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- अब्दुल कलाम
मैंने जब भी तुमसे
कुछ कहना चाहा
तुम हमेशा
मुंह फेरकर चल दिए
मैं दूर तक
तुम्हें जाता देखता रहा
कुछ कहता भी तो कैसे
दरमियान लम्बे फासले थे।
तुम आसमान छूते
महलों में थी
और मैं बरसात में
टपकते हुए छत के नीचे
कोई महफूज कोना
तलाश रहा था।
आज जब
हाथ को हाथ
नहीं सूझ रहा है
दुश्वारियां बढ़ती जा रही हैं
ऐसे में तुम्हारी वापसी
जैसे आखिरी बार
बंद होती पलकों पर
कोई धीमे से
हाथ रख दे
और नींद आ जाए।
चुपके चुपके
लम्हा लम्हा
जख्म रिसा
बनकर नासूर
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पत्थर दिल को
दिल देकर
यह किया कुसूर
पलछिन पलछिन
तुम याद आए
बनकर दर्द
तपी हवाएं
जो थी अब तक
शीतल सर्द
मौसम मौसम
वो बदले हैं
दिल टूटा
तुमने क्या मुंह फेरा
मुझसे जग रूठा
चुपके चुपके
कोई आया
मन के द्वारे
रोशन हो गए अंतर्मन
जो थे अंधियारे।
1 comment:
दोनों कविताएं बहुत अच्छी लगीं।
-देवमणि पाण्डेय
devmanipandey.blogspot.com/
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