अमरीका में वैज्ञानिकों के एक दल ने प्रयोगशाला में कृत्रिम जिंदगी पैदा करके दुनिया के सामने एक हतप्रभ कर देने वाला करिश्मा पेश कर दिया है। ये वैज्ञानिक न सिर्फ जेनिटिक इंजीनियरिंग के जरिए जीवन की कृत्रिम नकल तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वह ईश्वर की भूमिका अदा करने की ओर भी बढ़ रहे हैं।
सिंथेटिक जीनोम से नियंत्रित होने वाली पहली बैक्टीरिया कोशिका तैयार करने वाले मैरीलैण्ड और कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों की टीम में तीन वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं। चौबीस सदस्यीय इस शोध दल के मुखिया डॉ. क्रेग वेन्टर हैं। भारतीय मूल के तीन वैज्ञानिक संजय वाशी, राधाकृष्ण कुमार और प्रशान्त पी. कुमार भी इस टीम के सदस्य हैं। ये वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने इसके पहले मानव जीनों को श्रृंखलाबद्ध करके उन्हें डिकोड किया था।
शोध पर करीब 30 मिलियन डॉलर की लागत आई है और इस कृत्रिम कोशिका को बनाने में 15 साल लगे हैं। पूरी तरह सिंथेटिक क्रोमोसोम से तैयार की गई यह कोशिका चिकित्सा विज्ञान जगत में अद्भूत खोज साबित होगी।
वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया कोशिका के जीनोम का निर्माण किया है। इसके लिए उन्होंने 'माइक्रोप्लाज्मा माइकॉइड्स' नामक बैक्टीरिया के डीएनए को 'पढ़ा'। यह वह बैक्टीरिया है जो बकरियों को इन्फेक्ट करता है। वैज्ञानिकों ने डीएनए के एक-एक हिस्से को पुनर्निर्मित किया और फिर इन टुकड़ों को एक साथ जोड़कर उन्हें एक-दूसरी प्रजाति के बैक्टीरिया में प्रविष्ट कर दिया। वहां जाकर इस डीएनए में जीवन का अनुकरण शुरू हो गया, जिसकी बदौलत बैक्टीरिया ने मल्टीप्लाई करना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में उस बैक्टीरिया की कई पीढिय़ां तैयार हो गईं, जो पूरी तरह कृत्रिम थीं। बैक्टीरिया में हस्तांतरित डीएनए में करीब 830 जीन थे, जबकि मनुष्य के जेनेटिक ब्लूप्रिंट में करीब 20000 जीन होते हैं।
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में उत्पन्न जीवन का नाम 'सिंथिया' रखा है। डॉ. वेंटर ने इस प्रक्रिया की तुलना कंप्यूटर की बूटिंग से की है। अब चूंकि डॉ. वेंटर ने अपने कॉन्सेप्ट को व्यावहारिक तौर पर सिद्ध कर दिया है, इसलिए वह जीवन के बेसिक ब्लूप्रिंट में रद्दोबदल करके अपनी मर्जी से किसी भी प्रकार के जीव रूप का निर्माण कर सकते हैं। जैसे कि घोड़े जैसी ताकत वाला मनुष्य या मनुष्य की तरह सोचने वाला चूहा या बीस पैरों वाला हाथी। डॉ. वेंटर का मानना है कि सिंथिया का निर्माण वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे जीवन और उसकी कार्यपद्धति के बारे में हमारी सारी धारणाएं बदल गई हैं।
डॉ. वेंटर के अनुसार इससे नई औद्योगिक क्रांति आ सकती है अगर हम इन कोशिकाओं का इस्तेमाल कामकाज में कर पाएं तो उद्योगों में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाईआक्साईड भी कम हो सकती है। यह मानव और प्रकृति के बीच नया रिश्ता बनाने में महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी। इससे कैंसर सहित कई रोगों की दवाएं, ईधन बनाने और ग्रीन हाउस गैसों को रोकने में मदद मिलेगी। जैव ईधन तैयार करने में मददगार और पर्यावरण को दूषित करने वाले कारकों को समाप्त करने में सक्षम बैक्टीरिया भी बनाए जा सकते हैं।
प्रयोगशाला में विकसित इन शुक्राणुओं का गर्भ धारण कराने में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। क्योंकि ब्रिटेन में इसकी अनुमति नहीं है और इस पर कानूनन पाबंदी है। इन शुक्राणुओं का आगे कोई उपयोग हो सके, इसके लिए जरूरी है कि पहले उन भ्रूणों की गारंटी दी जाए जिनसे स्टेम कोशिकाएं लेकर शुक्राणु बनाए जाते हों। वैज्ञानिकों का कहना था कि ये चिंता करना कि हमारा मकसद इन शुक्राणुओं के इस्तेमाल से बच्चे पैदा करने का है, गलत है। हम जो कर रहे हैं वह पुरूषों में बंध्यता की समस्या को समझने की, शुक्राणुओं के विकास को समझने की कोशिश है।
लेकिन इस प्रयोग पर नैतिकता का सवाल उठाने वाले लोगों का कहना है कि इससे वैज्ञानिकों को 'भगवान की भूमिका' अदा करने की छूट मिल जाएगी। इस रिसर्च टेक्नॉलाजी के गलत हाथों में पडऩे का खतरा भी तो हो सकता है। मसलन नई तकनीक के जरिए जैविक हथियारों का निर्माण किया जा सकता है या जीवन के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ की जा सकती है। संभव है कोई ऐसे जीवों का निर्माण होने लगे जो जुओं की तरह दुश्मन देश के नागरिकों के सिरों में डाल दिए जाएं और वे अपने जहरीले उत्सर्जन से दिमाग को नष्ट कर दें। वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले जब कृत्रिम मानव क्लोन बनाया था, तो उस समय भी उसके दुष्परिणामों को लेकर चिंता जताई गई थी। सुरक्षा कारणों को देखते हुए अमरीकी प्रशासन भी इसमें पूरी दखल दे रहा है। ओबामा ने राष्ट्रपति आयोग को इस विषय पर पूरी जानकारी रखने के निर्देश भी दिए हैं, ताकि इसके गलत इस्तेमाल को रोका जा सके।
