नीलू ने जब देखा कि उसके कहने का मुझ पर कोई असर
नहीं हो रहा है तो रविवार की एक सुबह उसने स्वयं ही मुझे डॉक्टर के सामने जा
उपस्थित किया और सारी परेशानियाँ उसे बता दीं।
"डायबिटिक हैं क्या?"
डॉक्टर ने मुझसे पूछा।
"मालूम नहीं।" मैंने कहा।
"अभी कुछ खाकर आए हैं?"
उसने पुन: पूछा।
"जी, बैड-टी लेने
की आदत है मेरी।" मैंने बताया।
"कोई बात नहीं,"
अपने लेटर हेड पर कुछ लिखकर मुझे देते हुए उसने कहा, "ये कुछ टेस्ट कल सुबह आठ बजे बिना कुछ खाए-पिए क्लीनिक में आकर आपको कराने
होंगे। रिपोर्ट कल शाम को मुझे मिल जाएगी। परसों सुबह आकर मुझसे मिलिए।"
"अगले हफ्ते करा लूँ?"
मैंने डॉक्टर से पूछा।
"मैं तो यही कहूँगा कि रोग को पलने नहीं
देना चाहिए।" डॉक्टर ने कहा, "बाकी, जैसी आपकी मर्जी।"
"कल क्यों नहीं?"
यह सवाल डॉक्टर की बजाय वहीं बैठी नीलू ने मुझसे पूछा।
"सुबह आठ बजे ऑफिस के लिए नहीं निकला
तो..."
"तो ठप हो जायगा ऑफिस?"
उसने व्यंग्य भरे अंदाज़ में मुझसे पूछा।
"ऑफिस की नहीं, मुझे सुरेशजी की चिन्ता है।" मैंने कहा, "वह
बेचारे..."
"कल लेट जाओ ऑफिस को, छुट्टी करो आधे दिन की या पूरे दिन की- मैं नहीं जानती।" डॉक्टर के
सामने ही उसने निर्णायक फरमान जारी किया, "टेस्टिंग के
लिए कल सुबह यहाँ आना है, बस।"
मेरी एक वरिष्ठ महिला- कुलीग मिसेज उषा गुप्ता
कहा करती थीं- "शुक्लाजी, आयु- विशेष पर पहुँचकर
ज्यादातर मर्द अपनी पत्नी के सामने पुत्र- समान जीवन व्यतीत करने लगते हैं। ...इस
बात को आप यों भी कह सकते हैं कि समझदार पत्नियाँ आखिरकार पूरे घर की कमान अपने
हाथों में थाम लेती हैं; पति ही नहीं, सास-
ससुर की भी।"
नीलू की घुड़की का डॉक्टर के केबिन में ही
प्रतिवाद प्रस्तुत करना मुझे उचित नहीं लगा, सो वहाँ से
मैं बाहर निकल आया। क्या मुसीबत है!- क्लीनिक से बाहर निकलते हुए मैं नीलू को
सुनाते हुए बुदबुदाया; लेकिन उसने मेरी बुदबुदाहट को अनसुना
कर दिया। मुझे साथ लेकर वह घर आ गई।
सोमवार को अन्य दिनों की अपेक्षा वह जल्दी
बिस्तर से उठ बैठी। मैंने रुटीन के मुताबिक ही अपनी आँखें खोलीं। घड़ी पर नजर
डाली- सात बज रहे थे।
"चाय लाना जी..." मैंने रोजाना की तरह
ही नीलू को हाँक लगाई।
"चाय- पानी जो कुछ भी लेना हो, टेस्टिंग के लिए ब्लड एंड यूरिन देने के बाद क्लीनिक की कैन्टीन में बैठकर
लेना आज।" रसोईघर से उसकी आवाज आई तो मुझे डॉक्टर की सलाह पर नीलू द्वारा तय
किया गया अपना आज का कार्यक्रम याद हो आया। मुझे लगा कि ऑफिस की सारी फाइलें
भड़भड़ाकर मेरे सिर पर आ गिरी हैं और उन्होंने मेरा साँस लेना दूभर कर दिया है।
अन्दर ही अन्दर मैं थरथरा-सा उठा।
"यार...बिना किसी पूर्व-सूचना के इस तरह
लेट ऑफिस में पहुँचना या छुट्टी पर बैठ जाना नियम के अनुकूल नहीं है।" दबे
स्वर में ही सही, नीलू के निर्णय का प्रतिवाद
करता- सा मैं बोला, "ऐसा करता हूँ कि आज ऑफिस जाकर कल
के लिए..."
