जब लौट जाते हो
तो आखिर में थोड़ा
बच जाते हो तुम मुझमें।
मेरी आँखों की चमक
और नरम हथेलियों के
गुलाबीपन में
या निहारती हुई
अपनी आँखें में
छोड़ जाते हो मुझमें
बहुत कुछ-
जो एकटक तकती रहती हैं
मेरे होठों के नीचे के तिल को।
कभी श्यामल, कभी श्वेत,
तो कभी लाल रंग तुम्हारा,
रह-रह कर रंग देता है
मेरी रूह को।
आँखें मूँदकर भी
तुम्हारी छुअन ही टटोलती है
मेरे अंतस को,
जाते-जाते आखिर में तुम
थोड़ा बच जाते हो मुझमें।
ये सिर्फ तुम हो
मैं तुम्हें शब्दों में
नहीं समेट सकती,
एक आकार ले चुके हो तुम
उस ब्रह्म का-
जिसे मैं हमेशा से पाना चाहती हूँ,
समझा नहीं पाती तुम्हें
कि-
अपने स्वप्न को छोड़कर
यथार्थ जीने का द्वंद्व
सच में कितना भयावह है।
नकार भी देती हूँ
सामाजिकता और सांसारिकता,
आस्तिक से नास्तिक की ओर
करवट लेती हूँ,
फिर भी-
तुम्हारा आकार नहीं ले पाती।
वृहद या सूक्ष्म होकर तुम
सागर बनते हो तो कभी सूर्य,
कभी बुद्ध तो कभी शिव।
और हाँ,
कभी-कभी तो
हवा बन चलते हो साथ और
सहला देते हो मेरे गाल,
ये सिर्फ तुम हो।
तब अनायास ही मैं
अंकुरित हो जाती हूँ
तुम में वृक्ष बन जाती हूँ,
मेरी जड़ें छितरी हैं
तुम्हारी धमनियों तक।
तुम्हारा होना ही प्रेम की
निष्कलंक परिभाषा है,
जिसे गढ़ा है तुमने
और जिसे जीती हूँ
मैं खुद में हर पल।
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