- परमजीत कौर 'रीत'
1.सुख के पल उत्सव लगें, दुख में बँधती आस ।
अपनों के जब साथ में, बीतें बारह मास ।।
बीतें बारह मास, रहे सबका मन खिलता ।
नहीं सताती धूप, शीत का जोर न चलता ।
कलरव करती साँझ, निशा की गोदी से कल ।
जन्मे उजली भोर, सुहाने दे सुख के पल ।।
2.
आशाओं के ओज से, डरे निराशा यक्ष ।
इक नन्ही- सी किरण भी,उजला करती कक्ष ।।
उजला करती कक्ष, तिमिर में राह दिखाती ।
बढ़े किरण की ओर, रोशनी बढ़ती जाती ।
रखते भरकर नीड़, नहीं अभिलाषाओं के ।
पंछी के दिनमान, सहारे आशाओं के ।।
3.
तुलसी आँगन बीच तब, शीशम भी थे द्वार ।
वट-वृक्षों की छाँव में, पलते थे संस्कार ।।
पलते थे संस्कार, समय था वह कुछ ऐसा ।
मन थे बहुत विशाल, भले था थोड़ा पैसा ।
साँझे थे दुख-दर्द, नजर थी रहती हुलसी ।
नहीं रहा वह काल, कहाँ अब आँगन, तुलसी ।।
4.
दफ्तर घर-परिवार सँग, सपनों का संसार ।
धार रही हैं नारियाँ, चतुर्भुजी अवतार ।।
चतुर्भुजी अवतार, घूमती चकरी ऐसे ।
यहाँ-वहाँ हर छोर, अछूता रहे न जैसे ।
कहती ‘रीत’ यथार्थ,कहीं नौकर या अफ़सर ।
खूब निभाये ‘रोल’, मिले जो भी, घर-दफ्तर ।।
5.
घर-बाहर की दौड़ में, छूटे एक न काम ।
ढूँढ रही है मानवी, जीवन के आयाम ।।
जीवन के आयाम, कभी तो पा जायेगी ।
उसका क्या अस्तित्व, कभी दिखला पायेगी ।
कहती ‘रीत’ यथार्थ, खुशी के खोज जवाहर ।
चलती रहती दौड़, मानवी की घर-बाहर ।।
6.
कितना भी कुचलो उसे, फैलेगी वो खूब ।
अपने तप-गुण-कर्म से, वन्दनीय है दूब ।।
वन्दनीय है दूब, ’ग्रहण’ में शुचिता लाती ।
पूजन वाली थाल, पूर्णता इससे पाती ।
दूर्वादल से लाभ, मधुर-फल पाने जितना ।
धैर्य, नम्रता ‘रीत’, सिखाती दूर्वा कितना ।।

No comments:
Post a Comment