"क्या कर लेंगे..." मेरी बात पर वह
लगभग उग्र स्वर में वहीं से बोली, "एक दिन का वेतन काट
लेंगे? काट लेने दो।"
"यार, बात वेतन की
उतनी नहीं है जितनी कि सुरेशजी के अकेले रह जाने की है।" मैंने भावनात्मक
पासा फेंका।
"सुरेशजी क्यों अकेले रहेंगे?"
इस पासे को वापस मेरे मुँह पर मारते हुए उसने कहा, "आप क्लीनिक जा रहे हैं या बाघा बॉर्डर?"
"तुमसे बहस करने से कहीं अच्छा है कि आदमी
दीवार में सिर मार ले दो- चार बार।" मैं झुँझलाया।
अन्य दिनों के मुकाबले पेंतालीस मिनट पहले टिफिन
लगाकर सामने रख दिया था उसने। मैं एक अक्षर भी आगे न बोल सका। उसके दवाब के चलते
उसी दिन क्लीनिक जाकर मैंने जाँच के लिए खून और पेशाब के नमूने दिये और लगभग सही
समय पर ऑफिस जा पहुँचा। मैंने हालाँकि उसको यही उलाहना दिया कि उसकी नादानी की वजह
से मैं नाहक ही एक घंटा देर से ऑफिस पहुँचा।
तीसरे दिन उसने मुझे पुन: डॉक्टर के सामने जा
उपस्थित किया।
"आपको सेकेंड स्टेज डायबिटीज़ है मिस्टर
शुक्ला,"
मेज पर रखे बहुत- से लिफाफों में से मेरे नाम वाले लिफाफे से
निकालकर रिपोर्ट को पढ़ते हुए उसने कहा, "बट यू डोंट
वरी। भीतर किडनी, लंग्स वगैरा सब ठीक- ठाक हैं, कुछ बिगड़ा नहीं है अभी। यह...एक गोली और एक कैप्सूल सुबह नाश्ते से दस-
पन्द्रह मिनट पहले लेना शुरू कर दीजिए, बस।"
"इन दवाइयों के अलावा कुछ और...?"
नीलू ने पूछा।
"कुछ नहीं," उसने
कहा, "मीठी चीजें खाना एकदम बन्द। काउंटर से एक डाइट-
चार्ट ले लेना। खाने का शिड्यूल उसके अनुसार रखने की कोशिश कीजिए। शुगर को
कन्ट्रोल रखेंगे तो सब ठीक- ठाक चलता रहेगा, डोंट वरी। घूमने
जाते हैं?"
"जी नहीं।" नीलू ने बताया।
"जाने लगिए मिस्टर शुक्ला।" उसका जवाब
सुनकर डॉक्टर ने मुझसे कहा, "शुगर कन्ट्रोल रखने में
बड़ी मदद मिलती है।"
ये सब बातें उसने क्योंकि नीलू की उपस्थिति में कही थीं; इसलिए इनमें से किसी एक को भी उससे छिपा पाना मेरे लिए असम्भव था। तात्पर्य यह कि डॉक्टर की सलाह के अनुरूप उसी दिन से चीनी मेरी चाय से रफू-चक्कर हो गई। वस्तुत: तो चाय के नाम पर मुझे एक प्याला काढ़ा थमाया जाने लगा। दूसरे, उसने मुझे सुबह- शाम पार्क में भी भेजने का दवाब बनाना शुरू कर दिया।
"सच कह रहा हूँ... घूमने जाना मेरी प्रकृति
में कभी नहीं रहा नीलू।" मैं उसके सामने कई बार गिड़गिड़ाया लेकिन बेकार।
उसने मेरी एक न सुनी। एक रात सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाकर सो गई। सुबह अलार्म
बजते ही खुद उठ बैठी और मुझे झिंझोड़ती हुई बोली, "कपड़े
पहनकर तैयार हो जाइए, घूमने चलना है।"
"क्या मुसीबत है यार, तुम तो पीछे ही पड़ जाती हो।" चादर को कुछ- और जकड़ते हुए मैं उस पर
झुँझलाया। लेकिन उस झुँझलाहट का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने पुन: मुझे झिंझोड़
डाला। उनींदा-सा मैं तकिए को गोद में रखकर बिस्तर पर बैठ गया। आँखें खोलकर देखा तो
घूमने जाने के लिए एकदम तैयार उसे सामने खड़ी पाकर बोला, "तुम भी साथ चलोगी तो नाश्ता कौन बनाएगा बच्चों के साथ रखने के लिए?"
