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Nov 2, 2025

कविताः सच सच बताना युयुत्सु

 -  निर्देश निधि

मैं राधा

अपने अलौकिक प्रेम को

तथाकथित धर्मयुद्धों के

लौकिक दावानलों में झुलसते

परित्यक्त होते देख,

खड़ी ठगी-सी आज

युद्ध के अंतिम दिन

कुरुक्षेत्र की धरा पर

तुम एकमात्र शेष कौरव से

पूछती हूँ युयुत्सु

चले थे थाम कर तथाकथित धर्मध्वजा

मार डाले अपने कितने ही सहोदर

धर्म के नाम पर तुमने

महल के अतीत से आतीं 

उनकी जीवन- किलकारियाँ

और नृशंस कुरुक्षेत्र के 

वर्तमान से गूँजती चीत्कारें उनकी

निर्जन महल के गलियारों में होते गुत्थमगुत्था

तुम्हारे युद्धरत, पर भयभीत कान

सुनते तो ज़रूर होंगे युयुत्सु

मैं राधा,

अपने परित्यक्त प्रेम को सीने में दबाए

आज युद्ध के अंतिम दिन

तुमसे पूछती हूँ-

कितना पछताए तुम युयुत्सु?

क्या उतना?

जितना मैं पछताई उसी छलिये से प्रेम कर

जिसने तुम्हें भी छला,

क्या करोगे अब विजेता बनकर

विनाश के गड्ढे में पड़े तुम

जीर्ण-शीर्ण हुई, कांतिहीन धर्मध्वज थामकर?

तुमसे कितना रोष होगा आज

गांधारी धृतराष्ट्र को,

जान सकते हो युयुत्सु?

क्या आज सराह पाए होंगे वे

तुम्हारे इस विजेता रूप को

खड़े होकर निर्वंशता के कूप की ढाँग पर

उनकी अंधी देह, अंधी सोच को

जिस धर्म के लिए त्यागा था तुमने

क्या वह किंचित् भी उपस्थित था

सारथी कृष्ण के पीछे खड़ी सेना में

देखा तो ज़रूर होगा तुमने भी

जिसके लिए अपनों ही से लड़े थे तुम

उस धर्म को सुबकते हुए कृष्ण की काँख में

फिर सामने देखकर ख़ुद रणछोड़ को

क्यों छोड़ नहीं सके थे तुम रण

सहोदर दुर्योधन के लिए?

या मुग्ध हो गए थे तुम भी

कृष्ण के लच्छेदार शब्दों पर

ठीक अर्जुन की तरह?

या बहक गए थे मेरी ही तरह

और सुन नहीं सके थे

कृष्ण की काँख में पड़े 

विवश धर्म की सुबकियाँ?

आज अभिमानी भीम द्वारा सताए जाने पर

कितना पछताए तुम

सच सच बताना युयुत्सु

इस ओर या उस छोर अंत तो मृत्यु ही होती न

सोचा तो होगा तुमने भी आज

मैं राधा, अपने प्रेम को

इन्हीं तथाकथित धर्म युद्धों की भेंट चढ़ते देख

ठगी-सी खड़ी, तुमसे पूछती हूँ-

क्या तुम भी ठगे नहीं गए मेरी तरह?

सच सच बताना युयुत्सु।

(युयुत्सु एक मात्र कौरव थे जो धर्म का साथ देकर पांडवों की ओर से लड़े और वही एकमात्र कौरव जीवित बचे। अपने सम्पूर्ण कुल को खो देने की पीड़ा सही। राधा ने भी धर्मयुद्धों के नाम पर अपने प्रेमी कृष्ण से अलग होने की पीड़ा सही।)


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