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Nov 2, 2025

कुण्डलिया छंदः कहाँ अब आँगन तुलसी

 -  परमजीत कौर 'रीत'

1.

सुख के पल उत्सव लगें, दुख में बँधती आस ।

अपनों के जब साथ में, बीतें बारह मास ।।

बीतें बारह मास, रहे सबका मन खिलता ।

नहीं सताती धूप, शीत का जोर न चलता ।

कलरव करती साँझ, निशा की गोदी से कल ।

जन्मे उजली भोर, सुहाने दे सुख के पल ।।

2.

आशाओं के ओज से, डरे निराशा यक्ष ।

इक नन्ही- सी किरण भी,उजला करती कक्ष ।।

उजला करती कक्ष, तिमिर में राह दिखाती ।

बढ़े किरण की ओर, रोशनी बढ़ती जाती ।

रखते भरकर नीड़, नहीं अभिलाषाओं के ।

पंछी के दिनमान, सहारे आशाओं के ।।

3.

तुलसी आँगन बीच तब, शीशम भी थे द्वार ।

वट-वृक्षों की छाँव में, पलते थे संस्कार ।।

पलते थे संस्कार, समय था वह कुछ ऐसा ।

मन थे बहुत विशाल, भले था थोड़ा पैसा ।

साँझे थे दुख-दर्द, नजर थी रहती हुलसी ।

नहीं रहा वह काल, कहाँ अब आँगन, तुलसी ।।

4.

दफ्तर घर-परिवार सँग, सपनों का संसार ।

धार रही हैं नारियाँ, चतुर्भुजी अवतार ।।

चतुर्भुजी अवतार, घूमती चकरी ऐसे ।

यहाँ-वहाँ हर छोर, अछूता रहे न जैसे ।

कहती ‘रीत’ यथार्थ,कहीं नौकर या अफ़सर ।

खूब निभाये ‘रोल’, मिले जो भी, घर-दफ्तर ।।

5.

घर-बाहर की दौड़ में, छूटे एक न काम ।

ढूँढ रही है मानवी, जीवन के आयाम ।।

जीवन के आयाम, कभी तो पा जायेगी ।

उसका क्या अस्तित्व, कभी दिखला पायेगी ।

कहती ‘रीत’ यथार्थ, खुशी के खोज जवाहर ।

चलती रहती दौड़, मानवी की घर-बाहर ।।

6.

कितना भी कुचलो उसे, फैलेगी वो खूब ।

अपने तप-गुण-कर्म से, वन्दनीय है दूब ।।

वन्दनीय है दूब, ’ग्रहण’ में शुचिता लाती ।

पूजन वाली थाल, पूर्णता इससे पाती ।

दूर्वादल से लाभ, मधुर-फल पाने जितना ।

धैर्य, नम्रता ‘रीत’, सिखाती दूर्वा कितना ।।



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