"वह सब कल सोचना,"
उसने कहा, "आज रविवार है।"
हे भगवान! - मैं मन ही मन बुदबुदाया- इस औरत से
बच पाना बेहद मुश्किल काम है। शौचादि से निपटकर मैंने कुल्ला किया और कुर्ता- पाजामा
पहनकर मरे कदमों से उसके पीछे-पीछे हो लिया। बिल्कुल वैसा नजारा था जैसा किसी
पिल्ले को जबरन घसीटने के समय बनता है। मेरे गले में पट्टा नहीं बँधा था, बस। पार्क तक जाना- आना और वहाँ घूमना कुल मिलाकर एक घंटे में निपट गया।
सात बजे यानी कि रोजाना ही अपना बिस्तर छोड़ने के समय से भी दस- पन्द्रह मिनट पहले
हम वापस घर में आ घुसे थे। अनिच्छापूर्वक घूमने जाने के कारण मेरा शरीर ऊपर से
नीचे तक टूटता- सा महसूस हो रहा था। सो मैं जूते उतारकर सीधा बेडरूम में गया और
बिस्तर पर पसर गया। सम्भवत: रविवार होने के कारण ही नीलू ने मुझे टोका या रोका
नहीं। लेट जाने के बाद आठ बजे मेरी आँख खुली।
"आज तो चल गया,"
कुछ देर बाद ही काढ़े का कप ड्रेसिंग टेबल पर टिकाते हुए नीलू बोली,
"कल ऑफिस भी जाना होगा इसलिए घूमकर आने के बाद का लेटना
बन्द।"
"धीरे-धीरे सारी सुख-सुविधाएँ बन्द हो जानी
हैं- ऐसा लगता है।" मैंने कहा।
"स्वास्थ्य को सही रखने के लिए जो- जो
चीजें बन्द करनी जरूरी लगेंगी, वह की ही जाएँगी।" वह
निर्णायक स्वर में बोली।
"ठीक है बाबा,"
काढ़े का कप टेबल से उठाते हुए मैंने मुस्कराते हुए गाया,
"सुख भरे दिन बीते रे भैया, अब दुख आयो
रे..."
"शाम का खाना खाने के बाद भी घूमने को चलना
है,
समझे!" मेरे दुख को कुछ-और बढ़ाती हुई वह बोली।
"चलना है माने?"
मैंने पूछा, "शाम को भी मेरे साथ चलोगी?"
"अकेले नहीं निकलोगे घूमने को तो चलना ही
पड़ेगा।" उसने कहा।
"मैं चला जाया करूँगा बाबा,"
मैंने अपने कंठ को चुटकी में भरकर उससे कहा, "कसम से।"
तात्पर्य यह कि घरेलू काम-काज और बच्चों को
सँभालने की विवशता के चलते उसे मेरी बात पर विश्वास करना पड़ा। नीलू के साथ घूमते
हुए पहले दिन ही मैंने इस विवशता से मुक्ति की जगह तय कर ली थी। पार्क के गेट से
दूर वाले छोर पर एक पेड़ के नीचे सीमेंट की बनी एक बेंच रखी थी। अगली सुबह मैंने
उसी पर जाकर बैठना और लेट जाना शुरू कर दिया। अपने मोबाइल में ठीक सात बजे सुबह का
'रिपीट अलार्म' सेट कर लिया था। वह बजता। मैं जागता;
और तरोताजा मूड में घर वापस आ जाता। रविवार और राजपत्रित अवकाश के
दिनों को छोड़कर, लम्बे समय तक मैं उस सुख को भोगता रहा। फिर
एकाएक ही सुख के उन क्षणों पर वज्रपात हो गया।
हुआ यों कि किन्हीं प्रशासनिक कारणों से बच्चों के स्कूल दो दिन के लिए बन्द घोषित कर दिए गए। तीसरे दिन रविवार था। सो उनके स्कूल की तीन दिन की छुट्टी हो गई। नीलू ने उन तीनों दिन बच्चों को पार्क में घुमा ले आने का कार्यक्रम बना लिया। उसकी दृष्टि से देखा जाए, तो यह सब मुझे बताने की कोई जरूरत उसने नहीं समझी। पहले दिन- मैं अपने रुटीन के अनुरूप घर से निकला और पार्क की बेंच पर जा पसरा। मेरे जाने के पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही- जैसाकि नीलू और बच्चों ने तीसरे यानी रविवार वाले दिन घर पहुँचने पर मुझे बताया- वे भी वहाँ जा पहुँचे। दौड़ लगाते हुए, पार्क में बच्चे पहले दाखिल हुए। घूमते-घामते, मुझे तलाशते, सबसे पहले उन्होंने ही मुझे बेंच पर सोया देखा। वे वापस मुड़े और इसकी शिकायत अपनी 'मॉम' से कर आए। उसने उनको समझाया कि वे अब उस बेंच की तरफ न जाएँ और 'डैड' को यानी कि मुझे इस बारे में जरा भी शक न होने दें कि हमें यह सब पता है। कमाल की बात यह रही कि दोनों बच्चे अपनी माँ के पक्के चमचे निकले। समर्पित माँएँ बिना प्रयास ही बच्चों को अपने अनुरूप ढाल लेती हैं- यह मैंने तभी जाना। उसके बताने से पहले उन बदमाशों ने तिलभर भी इस रहस्य से अपने परिचित होने की भनक मुझे नहीं लगने दी। मैं करीब सवा सात बजे घर पहुँचता था और वे तीनों मुझसे आधा घंटा पहले,
"अरे, तुम
लोग!" मैं अचकचाकर बच्चों से बोला, "स्कूल नहीं गए
आज?"
