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Dec 3, 2025

कविताः टूट रही है डोर

 - कृष्णा वर्मा

कई बार बाँधने का प्रयास किया

मन के आवारा पैरों को

लेकिन दिल है कि टिकने ही नहीं देता

सतत भटकाता है दिशा-दिशा

मासूम मन बड़ी ताबेदारी से सिर झुकाकर

मान लेता है उसकी बात

दिमाग परेशान रहता है सोच-सोचकर

क्यों मचा है हर ओर पैसे-पैसे का शोर

रिश्ते-नातों रस्मों-रिवाज़ों की

क्यों टूट रही है डोर

संबंधों को नाम तो दे देते हैं

पर निभाने की रस्म क्यों हो गई है ग़ायब

प्रेम प्यार नफ़रत की दुनिया में

नफ़रत हो गई है ठेकेदार और

दूरियाँ हो गई हैं वफ़ादार

प्यार जताते हैं पर दूरियाँ मिटाने से

करते हैं परहेज़  

मिट्टी कि दुनिया में जब

सबका अंत है मिट्टी

तो फिर क्यों औकात की

नुमाइश करने से बाज़ नहीं आते लोग।  

2 comments:

  1. Anonymous04 December

    जीवन के यथार्थ का चित्रण करती बहुत सुंदर कविता। हार्दिक बधाई कृष्णा वर्मा जी।सुदर्शन रत्नाकर

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  2. सच्चाई से सामना कराती अभिव्यक्ति !

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