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Feb 1, 2025

आलेखः राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी

 जन्म- 22 फरवरी 1906 - निर्वाण- 1 मार्च 1988 
 - आकांक्षा द्विवेदी

एक बालक ने एंग्लो संस्कृत विद्यालय फतेहपुर में 17 नवंबर 1921 को प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर स्कूल में बँटने  वाली मिठाई को यह कहते हुए लेने से इंकार कर दिया  कि इस गुलामी की मिठाई से अच्छा है, आजादी के चने चबाना। यह कहते हुए बालक स्कूल से निकल गया-‘‘माँ का आँचल लाल करो, हड़ताल करो हड़ताल करो।’’ यह बालक कोई और नही; बल्कि ओजस्वी व्यक्तित्व वाले, आजादी के दीवाने राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी थे।

राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी का जन्म फतेहपुर के बिंदकी नामक कस्बे के सिजौली नामक ग्राम में 22 फरवरी  1906 में हुआ। इनका जन्म अत्यंत धनाढ्य परिवार में हुआ था। शुरू की शिक्षा बिंदकी में ग्रहण करने के बाद  1921 में विद्यालय की पढ़ाई के लिए इनका दाखिला फतेहपुर के स्कूल में हुआ।

इसी स्कूल में इनकी भेंट प्रताप पत्रिका के सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी से हुई, जो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान स्कूल में आए थे। द्विवेदी जी उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। सत्याग्रह का भाषण देते वक्त  पुलिस ने इन्हीं के सामने गणेश शंकर विधार्थी को गिरफ्तार कर लिया। इसका उनके बाल ह्रदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा ।

आगे की उच्च शिक्षा के लिए द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय गए, जहाँ पर उन्हें  महामना मदन मोहन मालवीय के ओजस्वी व्यक्तित्व ने बड़ा प्रभावित किया। मालवीय जी  ने द्विवेदी जी को राष्ट्रीय स्तर पर कवि द्विवेदी जी के रूप में पहचान दी, जब उन्होंने द्विवेदी जी को लोकप्रिय बना देने वाली उनकी कविता ‘राणा प्रताप के प्रति’ सुनी ।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ही द्विवेदी जी ने  गांधी जी के नमक सत्याग्रह  जैसे राष्ट्रीय आंदोलन की गूँज सुनी । इससे द्विवेदी जी अत्यंत प्रभावित हुए और वह भी विश्वविद्यालय छोड़कर साथियों सहित इसमे भाग लेने के लिए चल पड़े और इस प्रकार द्विवेदी जी के अंतःकरण में निहित देशभक्ति और त्याग की तड़प साकार हो गई। सन् 1930 में जब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में गांधी जी आए, तो द्विवेदी जी ने गांधी जी को उनके चित्र के साथ ही ‘खादी गीत’ समर्पित किया। इसके साथ ही उन्होंने गांधी जी के छोने, और राष्ट्रकवि जैसी जाने कितनी उपाधियाँ अर्जित कर लीं ।

राष्ट्र जागरण हेतु साहित्य- सृजन को द्विवेदी जी अपना आजादी का हथियार बनाया व विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में  द्विवेदी जी की प्रखर राष्ट्रवादिता सर्वत्र फैल गई। सन् 1938 में द्विवेदी जी अधिकार नामक राष्ट्रीय दैनिक के सम्पादक बने और 1938 से लेकर 1945 तक वह उसके सम्पादक रहे।

द्विवेदी जी ने महात्मा गांधी  के 75 वर्ष  यानी हीरक जयंती पर ‘गांधी अभिनंदन ग्रन्थ’  के सम्पादन का गुरु भार वहन किया। इस योजना की स्वीकृति उन्होंने धनश्याम दास बिड़ला जी से व गांधी जी से ले ली । इस अभिनंदन ग्रन्थ में गांधी जी के प्रति रत्नाकर से लेकर बच्चन तक विभिन्न  हिंदी कवियों की कविताएँ  छपीं।  यह गांधी जी के  जीवन -दर्शन का स्थायी दस्तावेज बन गया। द्विवेदी जी 1956 में बालसखा के सम्पादक बने और उन्होंने 10 वर्ष तक बालसखा का सम्पादन  किया।

द्विवेदी जी को  जीवन में पाँच विभूतियों ने बहुत प्रभावित किया,  जिन्होंने समय- समय पर उनको अपना दिव्य संस्पर्श और संसर्ग प्रदान किया। जहाँ अध्यापक बलदेव प्रसाद ने संस्कारों से उनकी जड़ों को सींचा, तो वही महात्मा गांधी के विचारों ने इनके जीवन की दिशा ही बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने इनके ह्रदय में देशप्रेम की ज्वाला प्रज्वलित कर दी, वहीं महामना मालवीय जी ने इनके युवा जोशीले व्यक्तित्व को सब्र और संयम से आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा दी। उन्हीं के समझाने पर द्विवेदी जी ने बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए विदेश जाने से मना कर दिया औऱ अपनी जन्मभूमि में रहकर लेखनी के माध्यम से लोगो को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया । राय कृष्णदास ने इनमें एक बालकवि के व्यक्तित्व की झलक को पहचाना और इनको उस दिशा में भी कार्य करने की प्रेरणा दी।