शोध पर करीब 30 मिलियन डॉलर की लागत आई है और इस कृत्रिम कोशिका को बनाने में 15 साल लगे हैं। पूरी तरह सिंथेटिक क्रोमोसोम से तैयार की गई यह कोशिका चिकित्सा विज्ञान जगत में अद्भूत खोज साबित होगी।
वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया कोशिका के जीनोम का निर्माण किया है। इसके लिए उन्होंने 'माइक्रोप्लाज्मा माइकॉइड्स' नामक बैक्टीरिया के डीएनए को 'पढ़ा'। यह वह बैक्टीरिया है जो बकरियों को इन्फेक्ट करता है। वैज्ञानिकों ने डीएनए के एक-एक हिस्से को पुनर्निर्मित किया और फिर इन टुकड़ों को एक साथ जोड़कर उन्हें एक-दूसरी प्रजाति के बैक्टीरिया में प्रविष्ट कर दिया। वहां जाकर इस डीएनए में जीवन का अनुकरण शुरू हो गया, जिसकी बदौलत बैक्टीरिया ने मल्टीप्लाई करना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में उस बैक्टीरिया की कई पीढिय़ां तैयार हो गईं, जो पूरी तरह कृत्रिम थीं। बैक्टीरिया में हस्तांतरित डीएनए में करीब 830 जीन थे, जबकि मनुष्य के जेनेटिक ब्लूप्रिंट में करीब 20000 जीन होते हैं।
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में उत्पन्न जीवन का नाम 'सिंथिया' रखा है। डॉ. वेंटर ने इस प्रक्रिया की तुलना कंप्यूटर की बूटिंग से की है। अब चूंकि डॉ. वेंटर ने अपने कॉन्सेप्ट को व्यावहारिक तौर पर सिद्ध कर दिया है, इसलिए वह जीवन के बेसिक ब्लूप्रिंट में रद्दोबदल करके अपनी मर्जी से किसी भी प्रकार के जीव रूप का निर्माण कर सकते हैं। जैसे कि घोड़े जैसी ताकत वाला मनुष्य या मनुष्य की तरह सोचने वाला चूहा या बीस पैरों वाला हाथी। डॉ. वेंटर का मानना है कि सिंथिया का निर्माण वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे जीवन और उसकी कार्यपद्धति के बारे में हमारी सारी धारणाएं बदल गई हैं।
डॉ. वेंटर के अनुसार इससे नई औद्योगिक क्रांति आ सकती है अगर हम इन कोशिकाओं का इस्तेमाल कामकाज में कर पाएं तो उद्योगों में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाईआक्साईड भी कम हो सकती है। यह मानव और प्रकृति के बीच नया रिश्ता बनाने में महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी। इससे कैंसर सहित कई रोगों की दवाएं, ईधन बनाने और ग्रीन हाउस गैसों को रोकने में मदद मिलेगी। जैव ईधन तैयार करने में मददगार और पर्यावरण को दूषित करने वाले कारकों को समाप्त करने में सक्षम बैक्टीरिया भी बनाए जा सकते हैं।
प्रयोगशाला में विकसित इन शुक्राणुओं का गर्भ धारण कराने में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। क्योंकि ब्रिटेन में इसकी अनुमति नहीं है और इस पर कानूनन पाबंदी है। इन शुक्राणुओं का आगे कोई उपयोग हो सके, इसके लिए जरूरी है कि पहले उन भ्रूणों की गारंटी दी जाए जिनसे स्टेम कोशिकाएं लेकर शुक्राणु बनाए जाते हों। वैज्ञानिकों का कहना था कि ये चिंता करना कि हमारा मकसद इन शुक्राणुओं के इस्तेमाल से बच्चे पैदा करने का है, गलत है। हम जो कर रहे हैं वह पुरूषों में बंध्यता की समस्या को समझने की, शुक्राणुओं के विकास को समझने की कोशिश है।
लेकिन इस प्रयोग पर नैतिकता का सवाल उठाने वाले लोगों का कहना है कि इससे वैज्ञानिकों को 'भगवान की भूमिका' अदा करने की छूट मिल जाएगी। इस रिसर्च टेक्नॉलाजी के गलत हाथों में पडऩे का खतरा भी तो हो सकता है। मसलन नई तकनीक के जरिए जैविक हथियारों का निर्माण किया जा सकता है या जीवन के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ की जा सकती है। संभव है कोई ऐसे जीवों का निर्माण होने लगे जो जुओं की तरह दुश्मन देश के नागरिकों के सिरों में डाल दिए जाएं और वे अपने जहरीले उत्सर्जन से दिमाग को नष्ट कर दें। वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले जब कृत्रिम मानव क्लोन बनाया था, तो उस समय भी उसके दुष्परिणामों को लेकर चिंता जताई गई थी। सुरक्षा कारणों को देखते हुए अमरीकी प्रशासन भी इसमें पूरी दखल दे रहा है। ओबामा ने राष्ट्रपति आयोग को इस विषय पर पूरी जानकारी रखने के निर्देश भी दिए हैं, ताकि इसके गलत इस्तेमाल को रोका जा सके।
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