पूरा घर गुजायमान
रहता था। हम उनके इतने आदी थे कि जब उन्हें सैर के बाद शाम को घर लौटने में देर हो
जाती थी तो हम चिंतित हो जाते थे।
सुबह आँगन में जब भी अनाज
सुखाने या साफ करने के लिए डाले जाते सारे कबूतर मटकों से ऐसे उतर कर नीचे ऐसे चले
आते थे मानों वे अनाज उनके लिए ही डाले गए हों। हम बच्चे उनके पीछे भागते वे उड़कर
फिर अपने मटके के ऊपर जा बैठते। यह हमारा कुछ देर का खेल ही बन जाता था। इसके साथ-
साथ कौओं के झुंड के झुंड भी न जाने कहाँ से उड़ कर आते और काँव- काँव से सारा घर
आँगन भर जाते। जिसे सुनकर माँ कहती न जाने आज कौन मेहमान आने वाला है। ...और
गौरैयों का तो कहना ही क्या। वे तो इतनी अधिक संख्या में आँगन और घर की मुंडेरों
पर आ बैठते कि गिनती करना मुश्किल होता।
हमारेआँगन में तुलसी चौरा
के पास एक बहुत ऊँचा हरसिंगार का पेड़ था, यह पेड़ उनकी चहचहाहट से सुबह शाम गूँजता
ही रहता। आँगन में सुखाने के लिए फैलाए चावल को देखते ही गौरैया से पूरा आँगन भर
जाता और जब सफाई के लिए बरामदे में चावल दाल के बोरे रखे जाते तो वे बरामदे तक उतर
आया करती थीं, उन्हें पता था यहाँ हमें कोई नुकसान नहीं पहुँचाएगा।
और इस तरह हम बच्चे पूरी छुट्टियों में माँ
से पका हुआ चावल या रोटी का टुकड़ा माँगकर
लाते और कबूतरों, गौरैयों को अपने पास बुलाने का जतन करते।
जब वे रोटी या चावल खाने नीचे उतरते तो हम खुश होकर तालियाँ बजाते ...तो इस तरह
गुजरा है अपने घर के आँगन में इन पक्षियों के संग मेरा बचपन।
यह खुशी की बात है कि
मेरे शहर वाले घर के आस- पास भी कुछ बड़े पेड़ अब भी बचे हैं जिनमें कोयल की कूहू-
कूहू और बुलबुल के गीत सुनाई पड़ते हैं। और बड़ी संख्या में गौरैया फुदकती हुई घर
की छत तक आकर पानी और दाना खातीं। शाम होते ही दूसरे कई तरह के छोटे- बड़े पक्षी
भी अपने बसेरे की ओर लौटते हुए नजर आते हैं।
यही नहीं घर के सामने
सड़क के किनारे एक पेड़, जिसे पेड़ लगाओ अभियान के तहत कुछ वर्ष
पहले नगर निगम ने लगवाया था ,वह अब इतना बड़ा हो गया है कि
वहाँ पक्षी अपना बसेरा बनाने लगे हैं।
बुलबुल के जोड़े ने इस छोटे से पेड़ पर अपना घोंसला बनाया और अंडे दिए। जब
तक अंडे से बच्चा नहीं निकला और उड़ऩे लायक नहीं हुआ रोज उसकी माँ उसे दाना खिलाने
आती रही। बुलबुल के इस बच्चे को बड़ा होते मैंने देखा है।
पक्षियों को आकाश में
उड़ते देखकर खुश होना और उसके विलुप्त होते जाने पर दु:ख व्यक्त
करना बहुत आसान होता है; पर जब उन्हें बचाने की दिशा में
आपके हाथ भी आगे आते हैं तो उस आनंद को शब्दों में बयान करना मुश्किल हो जाता है।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। पिछले कुछ वर्षों से 20 मार्च गौरैया दिवस के अवसर
गौरैया को बचाए जाने के प्रयास में मैंने
भी अपने घर की छत पर मिट्टी के बर्तनों में पानी, धान और
चावल के दाने रखना शुरु कर दिया। शुरू में
तो एक- दो गौरैया ही नजर आती थी पर आपको बताते हुए खुशी हो रही है कि साल के
बीतते- बीतते छत पर गौरेया के चार जोड़े नियमित रुप से दाना चुगने और पानी पीने
आते हैं तथा ऊपर की छत पर तो ढेरोंगौरेया चहचहाने लगीं हैं। अब सुबह शाम उनकी
चहचआहट से पूरा घर गूंजायमान रहता है। यही नहीं छत पर शाम होते ही जब कभी पहुँचों
तो आसमान में और भी कई प्रकार पक्षी उड़ते हुए नजर आते हैं। उन्हें उड़ते हुए
देखने का अहसास बहुत ही सुखद होता है। जाहिर है वे अपने बसेरे की ओर लौटते हैं।
इनमें से बहुत से प्रवासी पक्षी होते हैं।
मैं चूँकि किसान परिवार से ताल्लुक रखती हूँ;अत:
दीवाली के समय जब फसल कटकर आती है,
तो गाँव में किसान धान की पकी हुई नई बालियों से बहुत
खूबसूरत झालर बनाते हैं। मैं भी पिछले वर्ष से ऐसे झालर बनवाकर लाती हूँ और इन्हें
छत पर ऐसी जगह लटका देती हूँ जहाँ आ कर गौरेया इनके दाने चुग सके। गौरैया इन
झालरों के धान कुछ ही दिनों में सफाचट कर जाते हैं। पर झालरों में लटक कर धान खाते
गौरैया को देखने में बहुत आनंद आता है।
पिछले कुछ वर्षों से शहरों की विभिन्न संस्थाएँ और मीडिया गौरैया
बचाओ अभियान के तहत जागरूकता अभियान जोर -शोर से चला रही हैं। रायपुर की एक सामाजिक संस्था ‘बढ़ते कदम’, तो साल भर चिड़िया के दाने और पानी के लिए सकोरे मुफ्त में वितरित करती
है।
यह सही है कि किसी संस्था
या मीडिया द्वारा अभियान चलाने से लोगों में जागरूकता आती तो है पर अक्सर यह देखा
गया है कि कुछ दिनों तक तो लोग उस बात को याद रखते हैं; लेकिन
जैसे ही अभियान की गति मंद पड़ती है या बंद कर दी जाती है ,तो
लोग उस बात को भूलने लगते हैं।
मुझे याद है पिछले कुछ
वर्ष पूर्व गौरैया को बचाने के लिए कुछ संस्थाओं और समाचार पत्रों ने जागरूकता का
बिगुल फूँका था और उसका असर भी दिखाई देने लगा था। तब समाचार पत्रों में लोगों
द्वारा गौरैया के लिए अपने घरों के आस- पास घोंसले बनाकर रखने तथा पानी और दाना
रखे जाने के समाचार बड़ी संख्या में प्रकाशित हो रहे थे। कितना अच्छा होता समाचार
पत्र ऐसे अभियानों के लिए अपने अखबार का एक कोना प्रतिदिन सुरक्षित रख देते ताकि
पशु- पक्षियों के संरक्षण के लिए जागरूकता का यह अभियान प्रतिदिन चलता रहता... और
हमारे घर- आँगन में गौरैया सालों- साल यूँ ही फुदकती रहती।
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