"नहीं, स्कूल की मॉम
ने आज छुट्टी करा दी।" चिंटू ने कहा।
मुझे लगा कि नीलू मुझे चेक करने की नीयत से ही
पार्क में आई होगी बच्चों के साथ। सो अपने लेटे होने की सफाई देते हुए बोला,
"घूमते-घूमते थोड़ा थक गया था इसलिए..."
"लो सुनो, हमने
कुछ पूछा भी है?" मेरे बोलते ही नीलू ने दोनों बच्चों
से कहा।
"आप तो गए डैड..." उसके यह कहते ही
दोनों बच्चे एक साथ बोले, "मॉम इज़ द डॉन इन सच
सरकमस्टान्सेज़, यू नो!"
"अरे यार..." मैं गिड़गिड़ाते स्वर
में बोला,
"मैं कभी झूठ बोलता हूँ क्या?"
"कभी नहीं, कभी
नहीं।" दोनों बच्चे व्यंग्यपूर्वक होंठ बिचकाते, गरदन
हिलाते हुए बोले।
"अच्छा, मजाक छोड़ो और
घर चलो।" मैंने कहा, "सात से ऊपर बज चुके हैं।
मुझे ऑफिस के लिए भी निकलना है।"
मेरी इस बात पर किसी ने कुछ नहीं कहा, सब के सब उठकर खड़े हो गए। वहाँ से चलकर हम घर आए। मैंने यथासम्भव अपने-आप
को सामान्य बनाए रखा। घर पहुँचकर नीलू ने साबुन से हाथ-पैर धोए। रसोईघर में गई।
अपने और बच्चों के लिए नाश्ता व मेरे लिए काढ़ा तैयार कर लाई और बोली,
"कल से, पार्क में अपना मोबाइल साथ नहीं
ले जाएँगे आप।"
उसका यह वाक्य सुनकर मेरे गले में चाय का फंदा
लगते- लगते बचा।
"अरे यार," मैं
स्वर को सामान्य रखते हुए बोला, "तुम विश्वास क्यों
नहीं करती हो मेरी बातों पर।"
"उसका कारण तो अभी, इसी समय ये बच्चे आपको बता देंगे।" उसने भी सहज स्वर में ही कहा,
"बहरहाल, कल सुबह से पार्क में अपना
मोबाइल साथ नहीं ले जाएँगे आप।"
"उस एक घंटे के दौरान कहीं से कोई कॉल आ
गई..." मैंने प्रतिवाद किया, "या घूमते-घूमते मुझे
ही तुमसे...या तुम्हें मुझसे कुछ कहना पड़ गया तो?"
"कोई भी कॉल मिस नहीं होगी।" वह
पूर्ववत बोली, "आपका मोबाइल हाथ में लेकर मैं
पीछे-पीछे चला करूँगी आपके।"
"क्या!" यह शब्द कुछ इस तरह निकला कि
मेरे मुँह में भरा सारा काढ़ा बाहर आ पड़ा।
7 comments:
वाहह... बहुत सुन्दर कहानी 🙏आपको बधाई सर... 🌹सत्यता को उजागर करती है यह कहानी
बहुत सुंदर मनोरंजक कहानी। हार्दिक बधाई आपको। सुदर्शन रत्नाकर
अरे वाह! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद भाईसाहब। 2022 के जाते-जाते भी आपने यह उपहार दे दिया!
खूब मज़ेदार!
बहुत सुन्दर कहानी । आज कई दिनों बाद पढ़ा । आपको खूब बधाई ।
स्त्री के रूप से भी परिचित कराती पारिवारिक कहानी बड़े मजेदार सलीके से रचित !
पति-पत्नी के पारिवारिक संबन्धों तथा पति द्वारा अपने स्वास्थ की अनदेखी एवं सरकारी सेवा की प्राथमिकता को बयां करती एक सुन्दर कहानी
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