- सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
भारतीय विज्ञापन जगत के दिग्गज ऐड गुरु या कहे विज्ञापन जगत के पितृपुरुष पीयूष पांडे के निधन का समाचार उस अटूट फेविकोल के जोड़ के टूटने का अहसास करा रहा है, जिसे उन्होंने अपनी रचनात्मक लेखन शैली से चार दशकों तक रचा और हम आम जनमानस की जुबान पर लाकर, स्मृति पटल पर सदैव के लिए सँजो दिया। पीयूष पांडे का इस जगत् से जाना केवल एक विज्ञापन हस्ती का जाना नहीं, बल्कि उस युग का अवसान है। वे वह शख्सियत थे, जिन्होंने पहली बार विज्ञापनों में भारत की मिट्टी की खुशबू, यहाँ की मिठास और आम आदमी की भावनाओं को मुखर किया। उन्होंने विज्ञापन के गोरे और फिरंगी चेहरे को बदलकर उसे ठेठ देसी और सच्चा बनाया। उनका एक साक्षात्कार में कहना था- विज्ञापन वही बोले जो भारत बोले और वे आजीवन इसी मनोविज्ञान के साथ आगे बढ़े। उनके विज्ञापन भारत दर्शन की झलक थे।
पीयूष पांडे का जन्म 1955 में जयपुर में हुआ था। उनकी शिक्षा सेंट ज़ेवियर्स स्कूल, जयपुर से हुई और वे दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। विज्ञापन- जगत् में आने से पहले उन्होंने कुछ समय तक क्रिकेट खेला और चाय, चखने का काम भी किया। उन्होंने ऐड गुरु के रूप में अपने करियर का प्रारंभ 1982 में विज्ञापन कंपनी ओगिल्वी से किया। उन्होंने हिंदी में विज्ञापन लिखकर और आम आदमी के जीवन से जुड़ी कहानियों के इस्तेमाल से भारतीय विज्ञापन उद्योग को बदल दिया।
उनके लिखे विज्ञापन पंक्तियों में राजस्थान के लोकगीतों की आत्मा, महाराष्ट्र के हास्य रस की भरमार, उत्तरभारत की सादगी और मध्यप्रदेश का हृदय तो पूरे देश की सुंदरता की इंद्रधनुषी आभा थी। वे सिर्फ उत्पाद नहीं बेचते थे; बल्कि मन मस्तिष्क में बस जाने वाली कहानी बेचते थे। वे सिर्फ टैगलाइन नहीं लिखते थे; अपितु राष्ट्रीय भावना का निर्माण करते थे।
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उनकी रचनात्मकता सरकारी अभियानों से लेकर निजी ब्रांडों तक, हर जगह अपनी छाप छोड़ गई। चल मेरी लूना... ने एक घर-घर दो पहिया वाहन को पाना सपना बना दिया तो दो बूँद ज़िंदगी की... जैसे सिर्फ चार शब्दों ने देश को पोलियो के खिलाफ एकजुट कर दिया और यह स्लोगन राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान बन गया। वहीं, मिले सुर मेरा तुम्हारा...को उन्होंने एक विज्ञापन गीत से उठाकर राष्ट्रीय एकता का अप्रतिम प्रतीक बनवा दिया। ब्रैंडिंग की दुनिया में उन्होंने क्रांति ला दी थी। फेविकोल जैसे साधारण ग्लू को उन्होंने एक दार्शनिक ऊँचाई दी। आप और हम कभी नहीं भूल सकते, जब ट्रक पर बैठे लोग टूटी सड़क पर भी नहीं हिलते, तो विज्ञापन पंक्ति गूँजती है- फेविकोल का जोड़ है, टूटेगा नहीं... यह केवल चिपकने वाला पदार्थ नहीं, बल्कि रिश्तों, विश्वास और दृढ़ता का प्रतीक बन गया।
उन्होंने चॉकलेट मतलब कैडबरी को बनवा दिया। उन्होंने चॉकलेट के लिए लिखा- कुछ खास है जिंदगी में! यह टैगलाइन चॉकलेट की मिठास से आगे बढ़कर हर छोटे जश्न, हर अप्रत्याशित खुशी का गीत बन गई। क्रिकेट के मैदान पर पुरुष-प्रधान दर्शक दीर्घा में एक महिला का छक्का लगने पर खुशी से थिरकना, भारतीय समाज की बदलती तस्वीर को दिखाने वाला एक मास्टरस्ट्रोक था।
सिर्फ वाणिज्यिक जगत् ही नहीं, उन्होंने देश की राजनीतिक चेतना को भी प्रभावित किया। 2014 के चुनावी समर में उनकी लिखी टैगलाइन- ‘अबकी बार मोदी सरकार’ एक राष्ट्रीय नारा बन गई, जो सिर्फ 50 दिनों में गढ़ी गई थी।
पीयूष पांडे ने कभी खुद को क्रिकेट के मैदान से दूर नहीं किया। वे रणजी ट्रॉफी में राजस्थान का प्रतिनिधित्व कर चुके थे। शायद यही कारण था कि उनके विज्ञापनों में एक खिलाड़ी का सा जुनून, सहजता और जीत की भावना हमेशा मौजूद रहते थे। हमारा बजाज... की टैगलाइन मध्यवर्गीय परिवार की पहचान और उनकी महत्त्वाकांक्षाओं का प्रतिबिंब थी। उनके कुछ यादगार विज्ञापन कैंपेन में एशियन पेंट्स हर खुशी में रंग लाए और हच के पग वाले विज्ञापन भी शामिल हैं।
उनके इतनी विशिष्ट सोच के चलते ही उन्हें पद्मश्री (2016) और एल आई ए लीजेंड अवॉर्ड (2024) से सम्मानित किया गया था। पीयूष पांडे बहुत दूरदर्शी थे, जिन्होंने हमें सिखाया कि विज्ञापन का मतलब सिर्फ बिक्री नहीं, बल्कि लोगों के दिलों तक पहुँचना है। आज जब हम उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो उनकी बनाई हर टैगलाइन एक बार फिर हमारे कानों में गूँज रही है। वह गए नहीं हैं, वह फेविकोल का जोड़ है... की तरह हर भारतीय के दिल में हमेशा के लिए बस गए हैं।
उनका 70 वर्ष की आयु में हमारे बीच से जाना, विज्ञापन- जगत से अनुभव के मौन होने जैसा है। भारतीय विज्ञापन जगत का यह सूर्य अस्त हुआ है; लेकिन उनकी रचनात्मकता की रोशनी सदियों तक राह दिखाती रहेगी।
विनम्र श्रद्धासुमन अर्पित।


विज्ञापन जगत का सदा स्मरणीय बेजोड़ पात्र। पीयूष पांडे।उनकी उपलब्धियों को सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है। भावभीनी श्रद्धांजलि। सुदर्शन रत्नाकर
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