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Jun 5, 2010

मेरे देश की धरती सोना उगले..


- शास्त्री जे सी फिलिप
भारत एक समृद्ध देश था जिस कारण लगभग 3000 साल तक यह विदेशी व्यापारियों को आकर्षित करता रहा। लोग इसे लगभग 1200 साल लूटते रहे जो इस बात को याद दिलाता है कि हिन्दुस्तान कितना समृद्ध था।
बचपन में बड़े उत्साह से हम लोग गाते थे 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती'। हमारे अध्यापक तब बताते थे कि किसी जमाने में हिन्दुस्तान को 'सोने की चिडिय़ा' कहा जाता था।
अंग्रेजों के राज (और सफल ब्रेनवाशिंग) के साथ- साथ राष्ट्र के प्रति हमारा गर्व ऐसा गायब हुआ कि भारत के प्राचीन वैभव और संपन्नता के बारे में कोई कहता है तो नाक भौं सिकोडऩे वाले भारतीयों की संख्या अधिक होती है। यहां तक कि भारत संपन्न नहीं था यह कहने के लिये आज लोग बहुत मेहनत कर रहे हैं।
लेकिन भारतीय सिक्कों एवं भारत में मिले विदेशी सिक्कों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कम से कम ईसा-पूर्व 2000 से लेकर ईसवी 1800 तक भारत आर्थिक रूप से बेहद संपन्न था। इन 3800 सालों में हिन्दुस्तान में सोने और चांदी के जितने सिक्के ढाले गये थे उनकी संख्या अनगिनत है। सन 600 से लेकर 1947 तक विदेशियों के हाथ लुटते पिटते रहने के बावजूद अभी भी लाखों बड़े- छोटे सोने के सिक्के भारत में बचे हुए हैं।
केरल जैसे छोटे प्रदेश में सोने के कम से कम दस- बीस बड़े प्रकार के सिक्के और सैकड़ों प्रकार के छोटे सिक्के (0.4 ग्राम के) और चांदी के बड़े- छोटे मिलाकर सैकड़ों प्रकार के सिक्के यहां के राजाओं ने चलाये थे। जिनकी आज की अनुमानित कीमत 100,000 रुपये या उससे ऊपर है। जब सिक्कों के एक विक्रेता को मेरी सिक्का शास्त्र अभिरुचि के बारे में पता चला तो मुझे घर बुला कर ले गये और केरल के राजाओं के कम से कम दस प्रकार के सोने के सिक्के मुझे दिखाये। यही नहीं मेरे अनुरोध पर सब को स्केन करके उनके चित्र मेरे उपयोग के लिये प्रदान भी किया।
भिखारी को कोई नहीं लूटता। संपन्न को ही लूटा जाता है। भारत को तो लगभग सन् 600 से 1947 तक लूटा गया था, उसके बावजूद यह संपदा (सोने के हजारों प्राचीन सिक्के मेरी जानकारी में है, लेकिन असली संख्या लाखों में है) बची है। अनुमान लगा लीजिये कि यह सोने की चिडिय़ा नहीं सोने का हाथी था।
भारत एक समृद्ध देश था जिस कारण लगभग 3000 साल तक यह विदेशी व्यापारियों को आकर्षित करता रहा। लोग इसे लगभग 1200 साल लूटते रहे जो इस बात को याद दिलाता है कि हिन्दुस्तान कितना समृद्ध था।
मेरे कई मित्रों ने समृद्धि की बात को स्वीकार तो किया लेकिन उसके साथ यह जोड़ दिया कि प्राचीन भारत में थोड़े से लोग समृद्ध थे, बाकी सब कंगाल थे। इस प्रस्ताव ने मुझे इतना झकझोर दिया कि पिछले दिनों सारा समय भारत के इतिहास को पढऩे में लगाया।
चूंकि मेरा मूल आलेख केरल के सोने के सिक्कों के बारे में था, अत: मैंने केरल के इतिहास को काफी विस्तार से पढ़ा।
प्राचीन भारत के इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से पढें़ तो एकदम यह स्पष्ट हो जाता है यह देश धनधान्य से, खेतीबाड़ी से, खनिज पदार्थों द्वारा एवं नदी-नालों की संपदा (सोना, बहुमूल्य पत्थर आदि) से भरपूर था। धनी- गरीब का अंतर जरूर था, लेकिन
गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी खेतीबाड़ी और पेशेवर काम इतना रहता था कि आज जो 'विषमता' दिखती है इतनी विषमता नहीं थी।
दरअसल देश के गरीब किसी जमाने में आज के समान गरीब नहीं थे। उनको खेतीबाड़ी, पेशेवर धंधों, एवं जंगल- खनिज- नदी नालों द्वारा रोजीरोटी की उपलब्धि इतनी अधिक थी कि गरीब व्यक्ति के पास परिवार को पालने- पोसने के लिये लगभग वह सब कुछ था जिसकी जरूरत थी। जनसंख्या कम थी, रोजीरोटी के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे।
आज जो आर्थिक विषमता दिखती है इसका मूल कारण विदेशी लुटेरों के द्वारा पिछले 300 सालों में की गई लूट एवं उसके कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियां हैं। भारत वाकई में सोने की चिडिय़ा थी, एवं आज जो आर्थिक विषमता हम देखते हैं यह एक प्राचीन नहीं बल्कि अर्वाचीन स्थिति है जिसका मूल कारण यूरोपियन साम्राज्यवादियों द्वारा की गई लूट-खसोट एवं सामाजिक परिवर्तन है।
यहां एक बात स्पष्ट करना जरूरी है जहां भी किसी चीज को अर्जित की सुविधा दी जाती है, वहां कहीं भी हर व्यक्ति एक समान अर्जित नहीं कर पाता। अत: एक ही अध्यापक के पढ़ाये विद्यार्थी जिस तरह पोजीशन से लेकर फेल होने तक के अंक अर्जित करते हैं, उसी तरह संपत्ति के अर्जित करने की स्थिति है। धनी एवं गरीब का अंतर हमेशा रहेगा। लेकिन यदि गरीब को अपने स्तर पर पर्याप्त रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा मिलती है तो उस समाज को बुरा नहीं कहा जा सकता है। आर्थिक स्थिति तब बुरी हो जाती है जब गरीब के पास अपनी मौलिक जरूरतों की आपूर्ति के लिये कोई रास्ता या साधन न बचे, जैसा आज करोड़ों भारतीयों के साथ हो रहा है।
प्राचीन भारत में धनी- गरीब का अंतर जरूर था, लेकिन गरीब से गरीब व्यक्ति के पास अपनी मूलभूत जरूरतों की आपूर्ति के लिये जमीन, खेती, जंगल से प्राप्त सामग्री आदि उपलब्ध थे। जलाऊ लकड़ी की कोई कमी नहीं थी। बाजार या हाट में वह अन्न, उपज, या जंगल-जमीन से प्राप्त की हुई चीजों के विनिमय के द्वारा अपनी जरूरत की चीजें प्राप्त कर लेता था।
दास या गुलाम शब्द एकदम से अभागों का चित्र हमारे समक्ष लाता है। लेकिन यह न भूलें कि शोषित एवं बंधुआ दास या गुलाम एक अर्वाचीन प्रक्रिया है, प्राचीन नहीं। प्राचीन समाज में दास और गुलाम को पर्याप्त सुरक्षा मिल जाती थी। (अपवादों को छोड़ें क्योंकि अपवाद हमेशा संख्या में न्यून होते हैं)।
प्राचीन केरल का उदाहरण लें तो यहां उपजाऊ भूमि इतनी प्रचुर थी कि हर किसी को अपने जरूरत की पूर्ति का अवसर मिल जाता था। इतना ही नहीं, काली मिर्च, इलायची, अदरख, दालचीनी आदि की खेती आम थी और इनको विदेशी व्यापारी हाथों हाथ खरीद ले जाते थे। काली मिर्च की खेती इतनी आसान है कि कोई भी व्यक्ति अपने घर जमीन में बीस- तीस बेल लगा सकता है, और आजीवन फल लेता रह सकता है। तब इससे इतनी आय होती थी कि कालीमिर्च को उस जमाने में काला-सोना कहा जाता था।
केरल में अरब, पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश लोग सिर्फ इस काले-सोने के लिये आये थे और आपस में मारा- मारी करते थे। केरल की जनता के लिये जबकि काली मिर्च एक आम चीज है, एवं खेती बहुत आसान है। कुल मिला कर कहा जाये तो हिन्दुस्तान वाकई में सोने की चिडिय़ा थी जिसे लूटने के लिये दुनियां भर के लोग लालायित रहते थे।

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