आधुनिक जीवन से रूठ गई हैं फुर्सतें
उभर आती थीं अक्सर
खाली कागजों पर खेल- सी
लुओं से भरी दुपहरियों में पड़ी रहती थीं
खस- खस की टाटी वाली खिड़कियों के पास
लटकती हरी - भरी बेल- सी
सर्द रातों में चारों तरफ अलाव के
सुनती थीं किस्से, कहती थीं कहानियाँ,
कँपकँपाती, ठिठुरती फुर्सतें
गाँव की चौपाल पर गर्मियों की साँझ ढले
हुक्कों की गुड़ - गुड़ के
सुर में सुर मिलाती पसर जातीं घंटों
बान वाली खाटों पर निठल्ली फुर्सतें
साँझ से भी पहले ही
शिव मंदिर की सीढ़ियों पर
सज जाती थीं सनातनी फुर्सतें
याद है बिरजू को
कम्मों की आँख में मुसकुराती फुर्सतें
गुड़िया और पप्पू- सी
कंधे चढ़ी, गोद पड़ी, खिलखिलाती फुर्सतें
गारे सनी, गलियों के गात पर
गिल्ली- डंडा खेलतीं अलमस्त फुर्सतें
परिवर्तन की पवन में जाती हैं सामने से
तीव्र गति वाली रेल सी
व्यस्तता के सोने बीच रहती बधेल- सी
फुर्सतों के साथ भी रहतीं फुर्सतें
अक्सर बेमेल- सी
गोधूलि में जीवन की बरसतीं बरसात बन
थकी – माँदी ज़िंदगी को बाढ़ बन डराती हैं
निर्दयी फुर्सते
वर्तमान भागमभाग भरी जिंदगी की विडंबना को रेखांकित करती प्रभावी कविता। निर्देश निधि जी को बधाई
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