देश मे गूँजता गांधी बाबा की जय का नारा इनके कर्ण कुहरो के मार्ग से अंतःकरण  तक अपनी  गूँज पहुँचा चुका था। गांधी जी के प्रभाव के चलते उन्होंने खादी धारण करने का संकल्प ले लिया। उनका कहना था- खादी पहनना,  मतलब गांधी का सिपाही बनना । द्विवेदी जी जिस वर्ष 1921 में फतेहपुर स्कूल में प्रविष्ट हुए, उसी वर्ष महात्मा गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। गांधी जी के आह्वान  की प्रेरणा का कुछ ऐसा रंग उन पर चढ़ा कि कोई दूसरा रंग उन पर चढ़ ही न पाया ।

सन 1930 में गांधी जी ने जब नमक सत्याग्रह आरम्भ किया, तो द्विवेदी जी ने अपने कुछ साथियों सहित उसका प्रतिरूप प्रस्तुत किया । वे अपने कुछ सहपाठियों को लेकर बिंदकी से 23 किलो मीटर दूर सिंधुपुर नामक स्थान के निकट निर्जन नैशांधकार में नमक बनाने गए, पर इस योजना की भनक अंग्रेजों को लग गई। द्विवेदी जी चोरी- छुपे अपने साथियों के साथ रात के सघन अँधेरे में निकल पड़े और जैसे ही कड़ाही में नमक उबाल खाने लगा, जोश के साथ उनकी आवाज गूँज उठी।  “जय हिंद” सुनते ही अंग्रेज सिपाहियों ने लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। द्विवेदी जी ने अहिंसा के साथ किसी को भी प्रति उत्तर देने से मना कर दिया व रात के अँधेरे में चुपके से सब निकल गए।

सन्1930 के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह  के अवसर पर उनका सामना पहली बार  दिव्य पुरुष गांधी जी से हुआ ।  उन्होंने आमंत्रित गांधी जी के स्वागत में खादी गीत प्रस्तुत किया, जिसे सुनते ही गांधी जी ने उन्हें गले लगा लिया और खादी गीत की धूम मच गई। एक कंपनी ने उसका ऑडियो बनाकर उसे पूरे भारत में फैला दिया। गांधी जी के चित्रों के साथ आर्ट पेपर में छपवाकर चर्चित बना दिया । द्विवेदी जी की कविताओं के पीछे गांधी की आत्मा एवं गौतम का जीवन दर्शन है। भैरवी भी उन्होंने गांधी जी को  ही समर्पित की है। इनकी कविताओं में गांधी जी का प्रभाव साफ दिखता है। गांधी जी के प्रभाव से इनका बलिदानी स्वर और अधिक प्रखर और अधिक मुखर हो गया ।

जहाँ एक तरफ गांधी जी ने सोहनलाल को राष्ट्रीय चेतना दी, वहीं गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने इनकी बलिदानी भावना को इनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना दिया । मदन मोहन मालवीय जी ने इनके अंदर की आग को सही समय पर सही दिशा दिखाकर नियंत्रित किया।

फतेहपुर में द्विवेदी जी के हृदय में जो बीज अंकुरित हुआ, वह काशी पहुँचते ही पल्लवित होने लगा । मालवीय जी से इनकी पहली मुलाकात सन 1927 में विश्वविद्यालय के वार्षिक आयोजन पर हुई। द्विवेदी जी ने मंच से जब ‘राणा प्रताप के प्रति’ कविता  पढ़ी, तो मालवीय जी ने कहा- मैं चाहता हूँ ऐसी कविता का प्रसार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक हो। जब प्रसिद्ध क्रांतिकारी यतीन्द्र दास जी जेल में भूख हड़ताल करके शहीद हुए, तो कवि का आक्रोश इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ-

आँसू बिखराते बीतेगी जलती जीवन घड़ियाँ,

बिना चढ़ाए शीश नही टूटेगी माँ की कड़ियाँ।

दुनिया में जीने का सबसे सुंदर मधुर तकाजा,

ऐ शहीद उठने दे अपना फूलों भरा जनाजा।।

मालवीय जी के प्रति इनकी कृतज्ञता इन शब्दों में अभिव्यक्त हुई हैं-

जो होता हैं, प्राण फूँकने वाली तुमको आग कहूँ

अभागिनी भारत जननी का तुमको सौभाग्य कहूँ।

गला दिया तुमने तन को रो- रोकर आँसू के पानी में,

मातृभूमि की व्यथा है सहते भरी जवानी में।।

द्विवेदी जी ने गांधी जी के 75 जन्मदिवस पर गांधी अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना बनाई ।  इस योजना का उद्देश्य प्रत्यक्ष  रूप से गांधी जी का सम्मान करना तथा अप्रत्यक्ष  रूप से राष्ट्रीय संघर्ष एवं चिंता के विषय मे जनजीवन की सर्वत्र सांस्कृतिक आधार प्रदान करने की भावना निहित थी

ये अभिनंदन ग्रन्थ 2 अक्टूबर 1944 को  प्रकाशित हुआ। द्विवेदी जी ने पुरस्कार स्वरूप मिली धनराशि  को गांधी जी को महादेव देसाई के स्मारक के लिए समर्पित किया ।

सन 1970 में द्विवेदी जी के साहित्यिक योगदान को देखते हुए इन्हें पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया । द्विवेदी जी के बाद से आज तक राष्ट्रकवि की उपाधि से किसी को विभूषित नही किया गया हैं । द्विवेदी जी की कविताओं ने लोगों के हृदय में देशभक्ति व देश प्रेम का संचार किया । द्विवेदी जी की वंदना की अमर पंक्तियों ने सबके हृदय में देशप्रेम को रोपित किया।

  (आकांक्षा द्विवेदी,  राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी की पौत्री हैं)

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